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विश्व की सड़क-दुर्घटना मौतों में भारत का नाम सबसे ऊपर

‘‘विश्व के केवल 1 प्रतिशत वाहनों के साथ भारत वाहन-टक्कर संबंधी (crash-related) मृत्यु के 11 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार है। भारत की सड़कों पर वाहन टक्कर प्रति वर्ष 1,50,000 लोगों की जान लेते हैं और 7,50,000 अतिरिक्त लोगों को विकलांग बनाते हैं; इसका बड़ा हिस्सा पैदल यात्रियों और साइकिल सवारों का है, जो प्रधानतः समाज के गरीब तबके के कामकाजी वयस्कों का होता है।’’
सड़क-दुर्घटना
Image courtesy: Social Media

विश्व में भारत का नाम कलंकित हो रहा है। सड़क दुर्घटना मौतों के मामले में उसका स्थान अव्वल है। यदि हम केवल सड़क दुर्घटनाओं की बात करें तो भारत विश्व में तीसरे नंबर पर है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि विश्व बैंक की हाल में प्रकाशित रिपोर्ट हमारे देश की सड़क दुर्घटनाओं पर ही है। इसी प्रकार की एक रिपोर्ट पिछले वर्ष, यानी फरवरी 2020 में भी प्रकाशित हुई थी, जिसकी वजह से वैश्विक एजेन्सियां इस समस्या पर गंभीर दृष्टि डाल रही हैं।

यह बात अनायास ही नहीं है- 2018 के एनसीआरबी डाटा के अनुसार भारत में 4,45,514 सड़क दुर्घटनाएं हुईं और इनमें 1,52,780 मौतें हुईं। इसके मायने हैं कि हर 4 मिनटों में 1 व्यक्ति सड़क दुर्घटना में मारा जाता है।

सरसरी निगाह से भी यदि आप भारत के सड़क हादसों के आंकड़े देखें तो आप समझ सकेंगे कि कई विसंगतियां मौजूद हैं। राज्यों में तमिलनाडु, जहां 63,920 सड़क हादसे दर्ज किये गए और शहरों में दिल्ली, जहां 6517 सड़क हादसे दर्ज किये गए, प्रथम स्थान पर हैं। विडम्बना यह है कि दिल्ली और चेन्नई सहित तमिलनाडु के दूसरे शहरों में सड़कें देश की सबसे अच्छी सड़कों में गिनी जाती हैं और यहां का ट्रैफिक प्रबंधन सबसे मजबूत प्रबंधनों में गिना जाता है। यानी जितनी बेहतर सड़कें और अच्छा ट्रैफिक प्रबंधन उतनी अधिक सड़क दुर्घटनाएं! है न यह अजीब विरोधाभास?

हम यह नहीं कह सकते कि सरकारें पहल नहीं कर रहीं और कानून व सड़क यातायात नियम केवल कागज पर मौजूद हैं। समस्या को गंभीरता से लेते हुए, एक के बाद एक राज्य ट्रैफिक नियमों को मुस्तैदी से लागू करवा रहा है। फिर भी, 2010 में तकरीबन 5,00,000 सड़क हादसे हुए और इनमें 1,30,000 मौतें हुईं। परंतु आठ वर्ष बाद जहां सड़क हादसों में कुछ कमी आई और वे 4,45,514 हो गए, सड़क दुर्घटनाओं से मृत्यु में इज़ाफा हुआ और इनकी संख्या 1,52,780 हो गई। तमिलनाडु में भी, कारगर सड़क सुरक्षा प्रबंधन के चलते सड़क हादसे 2016 की तुलना में 29 प्रतिशत घट गए; फिर भी यह राज्य चार्ट में सबसे ऊपर है। यह भी अजीब बात है कि सड़क यातायात प्रबंधन बेहतर होने पर भी अधिक लोग सड़कों पर मरते हैं! केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी स्वयं संसद के पटल पर खेद व्यक्त कर रहे थे कि ढेर सारे कदम उठाने के बाद भी उनका मंत्रालय सड़क हादसों की संख्या को घटा न सका। उन्होंने माना कि गलत सड़क इंजीनियरिंग भी हादसों का एक बड़ा कारण है, जिसे 2025 तक ठीक करने का प्रयास वे करेंगे।

यह सच नहीं है कि दंड हल्के हैं और नियम लागू करने के मामले में ढिलाई है। 2019 में मोटर व्हिकल्स ऐक्ट में सुधार किया गया था और दंड कठोर बनाए गए थे; इसे 1 सितम्बर 2019 को लागू किया गया। यद्यपि इस समय का एनसीआरबी (NCRB) डाटा उपलब्ध नहीं है, चेन्नई के ट्रैफिक पुलिस हेडक्वाटर्स से अनौपचारिक पूछताछ करके पता चलता है कि सड़क हादसों की संख्या घटी नहीं है। दिल्ली के कुछ पत्रकारों से भी ऐसी ही स्थिति की जानकारी मिलती है। जितने सख्त कानून और जितनी मुस्तैदी से लागू किये गए, उतनी अधिक मौतों के पीछे पहेली क्या है?

