क्या मोदी भारत के सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगता है अपने कार्यकाल दो सत्र पूरा करने की जुगत में हैं। उन्होंने अपनी सरकार की कई नीतियों की जो समयरेखा तय की है, उसे देख कर लगता है कि वे तीसरे कार्यकाल में भी काम करने की इच्छा जता सकते हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राम माधव ने भी बार-बार इस बात को दोहराया है कि भारतीय जनता पार्टी यहां "लंबे समय तक" रहने वाली है। यह आम हठ इस बात को लेकर दिखाई जा रही है कि मोदी सभी नेताओं में सबसे निर्णायक और दृढ़ हैं, फिर भी उनके सभी दावों के बावजूद काफी संभावना इस बात की है कि मोदी इतिहास में सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में जाने जाएंगे।
यह लगभग एक स्वयंसिद्ध सत्य है कि एक बार जब बड़े प्रचार वाला राजनीतिक अभियान और प्रचार का दायरा ढीला पड़ेगा तो आम लोग केवल अतीत के प्रधानमंत्रियों को याद करते हैं। समाज के कुलीन लोग सार्वजनिक आंकड़ों की यादों से खुद को बोझ तले नहीं दबाते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया है, वह केवल इसका एक प्रतिबिंब है कि वे क्या चाहते हैं। यह केवल ग्रामीण और शहरी गरीब जनता हैं जो राजनीतिक नेताओं से मिलने वाले लाभ की आभारी रहती हैं। वंचित तबके के लोगों को इस बात की बेहतर समझ है कि भारत की प्रणाली कैसे काम करती है,: वे जानते हैं कि उन्हें मिलने वाले सभी लाभ कड़े विरोध और संघर्षों का नतीजा हैं।
इस संदर्भ में भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनकी विरासतों पर विचार करने की जरूरत है: देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य की नींव रखने के लिए याद किया जाता है। फिर भी, नेहरू का लोकप्रिय स्मरण आज इतना ज्वलंत नहीं है जितना कि उनकी बेटी इंदिरा गांधी का, जो एक पूर्व प्रधानमंत्री भी थी। उन्हे अभी भी उनकी मजबूत कल्याणकारी नीतियों के लिए याद किया जाता है। क्षेत्र के सर्वेक्षणों के दौरान क्षेत्र के दौरान यह तथ्य अक्सर मुझे आश्चर्यचकित करते है कि जब देश के वृद्ध नागरिक राहुल गांधी को "इंदिरा के पोते" के रूप में संदर्भित करते हैं। कई बार, लोग जीवित तजुर्बों का जिक्र करते हैं कि कैसे उनकी कल्याणकारी नीतियां जिसमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली या सभी के लिए आवास जैसी योजनाओं ने उन्हें लाभान्वित किया। मुख्य रूप से मध्यम वर्ग तबका इंदिरा को बांग्लादेश के निर्माण में उनकी भूमिका के लिए याद करता है, 1975 में आपातकाल लगाने, और पंजाब संकट से निपटने में उनकी विफलता को भुलाकर जो उनकी हत्या का कारण बना।
इसके विपरीत, जनता पार्टी के प्रयोग के बारे में गरीबों के लिए ज्यादा याद करने के लिए कुछ नहीं है, हालांकि इस समय में देवेगौड़ा और चंद्रशेखर जैसे प्रधानमंत्री संक्षिप्त समय के लिए बने। जनता पार्टी की विरासत को साझा करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री केवल वीपी सिंह हैं जिन्हे मंडल आयोग की लंबे समय से लंबित सिफारिशों को लागू करने के लिए याद किया जाता है, जो अंततः भारतीय राजनीति और समाज में एक बदलाव का कारण बना। उन बदलावों पर अभी भी बहस हो रही है-जिसमें यह