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क्या यही समय है असली कश्मीर फाइल को सबके सामने लाने का?

कश्मीर के संदर्भ से जुडी हुई कई बारीकियों को समझना पिछले तीस वर्षों की उथल-पुथल को समझने का सही तरीका है।
kashmir jammu
प्रतीकात्मक चित्र 

21 मई 1990 को उनकी हत्या से कुछ दिनों पहले श्रीनगर के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक मौलवियों में से एक, मीरवाइज मौलवी मोहम्मद फारूक ने एक सम्मानीय विद्वान-कार्यकर्त्ता को फोन के जरिये संदेश भिजवाया था। फारूक चाहते थे कि विद्वान अपने रसूख का इस्तेमाल प्रशासन से उन्हें गिरफ्तार करने में लगायें, क्योंकि उन्हें अपनी जान जाने का खतरा महूसस हो रहा था। फारुख की आशंका कश्मीर घाटी में व्याप्त भय के माहौल पर आधारित थी क्योंकि उग्रवादियों ने इस बीच में कई लक्षित हत्याएं कर दी थीं। वहां पर उस दौरान एक प्रशासनिक और सुरक्षा का ताना-बाना ढह चुका था।

ऐतिहासिक तौर पर कश्मीर के भीतर मीरवाइज को 20वीं सदी के दूसरे तिमाही में राजनीतिक भूमिका हासिल हो चुकी थी। ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि मीरवाइज फारुक भी आतंकवादियों के निशाने पर आ चुके थे। वे 8 दिसंबर, 1989 को तत्कालीन भारतीय गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद के अपहरण सहित आतंकवादियों के कुछ कृत्यों के आलोचक थे और कथित तौर पर इस कृत्य को उन्होंने गैर-इस्लामिक करार दिया था। जिन विद्वान-कार्यकर्ता से फारुक ने संपर्क साधा था, उन्हें जम्मू-कश्मीर के बारे में उनके ज्ञान के लिए सभी राजनीतिक दलों के बीच में व्यापक पैमाने पर सम्मान प्राप्त था। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सहित सत्ता संरचना में शामिल कई लोगों से संपर्क साधने की कोशिश की और उन्हें मीरवाइज फारुक की जान को खतरे के लिए आगाह किया था।

विद्वान-कार्यकर्ता से कहा गया कि फारुक को अपनी सुरक्षा की मांग करनी चाहिए, जो उन्हें तत्काल प्रदान कर दी जायेगी। उनकी ओर से अधिकारियों को मीरवाइज की बाध्यताओं की स्थिति का स्मरण कराया गया। खुद की सुरक्षा की मांग आम कश्मीरियों के बीच फारुक की राजनीतिक स्थिति समझौता करने वाली साबित हो सकती थी। इसलिए, उन्हें गिरफ्तार करना ही सबसे बेहतर विकल्प था, क्योंकि इससे घाटी में उनकी राजनीतिक जमा-पूँजी को बरकरार रखने और उनके जीवन की रक्षा कर पाना संभव बना रहता।

इसके कुछ दिनों के भीतर ही हथियारबंद लोगों का एक समूह, नागिन झील के पास फारुक के निवास स्थान मीरवाइज मंजिल पर दस्तक देता है। वे उनसे मुलाक़ात करने के धोखे से आये थे। उनके कर्मचारियों में से एक उन्हें बैठक कक्ष में ले गया, और जैसे ही फारुक ने प्रवेश किया, गोलियों की बौछार ने उनका स्वागत किया, जिससे मौके पर ही उनकी मौत हो गई। बाद में, पुलिस जांच में खुलासा हुआ कि इस हमले को हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादियों ने अंजाम दिया था। हिजबुल मुजाहिदीन सन 1990 में सिर्फ एक महीने पहले ही अस्तित्व में आया था। 

आमतौर पर यह धारणा बनी हुई है कि अपनी मौत के कुछ दिनों पहले तक, मीरवाइज फारुक ने दिवंगत जार्ज फर्नांडिस के साथ कई अवसरों पर टेलीफोन के जरिये बातचीत की थी, जो उस दौरान राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन सरकार में कश्मीर मामलों का विभाग संभाल रहे थे। आतंकियों ने इस बातचीत को इंटरसेप्ट भी कर लिया था। उग्रवादियों की नजर में इसने फारुक की किस्मत पर मुहर लगा दी थी। उनकी हत्या 1988-90 के उथल-पुथल वाले समय के संदर्भ में हुई थी। जैसा कि विद्वान-कार्यकर्ता दिवंगत बलराज पुरी अपने बेस्टसेलर प्रत्यक्ष अनुभव के खाते से, कश्मीर: टुवर्ड्स इंसर्जेंसी में लिखते हैं, कि इस उथल-पुथल के पीछे घरेलू, अंतर्राष्ट्रीय और सुरक्षा मकसद थे।

मीरवाइज परिवार की कहानी एक व्यक्तिगत त्रासदी की कहानी है, जिसमें विपरीत ताकतों से भरे माहौल में अपने राजनीतिक अस्तित्व और व्यावहारिकता को बनाये रखने का संघर्ष छिपा है। फारुक को 1960 के दशक में अपने चाचा मीरवाइज यूसुफ शाह की मृत्यु के बाद, जो पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर मुज़फ्फ्फराबाद से पलायन कर यहाँ आ बसे थे, मीरवाइज का लबादा विरासत में मिला था। शेख अब्दुल्ला के साथ उनके चाचा की प्रतिद्वंदिता “शेर-बकरा” वाली प्रतिद्वंदिता के तौर कुख्यात थी। 1931 में अब्दुल्ला, घाटी में जामा मस्जिद के मौलवी मीरवाइज युसूफ शाह के साथ लोगों की नेतृत्वकारी भूमिका संभालने के बाद एक राजनीतिक नायक के तौर पर उभरे थे।