यह पहेली और भी जटिल हो जाती है जब हम एक और विरोधाभास पर नजर डालते हैं। जिस समय भारत में सड़क हादसे महामारी की शक्ल ग्रहण कर रहे थे, कोविड महामारी का दौर प्ररंभ हुआ और पूर्ण लॉकडाउन घोषित हुआ। जो सेवाएं चालू थीं, वे नगण्य थीं और केवल वही आवश्यक सेवाएं अपने वाहन सड़कों पर चला रही थीं जिनको पुलिस विभाग ने पास जारी किये थे। आम तौर पर व्यस्त रहने वाली सड़कें भी सुनसान थीं। इसके बावजूद, आप लॉकडाउन के दौरान सड़क हादसों के आंकड़े देखें तो चौंक जाएंगे। सेवलाइफ फाउंडेशन, जो एक नॉन-प्रॉफिट संगठन है, की एक रिपोर्ट के अनुसार, उस दौर में, जब 24 मार्च 2020 से लेकर 3 मई 2020 के बीच प्रथम राष्ट्रीय लॉकडाउन घोषित किया गया था, करीब 40 दिनों के अंदर देश के 600 सड़क हादसों में 140 लोगों ने अपने प्राण गवाएं। सड़कें जब खाली थीं, तब भी सड़क दुर्घटनाओं में मौतों की संख्या क्यों नहीं घटी?

लाखों-लाख गरीब प्रवासी हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर घर गए, क्योंकि वाहन नहीं चल रहे थे। परन्तु आवश्यक सेवाओं के लिए चल रही गाड़ियां लॉकडाउन के दौरान 30 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाओं का कारण बनीं! लेकिन सड़क चलते प्रवासी मुख्य भुक्तभोगी नहीं रहे। ऐसा नहीं था कि पैदल चलने वाले ही मारे गए, बल्कि वाहनों के चालकों के लिए भी खतरा पैदा हुआ, क्योंकि मारे जाने वालों में 57 प्रतिशत लोग वाहन-चालक थे!

यह आखरी विरोधाभास हमें देश में बढ़ती सड़क-दुर्घटना मौतों के मूल कारण को समझने में मदद करता है। ‘रैश’ ड्राइविंग (rash driving) और यातायात नियमों का उल्लंघन एक ऐसी सांस्कृतिक रोग है जिसकी जड़ें चालकों के घातक मनोविज्ञान में गहरे पैठी हैं। केवल ट्रैफिक नियमों को मजबूत करने और लागू करने की प्रक्रिया दुरुस्त करने से समस्या हल नहीं होगी। गहन समाजशास्त्रीय व सांस्कृतिक मानव वैज्ञानिक अध्ययन (sociological and cultural anthropological studies) पर आधारित व्यवहार परिवर्तन शायद हल की ओर बढ़ने में मदद करे।

इस वर्ष प्रकाशित वर्ल्ड बैंक अध्ययन, जिसका शीर्षक हैः ट्रैफिक क्रैश इन्ज्युरीज़ ऐण्ड डिसएबिलिटीज़ः द बर्डन ऑन इंडियन सोसाइटी (Traffic Crash Injuries and Disabilities: the Burden on Indian Society) भारत के गरीबों पर सड़क हादसों के प्रभाव का एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण है। रिपोर्ट कहती है, ‘‘विश्व के केवल 1 प्रतिशत वाहनों के साथ भारत वाहन-टक्कर संबंधी (crash-related) मृत्यु के 11 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार है। भारत की सड़कों पर वाहन टक्कर प्रति वर्ष 1,50,000 लोगों की जान लेते हैं और 7,50,000 अतिरिक्त लोगों को विकलांग बनाते हैं; इसका बड़ा हिस्सा पैदल यात्रियों और साइकिल सवारों का है, जो प्रधानतः समाज के गरीब तबके के कामकाजी वयस्कों का होता है।’’ सड़क हादसों के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है।

वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट भारत के सड़क परिवहन व हाइवे मंत्रालय के आंकड़ों का हवाला देकर कहती है कि वाहन टक्करों की कीमत राष्ट्रीय जीडीपी के 3.14 प्रतिशत के समतुल्य है। यह चौंकाने वाला आंकड़ा है। इसलिए हमें समझना होगा कि सड़क हादसे केवल लोगों को मारते या विकलांग नहीं बनाते, बल्कि वे देश की अर्थव्यवस्था को ही विकलांग बनाते हैं। सड़क हादसों की भारी संख्या तब और भी भयावह लगती हैं जब यह तथ्य सामने आता है कि इनमें मरने वालों का 62 प्रतिशत हिस्सा 18-35 वर्ष आयु वालों का है।