भी शामिल है कि क्या एक राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र के रूप में एक नया बहुमत तैयार करना बढ़ते बहुमतवाद की राजनीति से जुड़ा हुआ है, जिसने पिछड़े वर्गों के बीच एक बड़े हिस्से को हाल में दक्षिणपंथ की तरफ धकेला है। इसके बावजूद, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई करने को एक महत्वपूर्ण पुनर्वितरण के उपाय के रूप में देखा जाता है, भले ही इसका परिणाम "धर्मनिरपेक्ष में उतार-चढ़ाव" क्यों न हो।
इसके बाद के प्रधानमंत्री, राजीव गांधी, बमुश्किल लोकप्रिय चेतना का हिस्सा बने हैं। उन्होंने आधुनिकीकरण, विशेष रूप से नई तकनीक की शुरुआत की, लेकिन इससे न तो गरीबों को लाभ हुआ और कम से कम तुरंत और सीधे लाभ तो नहीं हुआ। राजीव की जनता के साथ जुड़ने की अक्षमता और लोकप्रिय मुहावरों पर उनकी कमजोर पकड़ इसका महत्वपूर्ण कारक हैं। इसी तरह की कहानी नरसिम्हा राव की है, जिन्होंने प्रधानमंत्री के अपने कार्यकाल के दौरान आर्थिक सुधारों को लॉन्च किया, लेकिन कोई बड़ा सामाजिक परिवर्तन नहीं किया और न ही पुनर्वितरण नीति का कोई बेहतरीन प्रस्ताव किया।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नेता तब तक आम लोगों की लोकप्रिय याद का हिस्सा नहीं बनते तब तक कि वे आम भारतीयों की स्थिति को सुधारने का प्रयास नहीं करते। अटल बिहारी वाजपेयी को लें, वे आज बमुश्किल आम जनता की लोकप्रिय यादों का हिस्सा हैं। लोग उनकी पाकिस्तान की बस यात्रा को तो याद करते हैं और उनके "कश्मीरियत, जम्हूरियत, इन्सानियत" के नारे के साथ क्षेत्र में शांति लाने के लिए कुछ वास्तविक प्रयास को मानते हैं। इसके अलावा, वे राजनीतिक और नैतिक दोनों तौर पर एक असंगत नेता पाए गए थे।
2002 में वाजपेयी ने गुजरात हिंसा पर कोई स्टैंड नहीं लिया था और अगर ऐसा कुछ किया, तो उन्होंने उसी साल अप्रैल में गोवा में अपने सांप्रदायिक भाषण में उसे पलट दिया था। दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वस्त होने के समय वे अयोध्या नहीं गए थे, लेकिन उन्होंने एक दिन पहले लखनऊ से बेढब भाषण दिया था, जबकि उनके दूसरे कमांडर लालकृष्ण आडवाणी ने उसी जगह पर आक्रामक भीड़ को संबोधित किया जहां उस समय मस्जिद खड़ी थी। इस तरह की रणनीतियाँ, पार्टी और उसके शीर्ष नेताओं को सत्ता हासिल करने और उससे चिपके रहने में मदद कर सकती हैं, लेकिन वह कोई स्थायी विरासत बनाने में मदद नहीं करती हैं। यहां तक कि जो लोग वाजपेयी के मामले में इन सटीक विवरणों को याद नहीं करते हैं, वे अभी भी उन्हें याद करते हैं, और कहते हैं कि वे "गलत पार्टी में सही आदमी" थे।
इस बात पर शायद ही कोई ज़ोर देने की जरूरत है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का लोकप्रिय इतिहास और याद का स्तर बहुत नीचे है। साधारण लोग बमुश्किल कभी उनके बारे में बात करते हैं, इस तथ्य के बावजूद कि नेहरू के बाद, उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में दो कार्यकाल पूरे किए। कारण वही है-मनमोहन ने आर्थिक सुधार की शुरुआत की, लेकिन न तो सामाजिक बदलाव में योगदान दिया और न ही पुनर्वितरण के उपायों में कोई ठोस बदलाव लाए। जो भी उन्होने किया उसने विकास के नाम पर सामाजिक नीतिगत उपायों को सक्रिय रूप से अवरुद्ध कर दिया था।