16 अक्टूबर 1932 को मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन हुआ था जिसमें शेख अब्दुल्ला इसके अध्यक्ष और चौधरी गुलाम अब्बास इसके महासचिव बने। अब्दुल्ला की राजनीतिक गोलबंदी ने एक मंच के तौर पर कश्मीरी इस्लाम के प्रतीक हजरतबल मस्जिद का इस्तेमाल किया। जबकि फारुक के चाचा मीरवाइज युसूफ शाह के पास जामा मस्जिद में अपना आधार था। घाटी की आबादी के बढ़ते राजनीतिकरण के परिणामस्वरूप फारुक और अब्दुला के बीच में वैचारिक मदभेद विकसित होते चले गये। 

एक संस्था के तौर पर, धार्मिक कारणों की वजह से मीरवाइज के पास श्रीनगर के कुछ हिस्सों पर प्रभाव बना हुआ था, जबकि अब्दुल्ला कश्मीर में राजनीतिक सुधारों के पक्षकार के तौर पर एक नए युग के प्रतीक बन गये थे। अब्दुला के समर्थकों को शेर के तौर पर जाना जाता था, जबकि जो मीरवाइज के समर्थक थे उन्हें बकरा कहा जाता था।

1950 से लेकर 1960 के दशक के बीच में, जब अब्दुल्ला नई दिल्ली से अलग-थलग पड़ गए थे, तो उस दौरान मीरवाइज युसूफ शाह और नई दिल्ली के बीच में एक गुपचुप जुड़ाव की शुरुआत हो चुकी थी। दोनों पक्ष एक-दूसरे के सम्मान और अपनी-अपनी सीमाओं की कद्र करने पर सहमत थे। उन्होंने तय किया कि शाह नई दिल्ली और श्रीनगर के बीच सुलह में कभी बाधक नहीं बनेंगे। और इसके अलावा, यह कि नई दिल्ली लगातार इस बारे में सचेत रहेगी कि शाह जैसे नेता तभी तक महत्वपूर्ण बने रह सकते हैं जब तक उनके पास राजनीतिक बल बना हुआ है।

मीरवाइज मौलवी मोहम्मद फारुक की हत्या के बाद, उनके छोटे बेटे उमर फारुक ने मीरवाइज का पदभार संभाला। वे आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के संस्थापकों में से एक थे, जो कि 9 मार्च 1993 को अलगाववादी दलों के एक समूह के तौर पर अपने अस्तित्व में आया था। अपने पिता की तरह उमर की राजनीति की एक सुसंगत विशेषता स्थानीय राजनीतिक तापमान के प्रति अनुकूलन की रही है। 2002 में, जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सुलह के विचार ने कश्मीर में लोकप्रिय कल्पना-शक्ति के तौर पर आकार लेना शुरू किया, तो मीरवाइज उमर ने दिवंगत अब्दुल गनी लोन के साथ मिलकर, जमीयत-ए-इस्लामी के पूर्व नेता दिवंगत सैय्यद अली शाह गिलानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। उस बिंदु पर, दिवंगत गिलानी ने नई दिल्ली के साथ सुलह और भारत-पाकिस्तान के बीच सुलह का विरोध किया था। मीरवाइज उमर और गिलानी के बीच की सार्वजनिक प्रतिद्वंदिता 21 मई 2002 को आतंकवादियों द्वारा अब्दुल गनी लोन की हत्या दिवंगत मीरवाइज फारुक के सम्मान में आयोजित एक स्मारक समारोह में की गई थी।

कश्मीर के मीरवाइज की कहानी यह दर्शाती है कि कश्मीर के संदर्भ में बारीकियों को समझने का रास्ता पिछले तीस वर्षों में कश्मीर में उथल-पुथल को समझने और ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण करने के जरिये होना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में तीन-दशक की त्रासदी को समझने का फलक, विशेषकर 1990 के दशक के बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए, जातीय, धार्मिक और भौगौलिक दृष्टि से समावेशी होनी चाहिए। इसमें उन्हें गैर-कश्मीरी भाषी लोगों, विशेषकर जो पीर-पंजाल रेंज के दक्षिण में रहते हैं, की पीड़ा हो भी शामिल करना चाहिए। इस क्षेत्र ने संघर्ष के पहले दो दशकों में करीब 40% नागरिक हत्याओं को भुगता है, जिसमें सुदूर पहाड़ियों में मामूली राहत और पुनर्वास के साथ नरसंहार और बड़े पैमाने पर विस्थापन की मार झेली है। ये लोग जम्मू-कश्मीर के सबसे दुर्गम हिस्सों में निवास करते हैं, और बाकियों की तरह अच्छी तरह से जुड़े नहीं है, उनकी तरह अच्छी तरह से शिक्षित, मुखर नहीं हैं। और इसी का नतीजा है कि सार्वजनिक स्थानों तक उनकी पहुँच नहीं है, जहाँ उन्हें देखा जा सकता था, और उनकी बात बहुत कम सुनी जाती है।

लेखक जम्मू-कश्मीर पर दो पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित एक्रॉस द एलओसी शामिल है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

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