Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हबीब तनवीर : देशज रंगपद्धतियों से आधुनिकता की तलाश करने वाला रंगकर्मी

“मैंने संस्कृति के विभाजन को आसान कर दिया है। इसे दो भागों में बांटा है—उत्पीड़क की संस्कृति और उत्पीड़ित की संस्कृति। यह तय आपको करना होगा कि आप किस पक्ष के हैं- ज़ालिम या मज़लूम?”
Habib Tanvir
फ़ोटो साभार :सोशल मीडिया

1 सितंबर 1923- हिंदी रंगमंच के इतिहास में लोकाख्यान का दर्जा पा चुके हबीब तनवीर का जन्म आज ही के दिन सौ वर्ष पूर्व रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ था। भारतीय रंगमंच के मानचित्र पर हबीब तनवीर ऐसी जगह अवस्थित हैं जहां उनकी बराबरी करने वाला कोई नहीं है। हबीब तनवीर ने जो कहानियां अपने नाटकों के माध्यम से कहीं वे सीधी-सादी परंतु असर डालने वाली हमारे समय की कहानियां थीं। उन्होंने भारत के नए ढंग के रंगमंच की नींव डाली। उनके ग्रुप का नाम भी था 'नया थियेटर'।

आगरा बाज़ार, चरणदास चोर, बहादुर कलारिन, शाजापुर की शांतिबाई, गांव के नाम ससुराल मोर नाम दामाद,  कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना, राजा हिरमा की अमर कहानी, मोटेराम का सत्याग्रह जैसे नाटकों के ज़रिये उन्होंने भारतीय रंगमंच का मुहावरा ही बदल दिया।  

हबीब तनवीर ने एक ओर जहां संस्कृत नाटकों के बड़े नामों जैसे शुद्रक, भास, भवभूति और विशाखदत्त के नाटक किए वहीं पश्चिम के शेक्सपीयर, मौलियर, लोर्का, गोगोल, गोर्की, स्टीफन जविग सरीखे नाटककारों को मंचित किया। साथ ही रवींद्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद, शिशिर दास, असगर वजाहत, शंकर शेष, सफदर हाशमी, विजय दान देथा जैसे रचनाकारों को अपने नाटकों का विषय बनाया।

हबीब तनवीर ने हिंदी छोड़ छत्तीसगढ़ बोली में नाटक करना शुरू किया। मध्यवर्गीय तबकों के बजाए मेहनतकशों के बीच से अपने अभिनेता तलाशे। छत्तीसगढ़ी समाज के सबसे निचले हिस्से, निचली जातियों और पेशे से खेत मजदूरों को अपने नाटकों का अभिनेता बनाया। पांच छह दशकों तक अभिनेताओं के एक ही समूह के साथ काम किया जो हिंदी रंगमंच में एक परिघटना की तरह था। अपने नाटकों में अधिकांशतः श्रमिक तबके से आने वाले पात्रों को नायकत्व प्रदान किया।

हबीब तनवीर ने नाटकों में जीवन व मृत्यु के जटिल प्रश्नों को तलाशने की कोशिश अपने नाटकों में की। मौत का सामना या मौत से मुठभेड़ हबीब तनवीर के हर नाटक में किसी न किसी रूप में मौजूद रहती है। पर 'मौत से  रूबरू रंजक क्षणों' की खोज का कमाल उनके बूते ही संभव था।

प्रारंभिक जीवन

हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर 1923 को हुआ था। उन्होंने 1942 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और सन् 1945 में बॉम्बे (मुंबई) की सिनेमाई दुनिया में अभिनय के माध्यम से अपना करियर तलाश करने गए। तब के चर्चित अभिनेता और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बलराज साहनी के व्यक्तित्व से प्रभावित हो वे इप्टा में चले आए। इस वक्त तरक़्क़ीपसंद तहरीक का बोलबाला था। वे इप्टा के साथ साथ प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े। कविता लिखने के लिए  'तनवीर' उपनाम जोड़ा।

