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क्या वाक़ई ‘डी-ग्लोबलाइज़ेशन’ के दौर से गुज़र रही है दुनिया?

यूक्रेन युद्घ के बाद, रूस के ख़िलाफ़ ‘पाबंदियां’ लगा दी गईं हैं और चीन के साथ पश्चिमी दुनिया का व्यापार एक हद तक घट गया है, जो पश्चिम के सोचे-समझे राजनीतिक प्रयास का नतीजा है।
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फ़ोटो साभार: GeeksforGeeks

इन दिनों अनेक अर्थशास्त्रियों ने इस बात की चर्चा करनी शुरू कर दी है कि मौजूदा वक़्त में ‘डी-ग्लोबलाइज़ेशन’ की प्रक्रिया चल रही है। इसके अलावा कुछ और अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि कुछ वर्ष पहले तक जिस तरह का नवउदारवादी निज़ाम चल रहा था, वह अब नहीं रह गया है। बेशक, हमेशा ज्यों की त्यों तो कोई भी चीज़ नहीं रहती है। ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिटस ने कहा ही था: ‘हम एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते हैं।’ इसलिए, वक़्त गुज़रने के साथ, नवउदारवादी व्यवस्था में कुछ न कुछ बदलाव होना तो अपरिहार्य ही है। लेकिन, असली नुक्ता तो यह है कि क्या, समकालीन दुनिया की आर्थिक सचाई को समझने के लिए जो विश्लेषणात्मक खाका हम अब तक प्रयोग करते आ रहे थे, वह अब अप्रचलित या एक्सपायर हो गया है और इसलिए इस खाके को ही गंभीरता से बदले जाने की ज़रूरत है।

वैश्वीकरण और साम्राज्यवादी वर्चस्व की वापसी

याद रहे कि ‘वैश्वीकरण’ का अर्थ कभी भी यह नहीं था कि दुनिया के देश स्वेच्छा से एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था कायम करने के लिए एकजुट हो रहे हैं, जो सबके लिए परस्पर लाभकारी होगी। आज दुनिया में करीब 50 देश अलग-आलग तरह की ‘‘पाबंदियों’’ की मार झेल रहे हैं। इन देशों को जोर-जबर्दस्ती से, वैश्विक बाज़ार से आवश्यक वस्तुएं हासिल करने से और कई मामलों में तो जीवन-रक्षक दवाएं तक हासिल करने से, रोका जा रहा है। और मुश्किल से एक दशक पहले तक, जब सभी मानते थे कि ‘वैश्वीकरण’ अपने जोरों पर था, पाबंदी के शिकार देशों की संख्या इतनी ज़्यादा नहीं थी।

इस तरह ‘वैश्वीकरण’ का अर्थ तो हमेशा से ही, आम तौर पर जो बताया जाता था, उससे वास्तव में काफी अलग ही रहा है। इसका अर्थ तो था, पूंजीवाद के एक ऐसे चरण का आना, जहां पूंजी, जिसमें सबसे बढ़कर वित्तीय पूंजी शामिल है, अपनी बेरोक-टोक आवाजाही के लिए अर्थव्यवस्थाओं के दरवाज़े खुलवाने के ज़रिए, वैश्वीकृत हो गई थी। उसने राष्ट्र-राज्य के ऐसे तरीकों से हस्तक्षेप करने की क्षमताओं की मुश्किलें कस दी थीं, जो वित्तीय पूंजी को मंजूर न हो। और इस वैश्वीकृत पूंजी को, अपनी वैश्विक कारगुजारियों के लिए, विकसित पूंजीवादी देशों समेत अन्य देशों का भी समर्थन हासिल था। ये विकसित पूंजीवादी देश, खासतौर पर अमेरिका ही यह तय करते थे कि कौन-कौन से देशों पर पाबंदियां लगाई जाएं और अन्य देश ऐसा करने के लिए हामी भी भर देते थे।

