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क्या रामनवमी के दौरान हिंसा ही अब न्यू नॉर्मल है!

पिछले साल की तरह इस बार भी कई राज्यों में सांप्रदायिक झड़पें हुईं हैं।
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फाइल फ़ोटो।

30 मार्च को, रामनवमी के दिन और उसके अगले दिन छह राज्यों में कम से कम 12 स्थानों पर हिंसक झड़पें हुईं हैं: इनमें औरंगाबाद, मलाड, जलगाँव (महाराष्ट्र); हावड़ा, दलखोला (पश्चिम बंगाल); वडोदरा (गुजरात); हसन (कर्नाटक); लखनऊ, गोरखपुर, मथुरा (यूपी); और मुंगेर, बिहारशरीफ, सासाराम (बिहार) शामिल हैं, जहां संपत्ति के नुकसान के अलावा, कम से कम दो लोग मारे गए और कई लोग घायल हो गए हैं।

ये सभी घटनाएं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े विभिन्न संगठनों द्वारा निकाली गई 'शोभा यात्राओं' (जुलूस) के दौरान और उसके एक दिन बाद भी हुईं हैं। कथित तौर पर, कई जुलूसों में लोगों ने तलवार जैसे हथियार हाथों में लिए भाग लिया। जुलूस में ऊंची आवाज़ (हाई डेसिबल एम्पलीफायरों) वाले यंत्रों के ज़रिए धार्मिक नारे और गाने बजाए जा रहे थे। कथित तौर पर इन जुलूसों को मुस्लिम बहुल इलाकों से निकाला गया जिससे बहस, हाथापाई, पथराव और चाकूबाजी की घटनाएँ हुई हैं। ज्यादातर मामलों में, भगवाधारी जुलूसों में भड़काऊ नारे लगाने और इस तरह के अन्य कार्यों के प्रमाण मिले हैं।

यह पिछले साल की तरह ही भयानक है। 10 अप्रैल, 2022 को गुजरात, मध्य प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा की सूचना मिली थी। 16 अप्रैल को दिल्ली, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में हिंसा की घटनाएं देखी गई थी। फिर 17 अप्रैल को महाराष्ट्र में हिंसा हुई थी। मौका वही था- रामनवमी के बाद हनुमान जयंती के जुलूस। इन जुलूसों में भी वेशभूषा और भावना समान ही थी, और शायद इरादे में भी कुछ वैसे ही थे। और इसलिए इनके परिणाम भी समान थे – वह नफ़रत जो हिंसक झड़पों में बदल गई थी।

दरअसल, धार्मिक त्योहारों के दौरान तनाव अब सामान्य सी बात हो गई है। मुस्लिम त्योहारों पर, सार्वजनिक स्थानों पर मुस्लिम आबादी द्वारा नमाज अदा करने पर हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा आपत्ति जताए जाने के कारण तनाव देखा जा सकता है। हाल ही में, दिल्ली के पास एक रिहायशी सोसाइटी में तब हंगामा खड़ा हो गया जब मुस्लिम निवासियों ने परिसर में नमाज अदा की।

लेकिन हिंदू त्योहारों पर, ऊपर बताई गई प्रकृति के बड़े जुलूस होते हैं। इनका मक़सद स्पष्ट तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय को भड़काने का रहता है। जानबूझकर मस्जिदों के सामने जोर से धार्मिक संगीत बजाना, अल्पसंख्यक इलाकों से यात्रा निकालने पर जोर देना, यहां तक कि मस्जिद की दीवारों पर चढ़ने के प्रयास के कुछ मामले (मथुरा की तरह) भी सामने आए हैं।

इसके बाद जो होता है, वह स्थानीय पुलिस और प्रशासन पर निर्भर करता है। और मुस्लिम समुदाय के दृष्टिकोण पर भी काफी-कुछ निर्भर करता है। पिछले साल दिल्ली के जहाँगीरपुरी में तनाव का जो दृश्य देखा गया था, इसलिए इस साल पुलिस ने शुरू में जुलूस की अनुमति देने से इनकार कर दिया था लेकिन इसके बावजूद जुलूस निकाला गया, जिसके बाद एक 'समझौता' हुआ जिसमें तय किया गया था कि इसे केवल 100 मीटर तक ही निकाला जाएगा। अंत में, झंडों और नारों के साथ एक पूरा जुलूस काफी दूर तक गया, हालांकि शुक्र इस बात अदा करना चाहिए कि हिंसा का कोई विस्फोट नहीं हुआ।

