अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस: कहां हैं हमारे मानव अधिकार?
मानव अधिकारों के तहत संविधान में लैंगिक समानता है यानी स्त्री हो या पुरुष सभी के अधिकार बराबर हैं। पर वास्तव में हमारे समाज में महिलाओं और दलितों को उनके समानता के अधिकार से वंचित किया जाता है। उन्हें गरिमा से जीने का हक नहीं दिया जाता है। तभी तो मानव मल ढोने की प्रथा जारी है। दलितों का सीवर में सीवर सफाई के दौरान जहरीली गैसों से दम घुटकर मरना जारी है। दलित महिलाओं द्वारा मानव मल ढोना जारी है। कहां हैं उनके मानव अधिकार? क्यों नहीं हैं उन्हें इज़्ज़त से जीने का अधिकार?
जातिगत ढांचे के अंतर्गत हमारी सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार की है कि दलित समुदाय के लोगों को वर्चस्वशाली जाति समुदाय के द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता है। हाल ही में जेवर के गोपालगढ़ गांव में दलित युवक की बारात नहीं चढ़ने दी गई। कथित उच्च जाति के दबंग युवकों ने बारात के साथ चल रहे हरगोविंद के बेटे संजय और श्रीपाल के साथ जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया। गाली-गलौज करके मारपीट कर दी। बचाव में आई पुष्पा देवी पत्नी रामकिशन के साथ अभद्र व्यवहार किया गया। उनको मारपीट कर घायल कर दिया गया। मानवाधिकार के अंतर्गत अन्य समुदायों की तरह दलित युवकों को भी बारात में घोड़ी पर चढ़ कर आने का अधिकार है। पर जातिवादी मानसिकता के कारण यानी अपनी उच्च जाति के घमंड के कारण उन्हें बर्दाश्त नहीं होता कि कोई दलित उनकी बराबरी करे। उनका गुस्सा जाति सूचक गाली-गलौज और मारपीट में निकलता है। यह जातिगत भेदभाव और छुआछूत का एक ताजा उदाहरण है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार देश के सभी नागरिकों को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। गरिमा के साथ इंसान तभी जी सकता है जब उसे उसके सारे मानवीय अधिकार प्राप्त हों। उसकी आजीविका के लिए उसका सम्मानजनक पेशा हो। दुखद है कि हमारे देश मे ऐसा है नहीं। हमारे देश में कुछ ऐसी कुप्रथाएं हैं जिसकी वजह से इंसान अपनी आजीविका के लिए अमानवीय कार्य करने को विवश है। उनमें से एक है मैलाप्रथा का जारी रहना। यह एक ऐसी प्रथा है जो छुआछात और जातिवाद पर आधारित है। भले ही हमारे संविधान ने छुआछात की प्रथा का उन्मूलन कर दिया हो पर देश की सामाजिक व्यवस्था जाति आधारित होने के कारण आज भी यह कुप्रथा मौजूद है। जातिगत भेदभाव उच्च-निम्न क्रम पर आधारित है। इतना ही नहीं हमारे देश में पितृसत्ता है जिसके कारण यहां लैंगिक भेदभाव है। मानव अधिकारों के तहत संविधान में लैंगिक समानता है यानी स्त्री हो या पुरुष सभी के अधिकार बराबर हैं। पर वास्तव में हमारे समाज में महिलाओं और दलितों को उनके समानता के अधिकार से वंचित किया जाता है। उन्हें गरिमा से जीने का हक नहीं दिया जाता है। तभी तो मानव मल ढोने की प्रथा जारी है। दलितों का सीवर में सीवर सफाई के दौरान जहरीली गैसों से दम घुटकर मरना जारी है। दलित महिलाओं द्वारा मानव मल ढोना जारी है। कहां हैं उनके मानव अधिकार? क्यों नहीं हैं उन्हें इज़्ज़त से जीने का अधिकार?