इस तरह ‘वैश्वीकरण’, समाजवादी देशों को छोड़कर, शेष सारी दुनिया पर दोबारा पश्चिमी साम्राज्यवादी वर्चस्व के थोपे जाने को दिखाता था। इस साम्राज्यवादी वर्चस्व के दायरे में ऐसे देश भी शामिल थे, जिनका बीसवीं सदी के मध्य में निरुपनिवेशीकरण हुआ था और जिन्होंने पूंजीवादी विकास को बढ़ावा देने के बावजूद, अलग-अलग तरह की नियंत्रणवादी रणनीतियां अपनाई थीं। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ था, गैर-समाजवादी तीसरी दुनिया में, साम्राज्यवाद से हर तरह की सापेक्ष स्वायत्तता का भी खत्म किया जाना। पूंजी की बेरोक-टोक आवाजाही के ही एक पूरक के रूप में ‘वैश्वीकरण’ का अर्थ देशों की सीमाओं के आर-पार मालों तथा सेवाओं की बेरोक-टोक आवाजाही भी रहा है। ज़ाहिर है कि इस तरह की आवाजाही के दायरे से वे देश बाहर ही रहे थे, जिन पर पाबंदियां लगाई गई थीं।

साम्राज्यवादी वर्चस्व के लिए ख़तरा और जवाबी उपाय

‘वैश्वीकरण’ के इस दौर में हुआ यह है कि ऐसी नयी आर्थिक शक्तियां उभर आई हैं, जिनसे पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतें ख़तरा महसूस करती हैं। इनमें रूस भी शामिल है, जिसे सोवियत संघ द्वारा खड़ा किया गया विशाल उत्पादन आधार विरासत में मिला है और जिसे, पश्चिमी ताकतों का ख्याल था कि उन्होंने अपने आधीन कर लिया है, लेकिन बोरिस येल्त्सिन के सत्ता छोड़ने के बाद से, उसने अपनी ताकत फिर से दिखाना शुरू कर दिया है। और एक और है चीन, जिसने ‘वैश्वीकरण’ के साथ, पश्चिमी ताकतों द्वारा थोपी गई शर्तों पर जुड़ने के बजाए, अपनी ही शर्तों पर रिश्ता बनाया है और जिसने तेज़ वृद्घि दर दर्ज कराई है। इसका रास्ता अन्य कारकों के अलावा विकसित पूंजीवादी दुनिया के बाज़ारों तक उसे हासिल पहुंच ने भी बनाया है।

अब यूक्रेन युद्घ के बाद, रूस के ख़िलाफ़ ‘पाबंदियां’ लगा दी गईं हैं और चीन के साथ पश्चिमी दुनिया का व्यापार एक हद तक घट गया है, जो इस व्यापार को घटाने के पश्चिम के सोचे-समझे राजनीतिक प्रयास का नतीजा है। चीन के सिलसिले में अमेरिका का इस तरह का प्रयास, अनेक कारकों से प्रेरित है। इनमें, घरेलू रोज़गार बचाने की चिंता (हालांकि, अमेरिका चीन से जो आयात करता है उनमें से खासा बड़ा हिस्सा वहां पर खुद अमेरिका के प्रत्यक्ष विदेशी निवेशों से किए जाने वाले उत्पादन में से ही आता है) से लेकर, चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भर न हो जाने की प्रबल इच्छा तक शामिल है। अन्य विकसित पूंजीवादी देशों के ऐसा ही करने के पीछे एक अतिरिक्त कारक, अमेरिकी दबाव का भी है। बहरहाल, इन कारकों में चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भर न हो जाने की चिंता ही कहीं ज़्यादा निर्णायक रही है।

चीन के ख़िलाफ़ अप्रत्यक्ष पाबंदियां?

चीन से तेज़ी से बढ़ते आयातों को लेकर अमेरिका की चिंता की शुरूआत तो जॉर्ज बुश जूनियर के दौर में ही हो गई थी। जॉर्ज बुश जूनियर ने चीन को इसके लिए तैयार करने की कोशिश की थी कि डॉलर के मुकाबले युआन की विनिमय दर बढ़ा दे। ये सिलसिला ओबामा के राज में जारी रहा, जिसने अपने उत्पादन का समुद्र पार पुनस्र्थापन करने वाली अमेरिकी फर्मों को दंडित किया था। बहरहाल, वे डोनाल्ड ट्रम्प ही थे जिन्होनें बाहर से आयातों से घरेलू उत्पादन को सुरक्षा प्रदान करने के लिए, तटकर लगाने के हथियार का सहारा लिया था।

