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इस्लामिस्ट एवं हिन्दुत्ववादी: कब तक चलेगी यह जुगलबंदी!

हमको सीएए मांगता! - आखिर इस्लामिस्ट क्यों खुश हैं नागरिकता संशोधन अधिनियम से
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 प्रतीकात्मक तस्वीर। 

विजयादशमी के दिन सरसंघचालक की तकरीर आम तौर पर आने वाले समय का संकेत प्रदान करती है।

विश्लेषक उस व्याख्यान की पड़ताल करके इस बात का अंदाज़ा लगाते हैं कि दिल्ली में सत्तासीन संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा की आगामी योजना क्या होगी।

विगत माह विजयादशमी के दिन संघ सुप्रीमो के व्याख्यान का फोकस नागरिता संशोधन अधिनियम पर था, जिसमें उन्होंने यह दावा किया कि यह अधिनियम किसी भी ‘धार्मिक समुदाय’ के साथ भेदभाव नहीं करता है और मुसलमानों को एक छद्म प्रचार से गुमराह किया गया है। उनके मुताबिक संसद में यह कानून संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करके पारित हुआ है, एक तरह से सरहद पार के उन भाइयों एवं बहनों को सुरक्षा प्रदान करता है, जिन्हें वहां धार्मिक प्रताडना झेलनी पड़ती है।

मालूम हो कि उन दिनों चूंकि बिहार चुनावों की सरगर्मियां बनी हुई थीं, लिहाजा उनके वक्तव्यों से निकले संकेतों पर अधिक बात नहीं हो सकी।

गौरतलब है कि बंगाल के चुनावों के मद्देनज़र भाजपा के कुछ अग्रणी नेताओं ने भी इसी किस्म की बातें शुरू कर दी हैं। मालूम हो कई बार अपनी आम सभाओं में उनके कई अग्रणी, ‘दीमक’ की तरह ऐसे ‘अवांछितों’ को हटाने की बात पहले ही कर चुके हैं।

प्रश्न यह है कि क्या कोविड काल में इस सम्बन्ध में नियम बनाने का जो सिलसिला छोड़ दिया गया था क्या उसी मार्ग पर सरकार चलने वाली है और इसे लागू किया जाने वाला है या यह सिर्फ चुनावी सरगर्मी बनाए रखने का मामला है।

याद रहे इन कानूनों के खिलाफ विगत साल नवम्बर-दिसम्बर माह से ही जबरदस्त जनपहलकदमी दिखाई दी थी। देश भर में नागरिक समाज ही नहीं छात्रों-युवाओं का अच्छा खासा हिस्सा सड़कों पर उतरा था और इस विरोध आन्दोलन को मुसलिम महिलाओं की ऐतिहासिक पहलकदमी ने एक नया रंग भर दिया था - जो शाहीन बाग से लेकर देश के तमाम शहरों, नगरों में अनिश्चितकाल के धरने पर बैठी थीं।

आज मोहन भागवत या भाजपा के अग्रणी कुछ भी कहें इन कानूनों के बारे में लोगों की आपत्तियां आज भी जायज हैं क्योंकि इसके जरिए आज़ादी के बाद पहली दफा नागरिकता प्रदान करने का आस्था आधारित बहुत चयनात्मक तरीका लागू होता दिख रहा था, जो मुसलमानों और यहुदियों को बाहर रखता है। इस नए कानून को इसी ढंग से देखा गया था कि वह भारत के करोड़ो मुसलमानों को ‘अवैध घुसपैठियों’ के स्तर तक पहुंचा रहा है।

फिलवक्त़ चूंकि कोविड महामारी के चलते जनता का अच्छा खासा हिस्सा चिंतित है और विपक्षी दल भी बदले हालात में अपनी रणनीति बनाने में मुब्तिला हैं, न इस मसले पर बात हो पा रही है कि अगर सरकार अड़िग रही तो इस पर अमल किस स्तर का एशिया के इस हिस्से में प्रचंड मानवीय संकट को जन्म देगा, न ही इस बात को रेखांकित किया जा रहा है कि भारत में नागरिकता के लिए आस्था आधारित चयनात्मक तरीका लागू हो जाए इस प्रस्ताव से ही आखिर सरहद पार के इस्लामिस्ट क्यों खुश हैं?