दुनिया के सभी लोग अपने बुनियादी मानव अधिकारों का आनंद ले सकें इसके लिए ही अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की शुरूआत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसम्बर 1948 में की और 1950 में महासभा ने सभी देशों को इसकी शुरूआत के लिए आमंत्रित किया। लेकिन दुखद है कि हमारे देश में मानवाधिकार कानून को अमल में लाने के लिए एक लम्बा समय लगा। इसे भारत में 26 सितम्बर 1993 को लागू किया गया।
हम सब जानते हैं कि प्रकृति इंसान और इंसान में भेद नहीं करती। वह सब को जीने का अवसर देती है। सबको हवा, पानी, भोजन और जीने की परिस्थितियां उपलब्ध कराती है। भले ही स्थान, विशेष की जलवायु के कारण कहीं गोरे लोग होते हैं - कहीं काले तो कहीं सांवले। कहीं लम्बे तो कहीं नाटे कद के। पर सबकी मानवीय बुनियादी जरूरतें एक सी होती हैं।
यह इन्सानी प्रवृति होती है कि वह रंग, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल, सम्प्रदाय, जाति के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन समझता है। शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर को, अमीर गरीब को कमतर समझता है। वह उस पर अपना आधिपत्य चाहता है। उसे अपना गुलाम बनाना चाहता है। उससे अपनी सेवा करवाना चाहता है। वह दूसरों के आत्मसम्मान को कुचल कर अपने अहम् भाव को तुष्ट करता है। इतिहास इस तरह की घटनाओं से भरा पड़ा है। राजाओं के युग में एक राजा दूसरे राजा को युद्ध में हराकर उसे अपना बन्दी बना लेता था और उसके राज्य पर कब्जा कर लेता था। दूसरों पर हुकूमत करना ही उसका उद्देश्य होता था।
उपनिवेशवाद का दौर भी आया। जहां ब्रिटिश शासकों ने दुनिया के अधिकांश भागों पर अपना कब्जा कर लिया था। वहां उन्होने अपने नियमों के अनुसार शासन शुरू कर दिया था। ब्रिटिश शासकों के बारे में कहा जाता है कि उनके राज्यों में कभी सूर्यास्त नहीं होता था।
इन्हीं अंगरेजों ने हमारे देश पर भी लगभग दो सौ वर्षों तक राज किया। उनका उद्देश्य सिर्फ राज करना ही नहीं था बल्कि यहां के लोगों का शोषण कर अपने देश को समृद्ध करना था। यहां की धन-दौलत को लूटकर अपना खजाना भरना था। ब्रिटेन ने औद्योगिक क्रान्ति के दौरे में यहां से कच्चा माल ले जाकर वहां की निर्मित वस्तुएं यहां बेचकर यहां के लघु उद्योगों को भी तबाह कर दिया था।
अंग्रेजों ने ही यहां के निवासियों का शोषण किया हो - बात सिर्फ इतनी नहीं है। अपने देश की सामंतवादी व्यवस्था ने - जमींदारी प्रथा ने भी आम आदमी का जमकर शोषण किया। बाद में पूरी दुनिया में दो वर्ग प्रमुख रूप से उभर कर सामने आए - ये हैं पूंजीपति व सर्वहारा। पूंजीपति वर्ग सर्वहारा यानी मजदूर वर्ग का शोषण कर फूलने-फलने लगा।
हमारे देश में तो जातिवादी व्यवस्था भी एक बड़ा कारक बन कर उभरी। मनुवादी व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ जातियों को श्रेष्ठ एवं कुछ को तुच्छ घोषित कर दिया गया। इसमें पौराणिक परिकल्पना दी गई कि सभी मनुष्य ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं। उनके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य पैरों से शूद्रों का उत्पन्न होना बताया गया। इसी व्यवस्था के तहत शूद्रों का काम उपरोक्त तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया। परिणामस्वरूप शूद्रों (दलितों) की स्थिति बद से बदतर होती गई। उन्हें सभी मानवाधिकारों से वंचित कर दिया गया। दयनीय स्थिति में जीने को विवश कर दिया गया। जाति एवं जन्म के आधार पर उन्हें हमेशा के लिए गुलाम बना दिया गया।
इसी प्रकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत स्त्रियों को भी पुरूषों के साथ समानता के अधिकारों से वंचित कर दिया गया। उन्हें प्रताड़ित करना वर्चस्वशाली लोगों ने अपना अधिकार समझ लिया। उनके ग्रंथ भी यह कह कर इसे न्यायोचित ठहराने लगे कि - ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।’’
यह सब सिर्फ हमारे देश में ही हुआ हो - ऐसा नहीं है। गोरे अंग्रेजों ने नस्लवाद के नाम पर काले लोगों को अपना गुलाम बना लिया था। इस प्रकार शूद्र, दलित, आदिवासी, स्त्रियां, काले लोग सदियों से मानवाधिकारों से वंचित रहे।
कालान्तर में उन्हें अपनी गुलामी का एहसास हुआ और अपनी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए जाग्रत हुए, आक्रोशित हुए और विद्रोह किया। फ्रांस की क्रान्ति को इसका पहला कदम कहा जा सकता है - जब पहली बार स्वतन्त्रता, समानता, न्याय एवं भ्रातृत्व की बात हुई। सबको मनुष्य होने का एहसास कराया गया। उनके समान अधिकारों की बात हुई। उसके बाद तो दासता की मुक्ति हेतु अनेक संघर्ष हुए। उसमें अमेरिका-अफ्रीका-रूस-भारत में स्वतन्त्रता संग्राम हुए। लोगों ने अपनी मुक्ति की लम्बी लड़ाई लड़ी।
समान मानव अधिकारों की लड़ाई में महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, नेलसन मण्डेला, भीमराव आंबेडकर जैसे लेागों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हमारे देश में तो दलितों एवं आदिवासियों का, संवैधानिक भाषा में कहें तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का, समान मानव अधिकारों के लिए अभी भी संघर्ष चल रहा है। आज के समय में दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श एवं स्त्री विमर्श मुख्य मुद्दे बने हुए हैं।
हमारे देश की विडम्बना यह है कि यहां कानून तो बन जाते हैं पर उन पर अमल नहीं होता। आज भी देश का एक बड़ा वर्ग अपने इंसान होने की लड़ाई लड़ रहा है। हर इंसान को सम्मान के साथ जीने, इज़्ज़त की आजीविका अपनाने का हक होना ही चाहिए। संक्षेप में कहें तो स्वतन्त्रता, समानता, न्याय एवं बंधुता ही जीवन के बुनियादी सरोकार हैं और हमारे मानव अधिकार इन्हीं की वकालत करते हैं। पर सिर्फ काननू या मानव अधिकार आयोग बनाने से हमें समान अधिकार नहीं मिल जाएंगे। इसके लिए जरूरी है हम अपनी जातिवादी, मनुवादी सोच बदलें और देश के हर नागरिक को उसके गरिमा के साथ जीने के अधिकार का लुत्फ उठाने दें।
लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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