पश्चिमी हिस्से द्वारा चीन के साथ अपने व्यापार को घटाने के पीछे प्रचंड रूप से राजनीतिक उद्देश्य को रेखांकित करने के लिए, दो उदाहरण ही काफी होंगे। यूरोपियन यूनियन ने एक नियम का प्रस्ताव किया है कि यूरोप की ऊर्जा खपत का गैर-कार्बनीकरण करने के लिए, सोलर पैनलों का आयात किसी ऐसे देश से नहीं किया जाना चाहिए, जिसके पास इस क्षेत्र के बाज़ार का 65 फीसद से ज़्यादा हिस्सा हो। इस नियम का मकसद, सिर्फ और सिर्फ चीन को बाहर रखना है, जिसके पास इस क्षेत्र के बाज़ार का 85 फीसद हिस्सा है, जो उसके बहुत ही कम दाम पर सोलर पैनलों की आपूर्ति करने का ही नतीजा है। संक्षेप में यह कि यूरोप, सिर्फ चीन को बाहर रखने के लिए, सोलर पैनलों के लिए कहीं ज़्यादा दाम देने के लिए तैयार है। ज़ाहिर है कि यह फैसला, पूरी तरह से भू-राजनीतिक आग्रहों से ही संचालित है।

डी-ग्लोबलाइज़ेशन या चीन से भेदभाव?

इसी प्रकार बाइडेन प्रशासन ने चीन से सेमीकंडक्टरों के निर्यातों पर पाबंदी लगाई है। यह पाबंदी, खुद अमेरिका के कारपोरेटों की मर्जी के ख़िलाफ़ जाकर लगाई गई है और इससे चीन में उच्च-प्रौद्योगिकी उद्योगों के लिए, जिसमें सैन्य प्रौद्योगिकी तथा कृत्रिम मेधा के क्षेत्र भी शामिल हैं, एक बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है। यह पाबंदी शुद्घ रूप से भू-राजनीतिक आग्रहों से प्रेरित है और इसके पीछे सिर्फ एक ही इच्छा है कि चीन को आर्थिक तथा प्रौद्योगिकीय दृष्टि से पंगु बनाकर रख दिया जाए। दूसरे शब्दों में, हालांकि घोषित रूप से चीन के ख़िलाफ़ अब तक पाबंदियां नहीं लगाई गई हैं, फिर भी हम देख रहे हैं कि उसके ख़िलाफ़ अघोषित पाबंदियां लगा दी गई हैं। ये पाबंदियां या तो भविष्य में किसी समय पर घोषित रूप से भी पाबंदियां लगाने के लिए हैं या फिर सिर्फ चीन को आर्थिक रूप से पंगु करने के लिए ही लगाई गई हैं।

जिसे ‘डी-ग्लोबलाइज़ेशन’ कहा जा रहा है, उसका संंबंध व्यावहारिक मायनों में पश्चिमी ताकतों की इस पूरी तरह से नई प्रवृत्ति से ही है कि चीन के ख़िलाफ़ भेदभाव किया जाए; इसका संबंध उनकी इस आकांक्षा से है कि चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भर न हुआ जाए। आसान शब्दों में कहें तो कोशिश यही है कि व्यापारिक रिश्तों को चीन से परे जाकर बहुविध बनाया जाए, भले ही इस तरह का बहुविधकरण ज़्यादा महंगा ही क्यों नहीं पड़ रहा हो। चीन के साथ अमेरिका के व्यापार के परिमाण में हाल ही में आई गिरावट, इसी का नतीजा है। यह तो ऐसे ही है जैसे चीन को उन देशों की सूची में शामिल किया जा रहा हो, जिन पर पश्चिम ने पाबंदियां लगाई हैं।

दिलचस्प बात यह है कि मैक्रो यह वृहद आर्थिकी के स्तर के पैमानों पर भी, मिसाल के तौर पर कुल विश्व जीडीपी के हिस्से के तौर पर कुल विश्व आयातों के अनुपात में, कोई वास्तविक गिरावट दर्ज नहीं हुई है। कुछ अर्थशास्त्री इस अनुपात का उपयोग, ‘वैश्वीकरण’ का आकलन करने के लिए एवजी के पैमाने के तौर पर करते हैं। उन्हें भी इस तरह के नाप-जोख से ‘वैश्वीकरण’ के आगे बढ़ने की रफ्तार धीमी होने का ही पता चलता है, न कि उसके पलटे जाने का।

