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क्या एक बार फिर शुरू होने जा रहा है एलजी (केंद्र) बनाम दिल्ली सरकार का संघर्ष?

ख़बर है कि इस बजट सत्र में गृह मंत्रालय संसद में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को प्रसारित करने से जुड़े साल 1991 के कानून में संशोधन करने के लिए बिल पेश करने जा रही है। गवर्नमेंट ऑफ NCT एक्ट के जरिए दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल की शक्तियां और कामकाज की सीमा तय होती है।
modi and kejriwal

साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ के फ़ैसले के बाद यह तय हो गया था कि दिल्ली को कौन चलाएगा। दिल्ली सरकार की शक्तियों में केंद्र सरकार के नुमाइंदे लेफ्टिनेंट गवर्नर यानी उपराज्यपाल का कितना हस्तक्षेप होगा।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद दिल्ली के आसमान पर हर रोज मंडराने वाले केंद्र और राज्य के संघर्ष अतीत के बक्से में चले गए जैसे लगने लगे थे। लेकिन उस समय एक धड़ा यह भी था जो पूरे यकीन के साथ कह रहा था कि केंद्र की भाजपा सरकार अगर विधायकों की खरीद-फरोख्त कर किसी राज्य की सरकार गिरवा सकती है और अपनी सरकार बना सकती है। उस सरकार की नैतिकता पर इतना भरोसा नहीं किया जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुपचाप मान ले और दिल्ली सरकार पर फिर से कब्जा करने का हथकंडा ना अपनाए। यह बात आज सच साबित हो रही है।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इस बजट सत्र में गृह मंत्रालय संसद में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को प्रसारित करने से जुड़े साल 1991 के कानून में संशोधन करने के लिए बिल पेश करने जा रही है। गवर्नमेंट ऑफ NCT एक्ट के जरिए दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल की शक्तियां और कामकाज की सीमा तय होती है। इस कानून में संशोधन से जुड़े बिल को कैबिनेट से मंजूरी भी मिल गई है।

सूत्रों के मुताबिक संशोधन यह है कि दिल्ली सरकार को अब विधायिका से जुड़े फैसलों को उपराज्यपाल के पास 15 दिन पहले और प्रशासनिक फैसलों को करीब एक हफ्ते पहले मंजूरी के लिए भेजना होगा।

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि केंद्र सरकार ने दिल्ली में चुनी हुई सरकार के अधिकार को छीनने का काम किया और एलजी को देने का काम किया है। अब दिल्ली सरकार के पास कोई फैसला लेने की ताकत नहीं होगी। ये सभी फैसले गोपनीय तरीके से लिए जा रहे हैं।

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि केंद्र का फैसला संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी कहता है कि सिर्फ तीन मसलों को छोड़कर बाकी सभी निर्णय दिल्ली की राज्य सरकार निर्णय ले सकती है, लेकिन केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत के फैसले को भी दरकिनार कर दिया है। मनीष सिसोदिया ने कहा कि केंद्र सरकार के फैसले को पूरी तरह से स्टडी करने के बाद राज्य सरकार आगे का कदम उठाएगी।

सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने आख़िरकार साल 2018 में क्या फ़ैसला दिया?

* संवैधानिक बेंच ने बहुमत से यह फैसला दिया कि दिल्ली के उपराज्यपाल प्रशासक हैं, राज्यपाल नहीं हैं।

उपराज्यपाल के पास खुद फैसले लेने का अधिकार नहीं है।

* उपराज्यपाल के पास प्रशासन का अधिकार नहीं है।

* उपराज्यपाल मंत्रिमंडल के फैसले लेने की प्रक्रिया में बाधा नहीं डाल सकते

* उपराज्यपाल उन शक्तियों को नहीं हड़प सकते जो संविधान में उन्हें नहीं दी गई है।

हर मामले में उपराज्यपाल की सहमति जरूरी नहीं है।

* राज्य को बिना किसी दखल के काम करने की आजादी है।

* उपराज्यपाल को मंत्रिपरिषद के साथ सद्भावना पूर्ण तरीके से काम करना चाहिए।

* उपराज्यपाल और दिल्ली कैबिनेट के बीच राय से जुड़ी मतभेद को आपसी चर्चा के जरिए सुलझाया जाएगा।

* उपराज्यपाल मशीनी तौर पर सारे मामले उठाकर राष्ट्रपति को नहीं सौंपेंगे।

* उपराज्यपाल मशीनी तरीके से फैसले को नहीं रोक सकते हैं। सरकार के प्रतिनिधियों को सम्मान दिया जाना चाहिए।