इस संदर्भ में, यह समझना महत्वपूर्ण है कि क्या मोदी को याद किया जाएगा। उन्होंने आम चर्चा या बहस के बहुत से नियमों को बदलने का प्रयास किया है- भारत को कल्याण की नीतियों से दूर ले जाकर कमजोर जाति समूहों को सशक्त बनाने के नाम पर उन्हें "एकीकृत हिंदू" के रूप में फिर से संगठित करने पर ज़ोर दिया। जब प्रोपेगैंडा मशीन धीमी हो जाएगी तो क्या यह एक स्थायी विरासत बन पाएगी? यह बात सब पहले से ही जानते है कि अनुच्छेद 370 और अनुछेद 35-ए को खारिज करने और अयोध्या में मंदिर बनाने के शोर में अब कोई भावनात्मक अपील नहीं है, जो उनके पास कुछ समय पहले थी। लोगों का एक वर्ग इन कदमों से क्षण-भर के लिए उत्साहित हो सकता है-लेकिन हिन भावना से लिए गए निर्णय असंतोष के अन्य रूपों से ध्यान हटाने में मदद कर सकते हैं- लेकिन इसकी संभावना नहीं लगती है कि वे जनता की लोकप्रिय याद में घर कर पाएंगे।
इसके बजाय, किसानों के विरोध प्रदर्शनों और आंदोलन ने कॉर्पोरेट के साथ मोदी सरकार की मजबूरियों, उसके समझौतों और उनके साथ उसकी सहमति का भंडा-फोड़ किया है। वैश्विक राजनेता के रूप में नेहरू और मसीहा के रूप में इंदिरा की जगह लेने में प्रधानमंत्री के शुरुआती प्रयास गति नहीं पकड़ पाए हैं। इस बात की संभावना अधिक है कि मोदी को देश के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा, क्योंकि वे कमजोर दिखते हैं इसलिए भी कि वे शक्तिशाली कॉर्पोरेट ताकतों और यहां तक कि विरोधियों के खिलाफ भी समझौता करते हैं, जैसा कि वे चीन के साथ तुलना करते वक़्त करते हैं। जब उन्हें एक मजबूत व्यक्ति के रूप में पेश किया गया था, तो वह कमजोर तबकों, विशेष रूप से वंचित समुदायों, मुसलमानों और दलितों के खिलाफ था।
यह इतिहास का एक पेचीदा मोड है कि वह सामाजिक कुलीन तबका जो उनकी गरीब-विरोधी अर्थव्यवस्था और कमजोर तबके विरोधी राजनीति को बड़ी चाहत भरी नज़रों से देखता हैं, वे भी ऐसी विरासत का बोझ उठाना नहीं चाहेंगे। मोदी की खाली और निष्ठुर बयानबाजी को इतिहास की अनिश्चितताओं से धोया जाएगा, हालांकि हिंदुत्व से प्रभावित एक बड़ा तबका अभी भी कश्मीर में उनके “साहसिक” फैसले और अयोध्या में मंदिर के उद्घाटन के लिए उनकी प्रशंसा करना और उन्हें याद रखना चाह सकता है। हमें सामूहिक रूप से इस बात में रुचि लेनी चाहिए कि लोकप्रिय यादों और चेतना में इतिहास को कैसे दर्ज़ किया जाता है: दयालु और गरीबों के हितैषी नेताओं को लंबे समय तक याद किया जाता है, न कि उन लोगों को जो मजबूत और धनाड़य लोगों के साथ खड़े होते हैं।
लेकिन सामूहिक याद को यहां की राजनीति की अलग-अलग स्थितियों में अलग काम क्यों करना चाहिए? क्यों दिन-प्रतिदिन की राजनीति खुद को अधिक करुणामय बनाने पर जोर नहीं देती है, भले ही हम एक याद के रूप में करुणा के लिए तरसते हैं, यह ऐसा है जो हमें इस बारे में बताता है कि मनुष्य कल्पना के विपरीत कैसे वास्तविकता से नाता जोड़ता है।
लेखक, सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़, जेएनयू में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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