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क्या भारतीय पुलिस जटिल अपराधों और क़ानून   व्यवस्था की चुनौतियों के लिए तैयार है?

इन वर्षों में, पुलिसिंग का क्षेत्र अपराध के पैटर्न में आए बदलाव के कारण विस्तारित हुआ है और क़ानून और व्यवस्था के सामने नई चुनौतियां पेश आई हैं। नेबिल निज़र इस लेख के माध्यम से सवाल उठा रहे हैं कि क्या हम मौजूदा पुलिस व्यवस्था के सामने पेश चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं।
पुलिस

2018 में आत्महत्या करने पर मजबूर करने के मामले में मुंबई पुलिस द्वारा रिपब्लिक टीवी के एंकर और मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी ने नागरिक समाज के भीतर गहरे विभाजन को सामने ला दिया है। न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने कहा कि वह गोस्वामी की 'पत्रकारिता' से सहमत नहीं हैं, लेकिन अधिकारियों द्वारा की गई 'प्रतिशोधी कार्रवाई' की निंदा करती है। मोदी सरकार के मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने गिरफ्तारी को 'प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला' करार दिया है। हालांकि, कांग्रेस ने भाजपा के ‘चयनात्मक विरोध’ को   लताड़ दिया है। 

गोस्वामी की गिरफ्तारी ने तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय करुणानिधि की गिरफ्तारी की याद ताजा कर दी है, जब 30 जून 2001 को 01:30 बजे उनके घर पर पुलिस ने छापा मारा था। उनकी गिरफ्तारी के तरीके की निंदा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी की थी। किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय न्यूनतम जरूरी बल के प्रयोग की कवायद के बावजूद, पूर्व मुख्यमंत्री को चेन्नई में उनके बिस्तर से उठा कर खींचा गया और गिरफ्तार कर लिया गया था।

नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन का अनुच्छेद 9 कहता है कि, “प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता और सुरक्षा और सुरक्षा का अधिकार है। किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से गिरफ्तार या हिरासत में नहीं लिया जाएगा। किसी को उसकी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है, सिवाय ऐसे आधारों पर जो कि दंड प्रक्रिया संहिता द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार है।”

हालांकि दंड प्रक्रिया संहिता, गिरफ्तारी को परिभाषित नहीं करती है, लेकिन यह गिरफ्तारी के लिए दिशानिर्देशों को निर्धारित जरूर करती है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46 (1) में यह प्रावधान है कि गिरफ्तारी करने वाला कोई पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति गिरफ्तारी होने वाले व्यक्ति के शरीर को तब तक नहीं छूएगा जब तक कि शब्द या कार्रवाई के माध्यम से हिरासत नहीं हो जाती है। धारा 46 (2) हालांकि पुलिस को बल का उपयोग करने के मामले में जरूरी साधनों का इस्तेमाल करने की इजाजत देती है यदि व्यक्ति गिरफ्तारी से बचने का प्रयास करता है।

भारत में, यह एक खुला रहस्य है कि पुलिस अधिकारियों को सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के नेता नियुक्त करते हैं और ये अधिकारी उनके राजनीतिक संरक्षण का बाकायदा फायदा उठाते हैं।

अर्नेश सिंह बनाम बिहार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा: 'हमारा मानना है कि कोई भी गिरफ्तारी केवल इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि अपराध गैर-जमानती और गंभी किस्म का  है और इसलिए, पुलिस अधिकारियों के लिए ऐसा करना क़ानूनन उचित है। गिरफ्तार करने की शक्ति होना और इसका इस्तेमाल दो अलग बात है।'

राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने अपनी तीसरी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि, बड़े पैमाने पर, लगभग 60 प्रतिशत गिरफ्तारियाँ या तो अनावश्यक या अनुचित होती हैं और ऐसी अनुचित पुलिस कार्रवाई की वजह से जेलों का खर्च 43.2 प्रतिशत अधिक होता है। 

महाराष्ट्र सरकार द्वारा गोस्वामी की गिरफ्तारी जिसके खिलाफ गोस्वामी आलोचनात्मक रहते हैं, को कुछ तबकों ने राजनीतिक प्रतिशोध की कार्यवाही माना है, इसलिए करुणानिधि की घनघोर प्रतिद्वंद्वी जयललिता द्वारा दो दशक पहले की गई गिरफ़्तारी भी प्रतिशोध की कार्यवाही थी।

इस वर्ष फरवरी में सांप्रदायिक हिंसा से निपटने में पुलिस बल को अप्रभावी होते देख दिल्ली पुलिस, जो राष्ट्रीय राजधानी में क़ानून व्यवस्था बनाने वाली संस्था है वह आम निवासियों और राजनीतिक नेताओं की भारी आलोचना का शिकार हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ ने तो दिल्ली पुलिस को ''अनप्रोफेशनल'' करार दे दिया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने अमेरिकी और ब्रिटिश पुलिस को प्रोफेशनलिज़्म का सर्वोत्तम उदाहरणों बताते हुए राज्य सरकारों को ऐतिहासिक प्रकाश सिंह दिशानिर्देशों को न लागू करने के लिए फटकार लगाई। 