* भूमि, पुलिस और कानून व्यवस्था पर केंद्र सरकार का अधिकार है। इन मामलों को छोड़कर उपराज्यपाल को दिल्ली सरकार की राय माननी होगी। दिल्ली सरकार को अन्य मामले में प्रशासन और कानून बनाने का अधिकार दिया जाना चाहिए।

* सुप्रीम कोर्ट की यह व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 239 A के तहत ही की गई। जो मोटे तौर पर यह कहता है कि उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही काम करेगा।

* मंत्री परिषद द्वारा लिए गए कार्यकारी फैसले पर उपराज्यपाल के पास इतनी ही शक्ति है कि असहमति की स्थिति में राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे लेकिन संवैधानिक योजना यह कभी नहीं कहती है कि मंत्री परिषद को अपने फैसले के लिए उपराज्यपाल की सहमति लेनी होगी। विधानसभा चुने हुए प्रतिनिधियों के मत का प्रतिनिधित्व करती है। उनके मत और फैसले का हर हाल में सम्मान किया जाना चाहिए। उपराज्यपाल को सभी फैसले और प्रस्ताव की सूचना देनी चाहिए ताकि संवाद बना रहे लेकिन इस संवाद का यह मतलब कतई नहीं है कि उपराज्यपाल की सहमति लेनी है।

मोटे तौर पर समझे तो यह साफ साफ कहा गया है कि दिल्ली सरकार को हर फैसला या प्रस्ताव उपराज्यपाल के पास भेजने की जरूरत नहीं है। या हर फैसले या प्रस्ताव पर उपराज्यपाल की मंजूरी की जरूरत नहीं है।

इस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने उपराज्यपाल के जरिए केंद्र सरकार द्वारा दिल्ली सरकार के कामकाज में लंबे समय से किए जाने वाले खुर पेंच को शांत कर दिया। बिल्कुल वही व्याख्या की जो संविधान में दर्ज थी। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि दिल्ली में बनी सरकार राजीव चौक पर तफरी करने आए लोगों के जरिए बनी सरकार नहीं है बल्कि बाकायदा लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हुए चुनाव के जरिए जीत कर आई हुई सरकार है, और इस सरकार की हैसियत दिल्ली चलाने की है ना कि उपराज्यपाल की। उपराज्यपाल अपनी सीमाओं में रहे यही बेहतर होगा।

इस आधार पर देखा जाए तो विधायिका से जुड़े फैसलों को उपराज्यपाल के पास 15 दिन पहले भेजने के लिए कहना, क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले का और संविधान का उल्लंघन नहीं है?

इस मुद्दे पर तकरीबन सभी कानूनी जानकारों का कहना है कि भारत एक संसदीय व्यवस्था वाला देश है। चुनकर आए हुए प्रतिनिधियों की शक्ति मनोनीत प्रतिनिधियों से अधिक होती है। हमारा संविधान भी आधारभूत तौर पर यही कहता है। इस सिद्धांत के आधार पर देखा जाए तो दिल्ली सरकार की शक्तियां दिल्ली के मामले में हमेशा उपराज्यपाल से अधिक होंगी। क्योंकि दिल्ली सरकार कायदे से जनता के बीच से चुनकर बनती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी तर्ज पर फैसला दिया है कि इलेक्टेड रिप्रेजेंटेटिव इज बॉस नॉट नॉमिनेटेड रिप्रेजेंटेटिव...

जब सुप्रीम कोर्ट का दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार को लेकर फैसला आया था तो उस समय कानूनविद फैजान मुस्तफा ने एनडीटीवी के कार्यक्रम में अपनी राय रखी थी कि “संविधान में साफ-साफ लिखे होने के बावजूद बेवजह उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच संघर्ष चलता रहा। मेरी राय में उपराज्यपाल को इस्तीफा देना चाहिए। अगर वह इस्तीफा नहीं दे रहे हैं तो दिल्ली की जनता से माफी मांगनी चाहिए। इसमें केंद्र सरकार की भी गलती रही है। क्योंकि लेफ्टिनेंट गवर्नर का पद स्वतंत्र पद नहीं होता है। वह वही करता है जो केंद्र सरकार की तरफ से दिशा निर्देश आते हैं।”

अब तक इन बिंदुओं से यह साफ तौर पर स्पष्ट होता दिख रहा है कि केंद्र सरकार फिर से दिल्ली सरकार के कामकाज में अड़ंगा लगाने जा रही है। संवैधानिक मूल्यों को दरकिनार कर हस्तक्षेप करने जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले उस फैसले के खिलाफ जा रही है जिस फैसले ने संविधान के आधारभूत सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल की सीमाएं निर्धारित की थीं। 

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