इस दौरान जीविका के लिए उन्होंने रेडियो में भी नौकरी की। लेकिन धीरे- धीरे उन्हें अहसास हुआ की वे सिनेमा और कविता के लिए नहीं अपितु थियेटर के लिए बने हैं।

1954 में वे दिल्ली चले आए और 'हिंदुस्तानी थियेटर' की कुदिसिया जैदी के साथ काम किया। यहीं उनकी मुलाकात मोनिका मिश्रा से हुई जो आगे चलकर उनकी जीवन संगिनी बनी।

कुदिसिया जैदी की असामयिक मौत के बाद हबीब तनवीर लंदन चले गए। ब्रिटिश काउंसिल की स्कॉलरशिप और अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति डॉ. जाकिर हुसैन की आर्थिक मदद से उन्हें लंदन के प्रसिद्ध थिएटर स्कूल ‘रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स’ यानी ‘राडा’ और ब्रिस्टल ओल्ड विक थियेटर स्कूल में पढ़ने का मौका मिला।

यहां थियेटर की ब्रिटिश पद्धति को से परिचित हुए लेकिन सबसे अधिक तो हबीब तनवीर ने यह सीखा की हिंदुस्तान में जाकर उन्हें क्या नहीं करना है! अरस्तू के 'थ्री यूनिटीज' (टाइम, स्पेस और यूनिटी की एकता) की पश्चिमी रंग अवधारणा के बदले हबीब तनवीर ने पाया सबसे बुनियादी चीज है रस की उत्पत्ति। यदि रंगमंच से 'रस' निःसृत होता है तो बाकी व्याकरण बेमानी हैं।

यूरोपीय यात्रा के दौरान  को जब वे बर्तोल्त ब्रेख्त से मिलने बर्लिन गए तो पता चला कि कुछ ही महीने पहले उनकी मृत्यु हो चुकी है। बर्लिन में तनवीर ने आठ महीने गुज़ारे और ब्रेख्त की कई नाट्य प्रस्तुतियां देखीं।

हबीब तनवीर ने महसूस किया की ब्रेख्त के नाटकों की सबसे बडी खासियत है उसकी सादगी और यही सादगी भारत के संस्कृत नाटकों का भी अविभाज्य हिस्सा बन जाती है। इस समझ ने धीरे-धीरे उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व को आकार देना शुरू किया।

आगरा बाज़ार

1954 में 'आगरा बाज़ार’ पहली बार प्रस्तुत किया गया। 'आगरा बाज़ार' कवि नज़ीर अकबराबादी की नज़्मों और गज़लों पर आधारित था जो उन्होंने बाज़ार में सामान बेचने वालों की फरमाइश पर लिखे थे। आगरा बाज़ार और हबीब तनवीर एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे। जनता के शायर नजीर अकबराबादी को लोकप्रिय बनाने में भी  'आगरा बाज़ार' नाटक का महत्वपूर्ण योगदान है। पश्चिमी और भारतीय रंग-अनुभवों के मेल से गढ़े  गए अनूठे शिल्प का बेहतरीन उदाहरण था ‘आगरा बाज़ार’।

सन् 1971 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने इंदिरा गांधी के 'गरीबी हटाओ' नारे का समर्थन करते हुए नाटकों के जरिए चुनाव प्रचार किया। भारतीय राजनीति में पहली बार किसी पार्टी को पचास प्रतिशत मत हासिल हुए थे। 1972 में हबीब तनवीर राज्यसभा के लिए चुन लिए गए।

चरणदास चोर

आगरा बाज़ार (1958) से चरण दास चोर (1973-74) के इस वक्फे में उन्होंने कई प्रयोग किए और 1975 में ‘चरणदास चोर’ के साथ ही तनवीर की शैली और प्रस्तुति ने अपनी पूर्णता पा ली। 'चरणदास चोर’ के ज़रिए तनवीर ने ये साबित कर दिखाया कि लोक परंपराओं के मेल और देशज रंगपद्धति से कैसे आधुनिक नाटक खेला जा सकता है।