भारत में पुलिसिंग के इतिहास को समझने के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि चीजें कहां गलत हुईं हैं। औपनिवेशिक ब्रिटिश देश के कम अधिकार वाले नागरिकों पर अपना शिकंजा कसने के लिए वे ऐसी प्रणाली चाहते थे और इसके लिए उन्होने रॉयल आयरिश कांस्टेबुलरी मॉडल को चुना, जिसे पहले सिंध प्रांत में लाया गया जो अब पाकिस्तान में है। बाद में इसे भारत के अन्य हिस्सों में लागू किया गया था।

1857 में भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध के बाद, जिसे अंग्रेजों ने क्रूरता से कुचल दिया था, 1861 में पुलिस अधिनियम लागू किया गया था।

औपनिवेशिक काल का पुलिस अधिनियम आज भी भारत के लगभग सभी राज्यों में लागू है। संवैधानिक पुलिसिंग की समझ के आधार पर जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा की तत्काल जरूरत है।

2006 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय दिया था, जिसे प्रकाश सिंह केस के नाम से जाना जाता है, जिसमें सरकारों को तत्काल पुलिस सुधार शुरू करने के निर्देश दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश राज्य पुलिस के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने के लिए एक राज्य सुरक्षा आयोग की स्थापना के निर्देश के साथ शुरू होता है और यह भी सुनिश्चित करने की बात कि राज्य सरकार पुलिस पर अनुचित प्रभाव या दबाव नहीं डाल सकती है।

सर रॉबर्ट पील, पूर्व ब्रिटिश गृह सचिव, जिन्हें अक्सर आधुनिक पुलिस व्यवस्था का पिता कहा जाता है, अपनी इस पालतू पहल को वैधता देने के लिए- लंदन मेट्रोपॉलिटन पुलिस बनाई। उस पुलिस के लिए अपनाए गए सिद्धांतों में से एक यह था कि पुलिस को सरकारी नियंत्रण में रहना होगा। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकाश सिंह के केस में कार्यकाल की न्यूनतम सुरक्षा पर ज़ोर दिया, और उसके तहत केरल के पुलिस महानिदेशक डॉ॰ टी.पी. सेनकुमार बनाम भारतीय यूनियन में फिर से बहाल कर दिया था।

वर्षों से चली आ रही इस व्यवस्था ने राजनीतिक-पुलिस सांठगांठ को जन्म दिया है जहां यह एक आम बात बन गई है कि जब भी राजनीतिक नेतृत्व में कोई बदलाव होता है तो पुलिस का नेतृत्व भी बदल दिया जाता है।

प्रकाश सिंह केस में दिए फैंसले में कहा गया कि जिला पुलिस प्रमुखों और स्टेशन हाउस अफसरों के कार्यकाल की भी न्यूनतम सुरक्षा होगी। जजमेंट में अन्य दिए निर्देश के मुताबिक पुलिस उप-अधीक्षक के रैंक के नीचे और नीचे के अधिकारियों के स्थानान्तरण, पोस्टिंग, और पदोन्नति को तय करने के लिए एक पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना की जानी थी। लेकिन, इसे लागू नहीं किया गया।

भारत में, अब यह एक खुला रहस्य है कि अत्याधुनिक स्तरों पर पुलिस अधिकारियों को सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के नेताओं द्वारा नियुक्त किया जाता है और ये अधिकारी हमेशा राजनीतिक संरक्षण का फायदा उठाते हैं।

इतिहास को उन अधिकारियों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए जो अच्छे विश्वास में दोषियों के रूप में कर्तव्यों का निर्वहन करते रहे हैं।

न्यायिक सुधारों के बारे में मलिमठ समिति कहती है, कि ‘राज्य उपयुक्त निवारक क़ानून और दंडात्मक उपाय के माध्यम से नागरिकों के जीवन, स्वतंत्रता, और संपत्ति की रक्षा के दायित्व का निर्वहन करता है, जो निजी प्रतिशोध को रोकने के उद्देश्य को पूरा करता है और जो शांति कायम रखने के लिए जरूरी है’।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि आपराधिक न्याय प्रणाली विफल न हो और बाद में यह निजी प्रतिशोध की तरफ न जाए, हमें इसकी खामियों को ठीक करना होगा। पुलिस के काम का मुख्य दोष जांच और क़ानून और व्यवस्था को गढ़मढ़ करना है।

भारत में एक पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी से सीमित कार्यबल के साथ, अपराध की जांच, अपराध की रोकथाम, अपराध रोकने के लिए गश्त, यातायात नियंत्रण, खुफिया जानकारी का संग्रह करना, दंगा रोकना, बंदोबस्त ड्यूटी, वीआईपी सुरक्षा, पासपोर्ट सत्यापन, आदि को निभाने की अपेक्षा की जाती है जिसमें अदालत, राजस्व और नागरिक आपूर्ति सहित अन्य विभाग भी शामिल होते हैं। थाना स्तर पर पुलिसकर्मी से बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? अक्सर यह देखा जाता है कि बिगड़ती क़ानून और व्यवस्था की स्थिति के दौरान या जब कोई नया अपराध होता है, तो चल रही जांच को रोक दिया जाता है। इस सबका अंतिम परिणाम दोनों कर्तव्यों के प्रति समय और काम में समर्पण की कमी होता है। अंत में, आम आदमी उम्मीद खोना शुरू कर देता है। 