सोचने की बात है कि संविधान में यह संशोधन - जिसके तहत भारत के तीन पड़ोसी मुल्कों, अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बांगलादेश में उत्पीड़ित कई समुदायों को नागरिकता देने की बात की गयी है, मगर जिसमें से मुसलमानों एवं यहुदियों को दूर रखा गया है - साफ साफ सरहद पार के इस्लामिस्टों की मदद करता दिखता है।

थोड़ा बारीकी से देखें तो इस पहेली को बूझा जा सकता है।

पहली बात, सरहद पार के इस्लामिस्टों के लिए बिना कुछ किए जनता को जोड़ने में कामयाबी मिल सकती है, अगर वह प्रमाणित कर सकें कि पड़ोसी मुल्क में किस तरह इस्लाम के मानने वालों के साथ अन्याय हो रहा है! ‘चिरवैरी’ मुल्क में मजबूत हो रहे हिन्दू राष्ट्र का खतरा दिखा कर वह अपने एजेण्डे के तहत लोगों को जोड़ सकते हैं।

दूसरे, इस्लामिज्म को आगे बढ़ाने में मुब्तिला इन समूहों का सबसे बड़ा दुश्मन कौन होता है?

निश्चित ही उनके अपने समुदाय के लोग - जो इस्लाम की उनकी परिभाषा से सहमत नहीं होते - वही उनके ‘सबसे बड़े दुश्मन’ बनते हैं।

विगत एक दशक में पाकिस्तान में मारे गए सलमान तासीर जैसे पूर्व गवर्नर को देखें या शाहबाज भटटी जैसे कैबिनेट मंत्री को देखें या मशाल खान जैसे चे ग्वेरा के प्रेमी छात्रा को देखें, सूफी मजारों पर हो रहे आतंकी हमलों की पड़ताल करें जिनमें सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं या बांगलादेश में मारे गए तर्कशीलों, एवं सेक्युलर कार्यकर्ताओं की फेहरिस्त देखें, हम यही पाते हैं कि इन सभी कार्रवाइयों में इस्लामिस्ट ही आगे हैं।

यह सोचें कि जब किसी मुल्क में इस्लामिस्ट, स्वतंत्र विचारकों या उनसे असहमती रखने वालों या उनके मुल्क के अल्पमत समुदायों पर जब अपना कहर बरपा करते हैं तो ऐसे पीड़ितों के लिए कहां से सहारा मिल सकता है? निश्चित ही ऐसे मुल्क जो अधिक लिबरल हों, जो धर्म एवं राजनीति को दूर रखकर चलते हों, वहां उनके लिए शरण मिल सकती है। आज़ादी के बाद ऐसी कई मिसालें मिलती हैं, जब वहां असहमति रखनेवाले लेखकों, कलाकारों को, समूहों के प्रतिनिधियों को यहां राजनीतिक शरण मिली थी।

जाहिर है कि अगर भारत में आस्था के नाम पर मुसलमानों एवं यहूदियों को नागरिकता न मिलने लगे या उनके प्रति असंम्प्रक्तता का भाव प्रगट होने लगे तो असहमति रखनेवाले इन लोगों के लिए बचने के लिए भारत पहुंचने के रास्ते भी बंद हा जाएंगे, जो सिलसिला सरहदपार के इस्लामिस्टों के लिए लॉटरी मिलने जैसा होगा। 

तीसरे, यह सिलसिला हम आस्था एवं राजनीति का घोल करने वाले अन्य समुदायों में भी देख सकते हैं।

महात्मा गांधी से लेकर नरेंद्र दाभोलकर हो, प्रोफेसर कलबुर्गी हों, कामरेड गोविन्द पानसरे हों या गौरी लंकेश हों, इन सभी की सुनियोजित हत्या के पीछे आप इस्लामिस्ट नहीं पाते हैं, बल्कि हिन्दू धर्म के नाम पर सक्रिय अतिवादियों को पाते हैं।

प्रोफेसर नरहर कुरूंदकर, जो समाजवादी विचारों के जनबुद्धिजीवी थे, उन्होंने इसी स्थिति को बयां करते हुए अपनी किताब ‘शिवरात्रा’ में बाकायदा लिखा है:

..हिंदुत्ववादियों की पिस्तौल को कासिम रिजवी / वही जिसने हैद्राबाद मुक्ति संग्राम में निज़ाम के लिए रज़ाकार नाम से हथियारबन्द गिरोह पैदा किए, जो कुख्यात रहे/ नज़र नहीं आया, निज़ाम या जिना दिखाई नहीं दिए। उनके इस पिस्तौल की गोली सन् 1920 के बाद कभी अंग्रेजों पर भी नहीं चली, गोया यह गोली गांधीजी के लिए तय थी। / पेज 33/

हम हालिया वक्त़ की कुछ घटनाओं को देख कर भी इसका और अन्दाज़ा लगा सकते हैं।

आप मलाला यूसुफजई के बारे में सोचें - जो स्त्री शिक्षा के लिए सक्रिय कार्यकर्ता थी और इसी ‘अपराध’ के चलते तालिबानियों के हमले का शिकार हुई थी, वही तालिबानी जिन्होंने पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों से सैकड़ों स्कूल जला दिए थे; आप चर्चित लेखिका तस्लीमा नसरीन के बारे में गौर करें या सलमान रश्दी का खयाल मन में लाएं, क्या आप को लगता है कि पड़ोसी मुल्क नहीं होते या पश्चिमी मुल्कों से समर्थन नहीं मिलता, तो यह अब तक जिन्दा रह पाते? या आप आसिया बी के बार में सोचें, वह ईसाई कामगार महिला, जिसे ईशनिन्दा के आरोप में कई सालों तक जेल में सड़ना पड़ा और अदालत द्वारा रिहा किए जाने पर जान बचाने के लिए अपना मुल्क छोड़ना पड़ा क्योंकि इस्लामिस्ट इस फैसले से खुश नहीं थे।

ऐसी तमाम मिसालें देखी जा सकती हैं।

जाहिरा तौर पर यह उत्पीड़न महज चन्द व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहता। वहां ऐसे समुदाय भी उत्पीड़न का शिकार होते रहते हैं, जो भले ही इस्लाम को कबूल करते हों, मगर रहने, पहनने और प्रार्थना करने का तरीका उनका कुछ अलग होता है। चार दशकों से पाकिस्तान का अहमदिया समुदाय - जिसे सत्तर के दशक में वहां गैरमुस्लिम घोषित किया गया- प्रचंड उत्पीड़न का शिकार होता आया है, उनकी मस्जिदों को जलाया गया है, उनके मकानों को आग के हवाले किया गया है और उन्हें सारतः दोयम दर्जे का नागरिकत्व मिला हुआ है।

जब भारत जैसा कोई पड़ोसी मुल्क - जिसकी बहुलता की विश्व समुदाय द्वारा तारीफ की जाती रही है, और जिसके बारे में यह भी कहा जाता रहा है कि दुनिया भर के उत्पीड़ित वहां शरण लिए हैं - वही ऐसा कानून बनाता है जो ऐसे उत्पीड़न को देखने से कानूनी ढंग से भी इन्कार करता है तथा इस तरह ऐसे तमाम उत्पीड़ितों के लिए दरवाजे बन्द कर देता है, तो अन्दाज़ा ही लगाया जा सकता है कि सरहद पार के इस्लामिस्ट इस कदम से कितने खुश हुए होंगे।

नागरिकता संशोधन अधिनियम, एनपीआर तथा एनआरसी की मुखालिफत की तमाम वजहें हैं, लेकिन शायद यह कारण सबसे अहम है कि वह किस तरह सरहद पार के इस्लामिस्टों को मदद कर रहा है। और इस तरह सरहद के इस पार के हिन्दू राष्ट के हिमायतियों और सरहद के उस पार इस्लामिक स्टेट कायम करने के लिए ख्वाहिशमंद जमातों के बीच चल रही जुगलबंदी को उजागर कर रहा है।

अन्त में हम मिलिंद मुरूगकर की उस चेतावनी की तरफ आ सकते हैं जिसमें वह रैडिकल इस्लाम के खिलाफ लड़ने में पश्चिमी जगत की उदारवादी नीतियों का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि ‘‘..किस तरह उन्होंने  हमेशा ही रैडिकल इस्लाम के पीड़ितों का अनिवार्य तौर पर साथ दिया। है। उनके मुताबिक नरेंद्र मोदी सरकार की सियासत - जिसने भारत के संवैधानिक कानून  के तहत नागरिकता कानून को बदला, वह बिल्कुल इससे विपरीत दिशा में बढ़ रही है।’’

(सुभाष गाताडे स्वतंत्र लेखक-पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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