बहरहाल, जैसा कि हम पीछे कह आए हैं, हमारे परिप्रेक्ष्य में ‘वैश्वीकरण’ का संबंध देशों के एक-दूसरे पर निर्भर होते जाने की परिघटना से उतना ज़्यादा नहीं है। इसका संबंध तो सारत: एक शक्ति संबंध से ही है। इस शक्ति का व्यवहार जितना खास-खास देशों के ख़िलाफ़ ‘पाबंदियां’ लगाए जाने के ज़रिए किया जाता है, उतना ही देशों को ‘वैश्वीकरण’ के संजाल में घसीटने के ज़रिए भी किया जाता है। इस शक्ति का उपयोग, साम्राज्यवाद की निशानी है। ‘पाबंदियां’ उतनी ही ज़्यादा साम्राज्यवाद की निर्ममता की निशानी हैं, जितना ‘वैश्वीकरण’ है, जिसमें वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी का वर्चस्व निहित है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि तथाकथित ‘डी-ग्लोबलाइज़ेशन’, ‘वैश्वीकरण’ का नकार नहीं है बल्कि उसका पूरक ही है।

वैश्वीकृत पूंजी में प्रचंड अधिकता विकसित पूंजीवादी देशों से ही आती है और वह इन विकसित देशों के कार्यसंचालन के साथ जुड़ी रहती है। इसलिए, वैश्वीकृत पूंजी का वर्चस्व, तथ्यत: विकसित पूंजीवादी देशों का वर्चस्व है, जिसे दुनिया भर के लोगों पर और खासतौर पर तीसरी दुनिया के लोगों पर थोपा जाता है। वैश्वीकरण को, तीसरी दुनिया के बड़े पूंजीपति वर्ग और यहां तक कि वेतनभोगी वर्ग तथा प्रोफेशनल वर्गों के उपरी तबकों का भी समर्थन तो हो सकता है, लेकिन इसमें अनिवार्यत: तीसरी दुनिया के मज़दूरों, किसानों तथा लघु उत्पादकों का दमन अंतर्निहित होता है।

पूंजी प्रवाहों पर नियंत्रण के बिना मुक्ति नहीं

उनकी दासता से मुक्ति का रास्ता आज, जैसा एक दशक पहले था, उससे अलग नहीं है। मेहनतकश जनता की दशा में किसी भी सुधार के लिए, राजकीय हस्तक्षेप ज़रूरी है। इसके लिए, राज्य के पास इसकी गुंजाइश होनी चाहिए कि वह, पूंजी के पलायन के डर से संकुचित हुए बिना, हस्तक्षेप कर सके। लेकिन, जब तक देश बेरोक-टोक पूंजी प्रवाहों के भंवर में फंसा रहता है, वह यह गुंजाइश हासिल कर ही नहीं सकता है। इसलिए, पूंजी-प्रवाहों पर नियंत्रण, राज्य के किसी भी प्रगतिशील हस्तक्षेप के लिए आवश्यक हो जाता है।

इसे दूसरे शब्दों में कहें तो जनता की माली हालत में सुधार के लिए, सिर्फ राज्य की प्रकृति में बदलाव होना यानी उसका मज़दूरों व किसानों के समर्थन पर टिका होना ही काफी नहीं है। इसके साथ ही इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि संबंधित देश, बेरोक-टोक पूंजी प्रवाहों की दुनिया से, नाता तोड़ें। मज़दूर वर्ग का समर्थन मात्र ही काफी नहीं है। पूंजी प्रवाहों पर नियंत्रण भी ज़रूरी है, तभी जनहितकारी नीतियों को अपनाया जा सकता है, हालांकि इस तरह का नियंत्रण साम्राज्यवादी ‘पाबंदियां’ न्यौत सकता है। यह तो आज भी उतना ही सच है, जितना अब से एक दशक पहले था। इस तथाकथित ‘डी-ग्लोबलाइज़ेशन’ से, जिसकी कुछ अर्थशास्त्री आज बात कर रहे हैं, इसकी अनिवार्यता पर रत्तीभर फर्क नहीं पड़ता है कि वैश्वीकृत पूंजी के वर्चस्व का मुकाबला किया जाए, जिसकी पीठ पर विकसित पूंजीवादी देशों की पूरी ताकत खड़ी हुई है।

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