पश्चिम बंगाल में, मामला स्पष्ट था कि, हावड़ा की घटनाएं पुलिस की लापरवाही और एक अति-हिंदू संगठन के नेतृत्व में भीड़ को मुस्लिम इलाके से गुजारने की जिद से घटी थी। न्यूज़क्लिक की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के कई हिस्सों में जुलूसों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस दोनों के नेता शामिल थे।

जुलूस निकालने की आज़ादी

भाजपा और उससे संबद्ध संगठनों के नेताओं के साथ-साथ मीडिया के अपने मुखपत्रों में तीखे तर्क दिए हैं कि यह एक आज़ाद देश है और क्या हिंदुओं को यह अधिकार नहीं है कि वे जिस रास्ते से चाहें जुलूस निकाल सकें?

वास्तव में यह कानून के शासन और खुद संविधान को एक स्पष्ट चुनौती है। कानून बिना किसी भेदभाव के, किसी भी धर्म का पालन करने का अधिकार देता है। लेकिन यह इस अधिकार के तहत कुछ सीमाएँ भी हैं - कोई जानबूझकर किसी और के धार्मिक विश्वासों का अपमान या उल्लंघन करके अपने धर्म का अभ्यास नहीं कर सकता है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने भी नफरत फैलाने वाले भाषणों पर अंकुश लगाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाने के लिए सरकार को फटकार लगाई थी। इसलिए, इस बात पर जोर देना कि हथियारबंद जुलूसवाले कहीं भी जा सकते हैं और दूसरे नागरिक के धर्म के खिलाफ निर्देशित जहरीले नारे लगा सकते हैं, निश्चित रूप से इस किस्म के जुलूसों की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यह स्पष्ट रूप से किसी के धार्मिक विश्वासों का पालन करने के संवैधानिक अधिकार के दायरे से बाहर की बात है।

मुसलमानों को दोष देना

एक और नेरेटिव को उतने ही जोश के साथ आगे बढ़या जा रहा है, जो एक घृणापूर्ण और गुस्से वाली प्रतिक्रिया है - "कि एक शोभायात्रा चल रही थी लेकिन मुसलमानों ने उस पर हमला कर दिया"। वास्तव में, यह आरएसएस/भाजपा समर्थकों द्वारा अपने मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से की जा रही लगभग सार्वभौमिक व्याख्या है।

मीडिया में वास्तविक घटनाओं के जो भी छोटे-मोटे विवरण उपलब्ध हैं, उनके आधार पर यह स्पष्ट है कि उकसावे की शुरुआत जुलूसियों की ओर से हुई थी। यह बहुत संभव है कि इस उकसावे के सामने मुस्लिम समुदाय के सदस्यों ने आक्रामक प्रतिक्रिया व्यक्त की हो। लेकिन आप इसे कैसे आंकते हैं? इस किस्म की आग लगाने और भड़काऊ स्थिति में, जो ऐसे समय में काफी प्रबल होती है, छोटी सी चूक भी त्वरित और अनियंत्रित हिंसा का कारण बन सकती है। इससे बचने का एकमात्र तरीका यह सुनिश्चित करना है कि कोई भड़काऊ कार्रवाई या शब्द का इस्तेमाल न हो। निस्संदेह, मुस्लिम समुदाय में भी ऐसे तत्व हैं, जो कट्टरपंथी विचारधारा से संबंधित हैं। वे कट्टर हिन्दुओं के ही प्रतिरूप हैं। ये दोनों ताकतें एक-दूसरे की महत्वाकांक्षाओं और रणनीति को हवा देती हैं।

लेकिन, ज्यादातर मामलों में, यह स्पष्ट है कि उकसावे की मंशा जुलूस निकालने वालों की तरफ से थी - या कम से कम इन कार्यक्रमों के आयोजकों की थी। इसे न रोक पाने का दोष तो पुलिस और प्रशासन पर जाना ही चाहिए – जिसने हथियारबंद लोगों के जुलूस को आगे बढ़ने दिया और फिर उसकी इजाजत थी या नहीं यह एक जुदा बात है?