1982 में एडिनबरा के विश्व ड्रामा फेस्टिवल में बावन मुल्कों के ड्रामों के बीच ‘चरणदास चोर’ को मिले प्रथम स्थान  हबीर तनवीर और 'नया थिएटर' को दुनियावी स्तर पर मशहूर बना डाला।

‘चरणदास चोर'  में हबीब तनवीर ने लिखा—

कि सच का पथ इतना महान है/ कि कुछ ही हैं/ जो इसपर चल पाते हैं / एक मामूली चोर मशहूर हो गया है/ कैसे?/ सिर्फ़ सच बोलकर।

यह नाटक चरणदास नामक चोर की कहानी  है जिसका सच बोलने के कारण त्रासद अंत होता है।

हबीब तनवीर ने लोक शैलियों के साथ काम उस दौर में किया था जब मिट्टी से जुड़ाव का नारा प्रचलन में नहीं था। बाद में फोर्ड फाउंडेशन के पैसे से 'बैक टू द रूट्स' (अपनी जड़ों की लौटो) का नारा दिया गया। इस नारे के तहत रंगमंच में 'भारतीयता की खोज' की बेहद घातक प्रक्रिया शुरू हुई जिसने भारत के रंगमंच को बहुत नुकसान पहुंचाया।

यह आज तक एक अनुत्तरित सवाल है की क्यों हबीब तनवीर को छोड़ कोई दूसरा रंगकर्मी लोक शैलियों के साथ काम करते हुए उतना सफल नहीं हो पाया?

इस बात का जवाब हबीब तनवीर ने 2002 में पटना के अपने व्याख्यान 'लोकगीतों में प्रतिवाद के स्वर' में देने की कोशिश की थी। उन्होंने बताया था कि लोक या फोक में प्रतिवाद के तत्व के साथ  सामंती कुचलन भी मौजूद रहा  करता है। आपको दोनो को अलगाकर बेहद सावधान रहना चाहिए अन्यथा सामंती पुरुत्थानवादी प्रवृत्तियों के उभार का खतरा बना रहेगा।

नब्बे के दशक में जब भारत में सांप्रदायिक शक्तियों का उभार होना शुरू हुआ तब कई नाटक इस दिशा में मंचित किए। 'एक औरत थी हिप्पेशिया' ऐसा ही नाटक  जिसमें चौथी शताब्दी की अलेक्जेंड्रिया की एक गणितज्ञ स्त्री 'हिप्पेशिया' की हत्या कट्टरपंथियों ने पत्थर से मार-मार कर कर दी थी। 

धर्म के पाखंड व जातिप्रथा पर केंद्रित 'पोंगा पंडित' कई बार सांप्रदायिक शक्तियों ने निशाना बनाया। मध्यप्रदेश में उनका सरकारी आवास तक छीन लिया गया।

2003 में जब पटना में जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन में हबीब तनवीर का यह वक्तव्य काफी मशहूर हुआ था "फासीवादी ताकतों में सेंस ऑफ ह्यूमर का अमूमन अभाव रहता है।"

कैसा दुर्भाग्य है की जब उनकी पत्नी मोनिका मिश्रा की मौत हुई तो उन्हें दफनाने के लिए पारसी लोगों का कोई कब्रिस्तान राजी न हुआ क्योंकि उन्होंने एक मुसलमान से शादी की थी। तब मोनिका मिश्रा का उनकी मौत के बाद धर्म परिवर्तन कराया गया तब जाकर वे दफनाये जाने के काबिल बन सकीं। जो कलाकार जिंदगी भर फिरकापरस्त  ताकतों से लोहा लेता रहा उसे अपने अंतिम दिनों में कैसी त्रासदी झेलनी पड़ी!

हबीब तनवीर ने अपनी आत्मकथा भी लिखी है। अपने काम की प्रेरणा के बारे में बताते हैं, “मैंने संस्कृति के विभाजन को आसान कर दिया है। इसे दो भागों में बांटा है—उत्पीड़क की संस्कृति और उत्पीड़ित की संस्कृति। यह तय आपको करना होगा कि आप किस पक्ष के हैं- ज़ालिम या मज़लूम?”

अनीश अंकुर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest