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इरफ़ान:  नया कल्चरल ईथॉस गढ़ने वाला कलाकार 

स्मृति शेष : तुमने ‘सरेंडर’ नहीं किया, इरफ़ान, तुमने करोड़ों दिलों को जीता है और शान से अपनी ‘रेस’ पूरी की।
Irrfan khan

इरफ़ान ख़ान हमें छोड़कर चले गए, पर उन्होंने फिल्म जगत के लिए ऐसा अनमोल खज़ाना छोड़ा है, जो आने वाली पीढ़ी के कलाकारों के लिए मिसाल बनकर रहेगा। भारतीय फिल्म जगत में, डायरेक्टरों, प्रोड्यूसरों व एक्टरों का जो नया बैच सामने आया है, ये सोचने-समझने वाले लोगों का है, जिनकी आधुनिक किस्म की संवेदनशीलता है और जो बॉलीवुड में भी एक नए कल्चरल ईथॉस (सांस्कृतिक चरित्र या लोकाचार) को गढ़ रहे हैं। इरफ़ान उनमें से एक थे।

इरफ़ान न ही मसाला फिल्मों के हीरो थे, न ही एक छोटे बुद्धिजीवी दर्शक-समूह के लिए समानान्तर सिनेमा के फ़नकार!, वे ‘मिड्ल सिनेमा’ के प्रतिनिधि थे, जिसमें कलात्मकता और लोकप्रियता का योग होता है। शायद यही कारण है कि इरफ़ान के जाने के बाद सोशल मीडिया में शोक संदेशों की बाढ़ सी आ गई। 

इरफ़ान कैसे जनता के, यहां तक महिलाओं के चहेते ‘हीरो’ बन गए? शायद इसलिये कि इरफ़ान एक साधारण पृष्ठभूमि से आकर अपने संघर्ष के बल पर फिल्म उद्योग में आए। उनकी अदाकारी इतनी ‘रियल’ होती कि आप भूल जाते कि वह किसी किरदार को निभा रहे हैं। इरफ़ान का पूरा नाम था साहेबज़ादे इरफ़ान अली ख़ान। वह राजस्थान के टोंक से एक साधारण परिवार से आते थे-एक ऐसा रूढ़िवादी परिवार, जिसमें फिल्म देखने की अनुमति नहीं थी। इरफ़ान के अपने शब्दों में ‘‘जब चचा आते थे और हमें कुछ पैसे देते थे कि हम सिनेमा देख आएं, तब पूरा परिवार फिल्म देखने जाता था’’। कोई सोच भी नहीं सकता कि ऐसे परिवार का एक लड़का फिल्म जगत में 3 दशकों तक तूफान खड़ा करता रहेगा। एक साक्षात्कार में इरफान बताते हैं कि उन्हें कहानियों से बेहद प्यार था, तो घर के पिछवाड़े में किसी कमरे में वह दूसरे बच्चों के साथ तरह-तरह की एक्टिंग करते, कहानियां बुनते और रेडियो पर कहानियां सुनते। तब वह 14 साल के रहे होंगे।

इरफ़ान श्याम बेनेगल की जुनून फिल्म में राजेश विवेक की अदाकारी देखने के बाद सोचने लगे कि ऐसा जादू कैसे संभव हो सकता है? उन्हें यूसुफ़ खुराना से पता चला कि यह सब एनएसडी (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) में सिखाया जाता है। इरफ़ान ने तय किया कि एनएसडी में दाखिला लेना है। एनएसडी में इरफ़ान से एक साल सीनियर और उनके नज़दीकी दोस्तों में एक, फिल्मकार सुदर्शन जुयाल कहते हैं,‘‘इरफ़ान और हम सब छोटे शहरों-कस्बों के निम्न मध्यम/ मध्यम वर्गीय परिवारों से आते थे। एनएसडी में हम सब एक स्तर पर आ जाते-साथ खाते, घूमते, सीखते और साथ सोते भी। एनएसडी में 3 साल जीवन के अनुभव 30 साल जैसे होते हैं। इरफ़ान में एक जज़्बा था, कुछ अलग करने का। समस्या यह थी कि जब आप एनएसडी से निकलते हैं और आपके सामने ओम शिवपुरी, नसीर, ओम पुरी जैसी हस्तियों के नाम होते हैं, तब आप कई बार बड़ा कमज़ोर महसूस करते हैं, कि अब क्या कर पाएंगे और कैसे? पर इरफ़ान को मीरा नायर की फिल्म सलाम बॉम्बे (1988) में रोल मिल गया था। फिर वह लगातार काम में लगा रहा।’’

इरफ़ान, नसीर से ख़ासा प्रभावित थे। पर फिल्म में कैरियर बनाना एक संघर्ष था। उन्होंने नाटकों और धारावाहिकों में काम किया। पहला बड़ा रोल तिग्मांशू धूलिया की पहली फिल्म ‘हासिल’ में मिला। इसमें उन्होंने एक नेगेटिव किरदार निभाया, जिसके लिए फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। फिर, 2001 में एक फिल्म -द वॉरियर से इरफ़ान को एक्टिंग में एक नया बेकथ्रू मिला। ब्रिटिश फिल्म निर्माता आसिफ़ कपाडिया की इस फिल्म में इरफ़ान ने एक योद्धा लफ्काडिया का किरदार निभाया। कहा जाता है कि इससे पहले, 90 के दशक में इरफान कई टीवी सीरियलों में काम कर चुके थे, और उन्हें एक किस्म की बोरियत होने लगी थी क्योंकि फिल्मों में कोई बड़ा ब्रेकथ्रू नहीं मिल पा रहा था।

इरफ़ान को पैसों की परवाह नहीं थी पर वह कोई चुनौतीपूर्ण काम करना चाहते थे, कुछ ऐसा जिसमें वह अपने को ‘‘रीडिस्कवर’’ कर सकें। इसलिए उन्हें लग रहा था कि फिल्मी दुनिया के नियमों में वे फिट नहीं बैठते। द वॉरियर ने उन्हें चैलेंजिंग रोल दिया। फिल्म को ऐलेक्ज़ेन्डर कोर्डा अवार्ड फॉर बेस्ट ब्रिटिश फिल्म से नवाज़ा गया था और एकेडमी अवार्ड्स के लिए भी उसे चुना गया था, पर भाषा के कारण उसे अवार्ड नहीं मिला। 2003 में मक़बूल फिल्म में एक बार फिर इरफा़न चर्चा में आए। इसकी कहानी मुम्बई के एक अन्डरवर्ल्ड डॉन, जहांगीर की प्रेमिका निम्मी के साथ उसके सरदार, मकबूल (इरफ़ान) के प्रेम की कहानी है।

जहांगीर मक़बूल के हाथों मारा जाता है, पर इस हत्या का ‘भूत’ उसे नहीं छोड़ता। फिल्म शेक्सपियर के ‘मैकबेथ’ पर आधारित थी। इस फिल्म में इरफ़ान से ज्यादा उसकी आंखें और तनी हुई नसें बोलती हैं। 2007 में लाइफ इन ए मेट्रो में इरफान का सपोर्टिंग रोल भी काफी सराहा गया। पर इसके बाद तिग्मांशु धूलिया ने पान सिंह तोमर की सच्ची कहानी पर इसी नाम की फिल्म बनाकर इरफ़ान के एक्टिंग टैलेंट को एक बहुत ऊंची उड़ान दी। पान सिंह तोमर असली जीवन में एक फ़ौजी था और अच्छा एथलीट भी। ज़मीन को लेकर एक पारिवारिक झगड़े ने उसे बागी, यानी डाकू बनाया दिया। तिग्मांशु कहते हैं कि इस फिल्म को बनाना उनके लिए सबसे ज्यादा चैलेंजिंग रहा, क्योंकि फिल्म बनाने से पहले वे बहुत सारे लोगों से मिले- पान सिंह के परिवार से, मिल्खा सिंह सहित कई खिलाड़ियों से, चंबल के डाकुओं और पुलिस महकमे के लोगों से भी; फिर काफी रिसर्च भी करनी पड़ी।

बीहड़ों में गर्मी और धूल में शूटिंग करना आसान नहीं था। पर इरफ़ान की अंतिम यात्रा में उन्हें कन्धा देकर लौटे तिग्मांशु कहते हैं,‘‘हम साथ जीते थे, लग रहा है कि मेरा भाई चला गया। इरफ़ान की खूबी थी कि वह किसी किरदार को सिर्फ निभाता नहीं, कैरेक्टर को क्रियेट करता था। वह स्क्रिप्ट से ऊपर उठ जाता, उसमें जान फूंक देता था।’’  पान सिंह तोमर (2012) में इरफ़ान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड से भी नवाज़ा गया।

कई और फिल्में हैं, जिनमें इरफ़ान ने यादगार परफॉर्मेंस दिये-एक डॉक्टर की मौत (1990),द लंचबॉक्स (2013), हैदर (2014), गुण्डे (2014), पीकू (2015), तलवार (2015), मदारी (2016) और करीब करीब सिंगल (2017). 2017 में इरफ़ान ने एक ऐसी फिल्म में काम किया जिसने उन्हें एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया। यह फिल्म भारत और चीन में बहुत लोकप्रिय हुई और इसमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए उन्हें आईफा व फिल्मफेयर अवार्ड मिले। यह थी हिंदी मीडियम। इरफ़ान को हॉलीवुड ने भी हाथों-हाथ लिया। भारत के नाम को विदेश में चार चांद लगाने वाले इरफ़ान ने कई हॉलीवुड फिल्मों में काम किया, जिनमें चर्चित हैं- द नेमसेक (2016), स्लमडॉग मिलियनेयर (2008), द अमेजिंग स्पाइडरमैन (2012), लाइफ ऑफ पाई (2012), जुरासिक वर्ल्ड (2015), इनफर्नो (2016) और पज़्ल (2018)। कुछ हॉलीवुड फिल्मों के ऑफर उन्होंने छोड़े, क्योंकि उनके दूसरी फिल्मों के लिए कमिटमेंट्स थे या उन्हें रोल नहीं जमा।

इरफ़ान ने कई टीवी धरावाहिकों में काम किया था, जिनमें प्रमुख थे- भारत एक खोज, चाणक्य, चन्द्रकान्ता, बनेगी अपनी बात, कहकशां, स्पर्श और डर। लाल घास पर नीले घोड़े टेली-प्ले में उन्होंने लेनिन का किरदार निभाया। इरफ़ान कबूल करते थे कि उन्होंने कई ऐसे किरदार भी निभाए जो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थे, पर जीविका के लिए करने पड़े।

2018 मार्च में इरफ़ान को एक बड़ा झटका लगा, जब उन्हें बताया गया कि उन्हें एक रेयर बीमारी है-न्यूरोइन्डोक्राइन ट्यूमर। उनका कहना था, ‘‘ऐसा लगा कि मैं तेज़ रफ्तार वाली ट्रेन में सफ़र कर रहा था, मेरे सपने थे, योजनाएं, अकांक्षाएं, लक्ष्य थे, कि अचानक किसी ने पीठ ठोंकी, मैंने देखा टीसी है, उसने कहा आपका स्टेशन आने वाला है, उतर जाइये। नहीं, नहीं आया! पर ऐसा ही है’’। यह कैंसर था, जिसके इलाज के लिए इरफ़ान लन्दन गए। 2019 में वे भारत आए और उनके सेहत में काफी सुधार आया था। उन्होंने हिंदी मीडियम के सीक्वेल, अंग्रेजी मीडियम में काम किया और 14 मार्च को फिल्म रिलीज़ भी हुई, पर लॉकडाउन के चलते आगे उसके शो नहीं हो सके। 

इरफ़ान के मित्र सुदर्शन बताते हैं कि इरफ़ान की पत्नी सुतपा सिकदर, जो एक नामचीन स्क्रिप्ट राइटर हैं, की इरफ़ान की जीवन-यात्रा में बहुत बड़ी भूमिका रही है। वह हर मामले में इरफ़ान का साथ देतीं, उनके प्रोग्राम मैनेजमेंट में मदद करतीं और कठिन समय में कभी भी परेशान नहीं होतीं। इरफ़ान के अंतिम संघर्ष में भी वह धैर्य के साथ उनके साथ हर पल बनी रहीं।’’ 

इरफ़ान के बैचमेट और मंच आर्ट ऐण्ड थियेटर ग्रुप, नैनीताल के संचालक इद्रीस मलिक कहते हैं, ‘‘हम सब एनएसडी में ढेर सारे सपने लेकर आए थे। पर उन सपनों को ज़िन्दा रखना कठिन होता है। इरफ़ान ने उन सपनों को बचाए रखा था। हम विचार कर रहे थे कि मुम्बई में एक बड़ा थियेटर ग्रुप बनाएंगे, क्योंकि थियेटर को तवज्जो नहीं दिया जा रहा। इरफ़ान का जाना बहुत खल गया।’’ 

निर्देशक अविनाश दास  ने बताया कि ‘‘इरफ़ान अपने विचारों में बहुत स्पष्ट थे, हमारे प्रिय कॉमरेड थे। वह कवि पाश पर फिल्म बनाना चाहते थे; और भी ढेर सारे प्रॉजेक्ट्स पर उनका दिमाग चलता रहता। इरफ़ान के निजी जीवन के बारे में उन्होंने बताया कि जब उनकी भांजी को उनके ड्राइवर से प्रेम हुआ तो इरफ़ान ने ही उनकी शादी करवाई और नासिक में अपना फार्महाउस भी दे दिया। वह सबका खयाल रखते और खासकर स्ट्रग्लिंग लोगों की मदद करने में हमेशा तत्पर रहते।’’ इरफ़ान धर्म को निहायत निजी मामला मानते थे, तो उन्होंने खान टाइट्ल हटा दिया था। सच, इरफ़ान केवल एक अव्वल एक्टर-प्रोड्यूसर ही नहीं, बच्चों जैसा कौतूहल लिए एक बेहद ज़िन्दादिल, ईमानदार और संज़ीदा इंसान थे। तुमने ‘‘सरेंडर’’ नहीं किया, इरफ़ान, तुमने करोड़ों दिलों को जीता है! तुम्हें हमारा सलाम!

(कुमुदिनी पति एक महिला एक्टविस्ट और समाजसेवी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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