सुप्रीम कोर्ट कहता है, पुलिस जांच को क़ानून और व्यवस्था के मुद्दे से अलग किया जाना चाहिए ताकि पुलिस की तरफ से त्वरित जांच, बेहतर विशेषज्ञता और बेहतर तालमेल सुनिश्चित किया जा सके। हालाँकि, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि दोनों के बीच पूर्ण समन्वय हो।'

केरल में, कुल 471 पुलिस स्टेशनों में से 464 में स्टेशन हाउस अफसर पुलिस सब इंस्पेक्टरों के रैंक के थे। विभाग सर्किल इंस्पेक्टरों के वाहनों, गैजेट्स और अन्य बुनियादी ढांचे पर करोड़ों रुपये खर्च करता है, जो पुलिस सर्कल कार्यालयों में बैठते हैं और अपने 'सर्कल' के तहत कई पुलिस स्टेशनों की निगरानी करते हैं। 

2017 में, केरल सरकार ने सर्किल प्रणाली से छुटकारा पा लिया था। इसने पुलिस निरीक्षकों को सर्किल इंस्पेक्टरों के रूप में को फिर से नामित किया और सभी 471 पुलिस स्टेशनों में कमान एक पुलिस इंस्पेक्टर को सौंपी गई। आज, पुलिस निरीक्षकों के कार्यालयों के लिए निर्मित अलग-अलग भौतिक बुनियादी ढाँचे जीर्ण-शीर्ण पड़े हैं।

केरल में, 2017 में लाए गए नए सुधारों के अनुसार, प्रत्येक पुलिस स्टेशन का नेतृत्व एक इंस्पेक्टर रैंकिंग स्टेशन हाउस अधिकारी द्वारा किया जाएगा और दो अलग-अलग प्रभागों द्वारा उसकी सहायता की जाएगी, एक क़ानून और व्यवस्था की देखरेख करेगा और दूसरा अपराध जांच, प्रत्येक की देखरेख एक सहायक इंस्पेक्टर करेगा। 

पुलिस महानिदेशक द्वारा दिनांक 30.12.2017 को जारी किए गए आदेश संख्याS1/ 122785/2016/ PHQ का पैरा 21 कहता है… सामान्य परिस्थितियों में अपराध विभाग के सदस्य किसी अन्य पुलिस स्टेशन के ड्यूटी में नहीं होंगे। हालांकि, रोटेशन ड्यूटी के तहत जैसे संतरी ड्यूटी, जीडी प्रभार और रात की गश्त उन्हें दी जा सकती है।'

पैरा 22 कहता है कि इंस्पेक्टर एसएचओ के अधिकार में निहित है कि वह असाधारण परिस्थितियों में सक्षम अधीनस्थ अधिकारियों में से किसी को हिस्से/पूरी जांच सौंपें’। पुलिस थाने के अंदर क़ानून व्यवस्था और अपराध की जांच में सख्त विभाजन न होने से और इंस्पेक्टर एसएचओ के पक्ष में जारी सामान्य आदेश अक्सर क़ानून व्यवस्था की ड्यूटी के मामले में  क्राइम सब इंस्पेक्टर का इस्तेमाल किया जाता है।

पंजाब पुलिस ने एक अलग ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (BOI) बनाकर क़ानून और व्यवस्था की जांच को अलग करके इतिहास बनाया था, जो पुलिस थाना स्तर से राज्य मुख्यालय तक के जांच के काम का जिम्मेदार होगा।

इतिहास को उन अधिकारियों को जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए जो दोषियों के रूप में अच्छे विश्वास में कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं।

इतिहास को उन अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराना चाहिए जो अच्छे विश्वास में दोषियों के रूप में कर्तव्यों का निर्वहन करते रहे हैं। हमारी व्यवस्था ने उन्हें विफल कर दिया।

पुलिसिंग के क्षेत्र का विस्तार हुआ है। अपराध के पैटर्न बदल रहे हैं। हर दिन नई चुनौतियां सामने आ रही हैं। क्या हम मौजूदा पुलिस व्यवस्था के माध्यम से इन नई चुनौतियों का सामना कर सकते हैं?

टेलपीस: रॉयल आयरिश कांस्टेबुलरी जिससे भारत ने अपनी पुलिसिंग प्रणाली की सीख ली थी, उसे 1922 में आयरिश आज़ाद स्टेट बनने बाद ख़त्म कर दिया गया था।

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(नेबिल निज़र केरल में वकालत करते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल रिपोर्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Is the Indian Police Equipped to Deal with Complicated Crimes and Law and Order Challenges?

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