यह ज़हरीला मोड़ क्यों?

हालांकि हिंदुत्व के समर्थकों ने धार्मिक जुलूसों को लंबे समय से हिंसा को भड़काने के लिए इस्तेमाल किया है, लेकिन यह संगठित देशव्यापी घटना हाल ही की है। राम मंदिर का मुद्दा अब ज़िंदा नहीं रह गया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए हिंदू पक्ष को आगे बढ़ने की अनुमति दे दी थी। इसका उद्घाटन अगले साल होने वाला है, शायद आम चुनाव के समय किया जाएगा।

इसलिए, ऐसा लगता है कि संघ परिवार का ध्यान सीधे भगवान राम के नाम का इस्तेमाल करने के साथ उससे संबंधित एजेंडे को आगे बढ़ाने पर स्थानांतरित हो गया है – इरादा मुस्लिम समुदाय को आतंकित करने और बदनाम करने का है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में राम के भक्त बड़ी संख्या में हैं, मुख्य रूप से उत्तरी राज्यों में लेकिन अन्य जगहों पर भी ये मौजूद हैं। यह लंबे समय से चले आ रहे राम मंदिर आंदोलन में स्पष्ट था। भाजपा ने आम लोगों के धार्मिक विश्वासों का इस्तेमाल करके अपने समर्थन को बढ़ाया और उस फसल को पूरी तरह से काट लिया है।

मंदिर बनने के बाद इन मुद्दों को जीवित बनाए रखना एक चुनौती का काम है। लेकिन यह सोचना गलत होगा कि यह बस इतना ही है – यानी चुनावी रणनीति। इनका बड़ा और कहीं अधिक भयानक लक्ष्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना है, जिसकी परिभाषा अतीत के आरएसएस के विचारकों द्वारा स्पष्ट रूप से दी गई है। इसमें अन्य बातों के अलावा, गैर-हिंदुओं को द्वितीय श्रेणी की स्थिति में अधीनता शामिल है, जिसमें उन्हे व्यक्तिगत आदतों और रीति-रिवाजों से लेकर सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों तक, जीवन के सभी पहलुओं में हिंदू श्रेष्ठता को स्वीकार करना होगा। यह एक खतरनाक महत्वाकांक्षा है और इसके ताने-बाने में हिंसा गुंथी हुई है। हाल ही में देखे गए रामनवमी के जुलूस इस भव्य डिजाइन के कुछ टुकड़ों में से हैं।

जो महत्वपूर्ण संयोग है वह यह कि, इस बात को हमेशा याद रखने की जरूरत है कि आरएसएस/भाजपा एक अमीर परस्त, ग़रीब मज़दूर-किसान विरोधी नीति से उतने ही जुड़े हुए हैं, जितना कि हिंदू राष्ट्र के विचार से। वास्तव में, हिंदू राष्ट्र की कल्पना एक प्रकार के मुक्त उद्यम स्वर्ग के रूप में की जाती है। श्रमिकों या किसानों के अधिकार, शोषण से मुक्ति, जातिगत दमन का अंत और अन्य आधुनिक आकांक्षाएं इस अंधेरी दृष्टि के विरोधी हैं। इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा आक्रामक कट्टरता की बारी ऐसे समय में आई है जब नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ असंतोष और आक्रोष बढ़ रहा है। अब आने वाली 5 अप्रैल को दिल्ली में मेहनतकशों- मज़दूरों, किसानों, खेतिहर मज़दूरों, कर्मचारियों आदि की एक विशाल रैली होने जा रही है। इससे पहले मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर देशव्यापी अभियान चलाया जा चुका है। अभियान और रैली के दौरान संकल्प लिया गया कि, रामनवमी के जुलूसों के दौरान जिस तरह की जहरीली सांप्रदायिकता का प्रदर्शन किया गया, उसके खिलाफ बड़ी ही मजबूती से लड़ने के अपने संकल्प दोहराया जाएगा।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Is Violence During Ram Navami the New Normal?

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