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ख़बरों के आगे-पीछे : कई पार्टियां न इधर और न उधर

कई पार्टियां ऐसी हैं, जो किसी भी बैठक में शामिल न होते हुए तमाशबीन बनी रहीं और आगे भी तमाशबीन ही बनी रहेंगी। ऐसी सभी पार्टियां बड़ी हैं और राज्यों में सत्तारूढ़ हैं लेकिन किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं।
khabro ke aage peeche

दिल्ली और बेंगलुरू में सत्तापक्ष और विपक्ष के गठबंधन की बैठक में भाजपा और कांग्रेस दोनों की ओर से ज्यादा से ज्यादा पार्टियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए प्रयास हुए। लेकिन इसके बावजूद कई पार्टियां ऐसी हैं, जो किसी भी बैठक में शामिल न होते हुए तमाशबीन बनी रहीं और आगे भी तमाशबीन ही बनी रहेंगी। ऐसी सभी पार्टियां बड़ी हैं और राज्यों में सत्तारूढ़ हैं लेकिन किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं। इन पार्टियों ने अपने को भाजपा और कांग्रेस दोनों से अलग रखा है। इनमें से कुछ पार्टियां ऐसी हैं, जो मुद्दों के आधार पर केंद्र सरकार को समर्थन देती हैं। ऐसी पार्टियों में बहुजन समाज पार्टी, ओडिशा का बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश की दोनों पार्टियां- वाईएसआर कांग्रेस तथा तेलुगू देशम पार्टी शामिल है। बसपा के अलावा तीनों पार्टियां संसद में सैद्धांतिक रूप से केंद्र सरकार का साथ देती हैं। वैसे पिछले कुछ समय से बसपा भी सरकार का साथ देती आ रही है। इन चारों पार्टियों ने राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव में भी भाजपा उम्मीदवार का समर्थन किया था। लेकिन ये भाजपा गठबंधन में भी शामिल नहीं हैं। इसी तरह तेलंगाना में सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति का रूझान भाजपा विरोधी का रहा है लेकिन अभी तक उसने विपक्षी गठबंधन से दूरी बनाए रखी है। अकाली दल लंबे समय तक भाजपा का सहयोगी रहा है लेकिन वह भी अभी किसी के साथ नहीं है। हालांकि उसके भाजपा के साथ जाने की संभावना ज्यादा है। इन पार्टियों के अलावा एमआईएम, जेडीएस और एआईयूडीएफ भी किसी के साथ नहीं हैं।

एक ही पार्टी का एक धड़ा इधर, दूसरा उधर

पिछले सप्ताह दिल्ली और बेंगलुरू में हुई दो गठबंधनों की बैठकों में कुल 64 राजनीतिक पार्टियां शामिल हुईं। दोनों ही बैठकों में दिलचस्प बातें देखने को मिलीं। कई ऐसी पार्टियां, जो पहले भाजपा के साथ रही, वे कांग्रेस के गठबंधन में दिखीं और कांग्रेस की सहयोगी रही पार्टियां भाजपा के गठबंधन की बैठक में शामिल हुईं। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह रही कि कई पार्टियों में पिछले कुछ समय से विभाजन हुआ है और उनका एक धड़ा एक तरफ था तो दूसरा धड़ा दूसरी तरफ। ऐसा भी हुआ कि दोनों धड़े एक ही बैठक में मौजूद रहे और यह भी हुआ की दूसरे धड़े को किसी ने नहीं पूछा। जैसे अन्ना डीएमके से ई. पलानीस्वामी एनडीए की बैठक में शामिल हुए और ओ. पनीरसेल्वम को किसी ने नहीं पूछा। लोक जनशक्ति पार्टी के दोनों खेमे यानी चिराग पासवान और पशुपति पारस का खेमा एक साथ एनडीए की बैठक में शामिल हुआ। शिव सेना के एक खेमे के नेता एकनाथ शिंदे एनडीए की बैठक में शामिल हुए तो उद्धव ठाकरे 'इंडिया’ की बैठक में गए। एनसीपी के शरद पवार इंडिया की बैठक शामिल हुए तो एनसीपी के विभाजित धड़े के नेता प्रफुल्ल पटेल एनडीए की बैठक में पहुंचे। अपना दल (सोनेलाल) की नेता अनुप्रिया पटेल एनडीए की बैठक में मौजूद रहीं तो उनकी मां और अपना दल (कमेरावादी) की नेता कृष्णा पटेल ने 'इंडिया’ की बैठक में भाग लिया।

इंडिया के बनने से यूपीए का वजूद खत्म

भारतीय जनता पार्टी और उसकी अगुवाई वाले 38 दलों के नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस यानी एनडीए के खिलाफ 26 विपक्षी दलों के 'इंडिया’ यानी इंडियन नेशनल डेवलमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस की घोषणा हो गई, जिसमें कांग्रेस मुख्य घटक दल है। इसलिए औपचारिक तौर पर घोषित न होने के बावजूद यह मान लिया जाए कि आधिकारिक रूप से यूपीए यानी यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस अब समाप्त हो गया है। यूपीए की लगभग सभी पार्टियां अब 'इंडिया’ का हिस्सा हो गई है और कुछ अन्य दल भी इसमें शामिल हो गए हैं। ऐसे में यूपीए के बने रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। वैसे भी यूपीए का आकार छोटा था, जबकि 'इंडिया’ का आकार बड़ा है। यह नहीं हो सकता है कि दोनों गठबंधन एक साथ अस्तित्व में रहे। सो, इंडिया के नाम से नया और बड़ा गठबंधन अस्तित्व में आने से 2004 में बना यूपीए स्वत: समाप्त हो गया है। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी यूपीए की चेयरपर्सन हैं और अब कांग्रेस पार्टी इस बात के लिए दबाव बना रही है कि उनको 'इंडिया’ का चेयरपर्सन बनाया जाए। हालांकि कई पार्टियों को इस पर आपत्ति हो सकती है। इस बारे में मुंबई में होने वाली विपक्षी पार्टियों की अगली बैठक में स्थिति साफ होगी।

सिंधिया और उनके समर्थकों की चिंता बढ़ी

मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की हसरत लेकर कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों की चिंता बढ़ गई है। यह तो तय है कि मौजूदा विधानसभा के रहते सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे, ऊपर से अगले विधानसभा चुनाव में उनके समर्थकों के टिकट कटने का खतरा बढ़ गया है। पार्टी नेतृत्व ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को मध्य प्रदेश की चुनाव अभियान समिति का संयोजक नियुक्त किया है। मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश प्रभारी के साथ मिल कर चुनाव अभियान समिति का संयोजक ही चुनाव की रणनीति बनाता है और टिकटों के बंटवारे में भी उसकी अहम भूमिका होती है। नरेंद्र सिंह तोमर मध्य प्रदेश के ग्वालियर-चंबल संभाग के नेता हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इसी संभाग के हैं। उनके ज्यादातर समर्थक, जो उनके साथ भाजपा में शामिल हुए थे और बाद में भाजपा की टिकट पर उपचुनाव लड़े थे उनमें से ज्यादातर इसी संभाग के थे। उन्होंने पहले भाजपा के नेताओं को हराया था और बाद में भाजपा नेताओं के टिकट काट कर उपचुनाव में उनको टिकट दिया गया था। अब सिंधिया समर्थक इस चिंता में हैं कि कहीं उनके टिकट न कट जाए या तोमर समर्थकों को ज्यादा टिकट न मिले। अगर भाजपा के पुराने नेताओं को तरजीह दी जाती है या तोमर अपने समर्थकों को टिकट दिलाने पर जोर डालते है तो सिंधिया समर्थकों की टिकट कटना तय है। अगर ऐसा होता है तो उनकी स्थिति 'न घर के रहे न घाट के’ वाली हो जाएगी।

राज्यों में कांग्रेस और आप के बीच पेंच

कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच सद्भाव बन गया है। केंद्र सरकार के अध्यादेश का विरोध करने के कांग्रेस के फैसले से आम आदमी पार्टी के नेता खुश हैं। उन्होंने अध्यादेश पर कांग्रेस के इस फैसले के लिए पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का आभार भी जताया। लेकिन सवाल है कि अब आगे क्या? लोकसभा का चुनाव तो अगले साल है, जिसके लिए विपक्षी पार्टियां अपनी तैयारी कर रही है। उसके लिए सीट बंटवारे की बात बाद में होगी। पहले राज्यों के चुनाव हैं, जहां कांग्रेस का भाजपा का सीधा मुकाबला होगा और आम आदमी पार्टी भी वहां लड़ने की तैयारी कर रही है। साल के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव हैं। इनमें से तेलंगाना और मिजोरम को छोड़ कर तीनों राज्यों में कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है और आम आदमी पार्टी भी इन तीनों राज्यों में पूरी ताकत से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। हालांकि उसके शीर्ष नेतृत्व को अंदाजा है कि उनकी पार्टी की स्थिति कर्नाटक जैसी ही रहने वाली है। तीनों राज्यों में दो-दो फीसदी वोट भी मिल जाए तो बहुत होगा। लेकिन तीनों राज्यों में कुछ-कुछ सीटों पर पार्टी कांग्रेस को जरूर नुकसान पहुंचा सकती है। दूसरे, अगर अरविंद केजरीवाल अपनी सभाओं में कांग्रेस पर हमला करते हैं और उसे भाजपा के जैसा बताते है तो धारणा के स्तर पर कांग्रेस को नुकसान होगा। भाजपा को विपक्षी गठबंधन पर सवाल उठाने का मौका मिलेगा। इसलिए दोनों पार्टियों को इस बारे में कुछ फैसला करना होगा। कांग्रेस तालमेल नहीं करेगी, इसीलिए आम आदमी पार्टी के लिए एक रास्ता यह है कि वह हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की तरह औपचारिकता के लिए चुनाव लड़े।

महाराष्ट्र में फिर कुछ नया होने के आसार

महाराष्ट्र की राजनीति में बेहद दिलचस्प नजारे देखने को मिल रहे हैं। विभिन्न दलों के बीच अंदरखाने कुछ न कुछ तो पक रहा है लेकिन क्या पक रहा है, उसका अंदाजा किसी को नहीं है। शिव सेना के टूटने के बाद शरद पवार की एनसीपी क्यों टूटी, इसका भी किसी को ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि वह टूट सचमुच की है या दिखावा है। एनसीपी में टूट के बाद एक हफ्ते के भीतर अजित पवार तीन बार क्यों शरद पवार से मिले, यह भी कोई नहीं जानता। इस बीच 18 जुलाई को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ प्रफुल्ल पटेल और अजित पवार की मुलाकात हुई। चारों नेता एक साथ मिले और इस मुलाकात के बाद अजित पवार महाराष्ट्र लौटे तो उनकी पहली मुलाकात उद्धव ठाकरे से हुई। क्या यह संयोग है कि अजित पवार महा विकास अघाड़ी के दोनों घटक दलों के नेताओं से मिल रहे हैं? पहले वे शरद पवार की बीमार पत्नी को देखने घर गए थे। उसके बाद लगातार दो दिन वाईवी चव्हाण सेंटर में शरद पवार से मिले, पहले दिन नौ और दूसरे दिन 15 विधायकों के साथ। फिर दिल्ली से लौटने के बाद विधानसभा भवन में उद्धव ठाकरे से मिले। उद्धव विधान परिषद की बैठक में हिस्सा लेने पहुंचे थे और उसके बाद अजित पवार के पास जाकर उनसे मिले। दोनों पार्टियों ने इसे शिष्टाचार मुलाकात बताया। लेकिन ऐसा लग रहा है कि यह संयोग नहीं था कि अजित पवार दिल्ली से लौटे और उसी दिन उद्धव ठाकरे विधान परिषद की बैठक में पहुंचे और फिर दोनों की मुलाकात हुई। ये मुलाकातें बता रही हैं कि आने वाले दिनों में महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ और भी नया देखने को मिल सकता है।

बंगाल में भाजपा की लोकप्रियता उतार पर

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को जिन राज्यों में छप्पर फाड़ जीत मिली थी उनमें एक राज्य पश्चिम बंगाल है। कर्नाटक और ओडिशा के बाद बंगाल ही वह राज्य था, जहां से भाजपा को अप्रत्याशित रूप से बड़ी सफलता मिली। लेकिन उसके बाद से ही भाजपा वहां ढलान पर है। उसके बाद जितने चुनाव हुए हैं हर चुनाव में भाजपा का वोट कम हुआ है। माना जा रहा है कि भाजपा ने प्रदेश में अपना नेतृत्व नहीं खड़ा किया, जिसकी वजह से उसे नुकसान हुआ है। वह कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के सहारे राजनीति करती रही। कभी मुकुल राय पर भरोसा किया तो कभी शुभेंदु अधिकारी पर। लोकसभा चुनाव में भाजपा को 40.6 फीसदी वोट मिले थे। उसके बाद विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट दो फीसदी कम होकर 38 फीसदी पर आया। यह भी फिर भी ठीक था। लेकिन उसके बाद जितने उपचुनाव हुए और जितने स्थानीय निकायों के चुनाव हुए उनमें भाजपा को बहुत नुकसान हुआ। हाल का पंचायत चुनाव मिसाल है, जिसमें भाजपा को सिर्फ 22 फीसदी वोट मिले। कांग्रेस और लेफ्ट का साझा वोट 20 फीसदी पहुंच गया, जो विधानसभा चुनाव में 12 फीसदी था। ममता की पार्टी को विधानसभा के 48 फीसदी के मुकाबले 51 फीसदी वोट मिले। जाहिर तौर पर कांग्रेस और लेफ्ट को आठ फीसदी और तृणमूल कांग्रेस को तीन फीसदी वोट का जो फायदा हुआ वह भाजपा का नुकसान था। इससे पहले भवानीपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा का वोट 35 से घट कर 22 फीसदी हो गया और सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव में उसका वोट 24 से घट कर 14 फीसदी रह गया। आसनसोल की अपनी जीती हुई सीट पर वह बुरी तरह से हारी। अगले लोकसभा चुनाव से पहले वोट का यह रूझान भाजपा के लिए चिंता की बात है।

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