पिछले वर्ष की वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट का शीर्षक था डिलिवरिंग रोड सेफ्टी इन इंडिया (Delivering Road Safety in India)। उसने चिह्नित किया कि अगले दशक से आरंभ कर 2030 तक किन नेतृत्वकारी प्राथमिकताओं और पहलकदमियों को लेने की आवश्यकता है ताकि सड़क हादसों और मौतों में भारी कमी लायी जा सके। रिपोर्ट ने सड़क सुरक्षा बढ़ाने हेतु कई महत्वपूर्ण व उपयोगी प्रस्ताव रखे। इन्हें लागू भी किया जा रहा है। फिर भी आंकड़े भयावह हैं। आप देखें कि भारत में कोविड-19 संबंधी मौतों की संख्या 20 फरवरी 2021 तक 1,57,697 तक पहुंची थी। महामारी की तुलना यदि सड़क हादसों में मौतों से करें तो प्रति वर्ष लगभग इससे मिलती-जुलती संख्या-करीब 1,50,000 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। इसलिए शायद नितिन गडकरी की बात सही साबित हुई।

इस बात से कोई इन्कार नहीं करेगा कि सड़क पर हो रही मौतों के इस देशज रोग से निपटने हेतु देश को महामारी की प्रतिक्रिया से अधिक गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता होगी। वर्ल्ड बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां द्वारा अनवरत डाले जा रहे दबाव और केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा अपनाए जा रहे कदमों का स्वागत करते हुए भी हमें कहना पड़ रहा है कि और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। मस्लन, उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि लखनऊ आरटीओ कार्यालय को प्रतिदिन 200 लाइसेंस के आवेदन क्लियर करने पड़ते हैं, जबकि ड्राइविंग टेस्ट के लिए कोई मैदान तक नहीं है। इसलिए इस या उस एजेंसी पर दोषारोपण करने से बेहतर होगा कि हम गंभीरता से विचार करें कि कमी कहां है।

वर्ल्ड बैंक ने हाल की रिपोर्ट में जो गरीबों पर केंद्रित किया है, वह सही है, पर वह इस बात को नज़रअंदाज़ करता है कि इस समस्या का एक महत्वपूर्ण पहलू है-निम्न वर्ग और ‘अपस्टार्ट ‘(upstart)  परिघटना। भारत में ड्राइविंग गरीबों की रोज़ी-रोटी का एक प्रमुख साधन है। यदि आप किसी वाहन चालक की पगार पर गौर करेंगे तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि वह काफी कम है। उत्तर प्रदेश के शहरों में एक पूर्णकालिक ड्राइवर को 7000 से 9000 रुपये प्रति माह वेतन पर रखा जा सकता है। यदि चालकों का न्यूनतम वेतन बढ़ाकर 13,000 कर दिया जाए, तो उनका सामाजिक स्तर उन्नत होगा और उनका आत्म सम्मान बढ़ेगा। इससे उनके व्यवहार में परिवर्तन आएगा। तब वे अधिक जिम्मेदार बन सकेंगे। यह कम वेतन दिखाता है कि लेबर मार्केट में भारी संख्या में चालक शहरी और ग्रामीण गरीब परिवारों से आते हैं। और, अधिकांशतः वे 20-30 की आयु श्रेणी से आते हैं। उनकी शिक्षा कम होती है और किसी अच्छे (महंगे) ड्राइविंग स्कूल में कठिन प्रशिक्षण लेकर भी वे नहीं आते। फिर भी उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त हो ही जाता है, और वे कमाई करने में लग जाते हैं; आखिर कौन नहीं जानता कि कुछ हज़ार रुपये देकर गाड़ी का लाइसेंस ‘खरीद’ लिया जाता है? हमारे देश में आरटीओ कार्यालय के भ्रष्टाचार के ये आलम हैं! फिर, जैसे ही किसी शहरी गरीब या कस्बे से आने वाले नौजवान के हाथ में वाहन का हैंडल या स्टीयरिंग व्हील आ जाता है, वह अपने को बादशाह महसूस करने लगता है।

यही स्थिति है शहरी मध्यम वर्ग के नौजवानों और उच्च वर्ग के लड़कों की। हम अब तक 1999 के लोदी कॉलोनी के बीएमडब्लू हिट-ऐण्ड-रन (hit-and-run)) केस को भूले नहीं हैं, जिसमें अपराधी गोफ लिंक्स का रईस राजीव गुप्ता था। रईसज़ादों की मानसिकता को हमने जेसिका लाल केस में सबसे बेहतर देखा है, जिसके कारण मध्यम वर्गीय अभिजात्यों के बीच भारी आक्रोश देखा गया। पर उपद्रवी व्यवहार का अंत नहीं होता। उतावले ढंग से वाहन चलाना और देश के कुछ क्षेत्रों में चालकों द्वारा हिंसक वारदातों को अंजाम देना काफी समय से चलता आ रहा है। यदि एक ओर अशिक्षित और बिना प्रशिक्षण लिए गरीब लड़कों को चालक के रूप में रखा जा रहा है, तो दूसरी ओर बड़ी संख्या में नव-मध्यम वर्ग के युवा कार खरीदने की क्षमता रखते हैं। ये नवयुवक लाइसेंस खरीद लेते हैं और फिर अपनी कार को तेज़ रफ्तार से और बेतरतीब ढंग से दौड़ाते हैं। वे शान से मोबाइल में बात करते हुए वाहन चलाते हैं। यह अजीब विरोधाभास है कि एक रईसज़ादा एक लाख से अधिक खर्च कर रॉयल एनफील्ड बुलट मोटरसाइकिल खरीद लेता है और ‘हीरो’ बन जाता है, पर इस रकम का सौवां हिस्सा खर्च करके हेलमेट नहीं खरीदना चाहता। इसलिए कई शहरों में टू-व्हीलर से होने वाली मौतें सड़क दुर्घटना मौतों में सबसे अधिक हैं; यदि हेलमेट लगाने का नियम कड़ाई से लागू किया जाता तो कई ज़िन्दगियां बच सकती थीं। पीछे बैठने वाले, खासकर महिलाओं पर भी यह लागू होना चाहिये।

कुल मिलाकर लोगों को अपने रवैये में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा क्योंकि समस्या का समाधान प्रधानतः सांस्कृतिक स्तर पर होगा; इसके साथ ही सड़कों की दशा को सुधारने, सुरक्षा उपायों को बेहतर बनाने और नियम कानूनों को सख्ती से लागू करने की जरूरत को कम करके नहीं आंका जा सकता है।

शायद भारतीय कॉरपोरेटों के ऊपर इस जिम्मेदारी का बड़ा हिस्सा सौंपा जाना चाहिये। ऑटोमोबाइल कम्पनियों को दुर्घटनाओं के केस में और रैश व लापरवाह ड्राइविंग के लिए जवाबदेह बनाना शायद कानूनी व संवैधानिकता के लिहाज से चुनौतिपूर्ण काम हो। फिर भी, सरकार ऐसे कानून बना सकती है जिससे वाहन निर्माताओं के लिए वाहन में अंतर्निहित या ‘इन-विहिक्ल’ सुरक्षा उपाय लगाना अनिवार्य हो, उदाहरण के लिए ऑटोमैटिक स्पीड कंट्रोलर और साइरन वाला अलार्म, जो शराब पीकर चलाने या गलत चलाने पर लोगों को आगाह कर दे। इन उपायों को इस तरह डिज़ाइन किया जाना चाहिये कि उन्हें बिना चालू किये गाड़ी को चलाना संभव ही न हो। इसके अलावा वाहन निर्माताओं व अन्य कॉरपोरेट्स पर सरचार्ज लागू होना चाहिये, जिससे सड़कों की दशा और सड़क सुरक्षा उपायों को चाक-चौंबंद किया जा सके; साथ ही जीविका के लिए वाहन चलाने वाले नए ड्राइवरों को रिफ्रेशर ट्रेनिंग दी जा सके।

सड़क दुर्घटनाओं के शिकार लोगों के लिए मुआवजा बेहद कम है; इसे दस गुना बढ़ाया जाना चाहिये। शराब पीकर चलाने से किसी की मौत हो जाए तो चालक की लाइसेंस जीवनपर्यन्त जब्त हो जाना चाहिये। वर्तमान समय में दिल्ली में 10 साल पुराने वाहनों को रद्द किया जा रहा है, पर मोदी जी मंदी की मार खाए हुए ऑटोमोबाइल उद्योग के लिए बाज़ार बढ़ाने की दृष्टि से अब 7 साल पुराने वाहनों को रिटायर करवाना चाहते हैं। इसके बजाय उन्हें सड़क सुरक्षा पर खर्च कम-से-कम दस गुना बढ़ाना चाहिये। सरकार अपनी पीठ थपथपाती है कि आतंकी गतिविधियां और आतंकी हत्याओं में 2014 की तुलना में कमी आई है। हां, यह सच है कि 2020 में जम्मू-कश्मीर में 230 उग्रवादी मारे गए और बाकी देश में 177 लोग आतंकी वारदातों के शिकार हुए। पर फोर-व्हीलर के आतंक ने 1.5 लाख जानें ले लीं! 56-इंच का गुरूर दिखाने वाले इस संख्या को कम-से-कम आधा कर देने के मामले में इतने शक्तिहीन क्यों दिखते हैं?

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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