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इस्राइल का दोहरा अपराध: उपनिवेशवाद और नस्लवाद

युद्ध रुका है। यह अच्छी ख़बर है। मौतें किसी भी सूरत में, किसी की भी स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। लेकिन इसके बाद क्या?
इस्राइल का दोहरा अपराध: उपनिवेशवाद और नस्लवाद
फोटो साभार: money control

गाज़ा पट्टी पर बमबारी रुक गई है। इस्राइल और हमास ने युद्ध विराम की घोषणा की है। दोनों ही अपनी जीत का ऐलान कर रहे हैं। इस्राइल ने धमकी दी है कि अगर फिर कुछ गड़बड़ हुई तो वह वापस हमला शुरू करेगा। हमास ने चेतावनी दी है कि उसकी उंगलियाँ बंदूक के घोड़े पर हैं। बावजूद इस पैंतरेबाजी के युद्ध विराम का स्वागत किया जाना चाहिए। गाज़ा में इमारतों के मलबे से अभी भी शव निकाले जा रहे हैं। मारे गए फिलिस्तीनियों की तादाद 250 से ऊपर हो सकती है। इसमें तकरीबन 70 बच्चे हैं। खबर है कि कोई 12 इस्राइली भी मारे गए हैं।

इस्राइल का दावा था कि वह हमास के लडाकों और उसके कमांडरों को निशाना बना रहा है। वह हमास की युद्ध क्षमता को भी नष्ट करने का दावा कर रहा है। दूसरी तरफ हमास ने यह साबित कर दिया है कि बावजूद सारी नाकेबंदी के उसने इतनी ताकत बनाए रखी है और उसे बढ़ाया भी कि उसके राकेट तेल अवीव तक वार कर सकते हैं।

हम इस्राइल और हमास के नाम एक ही साथ ले रहे हैं। इससे भ्रम हो सकता है कि दोनों बराबर हैं। नहीं भूलना चाहिए कि हमास के राकेट पुरानी पड़ गई युद्ध की टेक्नोलॉजी से बनाए गए हैं जबकि इस्राइल के पास दुनिया के सारे अधुनातन हथियार हैं। इस्राइल के पास युद्ध की सबसे नई टेक्नोलॉजी भी है। वह दुनिया के कई देशों को हथियार बेचता है। भारत का नाम इन खरीदारों में पहली कतार में है। हमास एक छोटी सी चारों तरफ से इस्राइल के द्वारा सीलबंद कर दी गई गाज़ा पट्टी में घिरा हुआ है। उसके बावजूद अगर उसने अपनी मारक क्षमता बढ़ाई है तो मानना चाहिए कि इस्राइल के गाज़ा पर पिछले हमले जिन्हें हम युद्ध कहते हैं, बहुत कामयाब नहीं रहे हैं। क्योंकि 2014 का 51 दिनों तक चला हमला भी हमास को नाकाम करने के इरादे से किया गया था।

बहुत सारे लोग, भारत में विशेषकर, मानते हैं कि इस्राइल तो एक देश है लेकिन हमास एक दहशतगर्द गिरोह है। वे भूल जाते हैं कि हमास एक राजनीतिक संगठन है जिसकी अपनी एक विचारधारा है। आप उसे इस्लामवादी कह सकते हैं। उसे फिलिस्तीनियों ने चुनाव में और सरकार बनाने के लिए वोट दिया है। उसका प्रभाव गाज़ा में है लेकिन वह पश्चिमी तट की आबादी में भी लोकप्रिय हो रहा है। उसका प्रतिदंद्वी फ़तेह है जिसे नरम माना जाता है लेकिन जिसे खुद फिलिस्तीनी दब्बू और नाकारा मानते हैं। उसका प्रभुत्व अभी पश्चिमी तट पर है। हमास को हम आप नापसंद करते हों लेकिन उसने चुनाव जीता है। जिस तरह इस्राइली सरकार को अपने नागरिकों की रक्षा का हक है, उसी तरह हमास को भी है, यह उसका दावा है।

फिलिस्तीन को इस्राइल ने दुनिया के देशों की मौन सहमति से तीन टुकड़ों में बाँट रखा है। वह पश्चिमी तट में है, गाज़ा में है और येरुशलम में है। येरुशलम पर उसके कब्जे को अंतर्राष्ट्रीय सहमति नहीं है। लेकिन जैसे वह गाज़ा पट्टी पर अपना शिकंजा कसता जा रहा है और वहाँ भी यहूदियों की आबादी बढ़ाकर वह उसपर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है, वैसे ही पूर्वी येरुशलम में, जहाँ इस्लाम का तीसरा सबसे महत्त्पूर्ण स्थल मस्जिद अल अक्सा है, वह फिलिस्तीनियों को बेदखल करके उस शहर का चरित्र बदल देना चाहता है। कई पीढ़ियों से वहां रह रहे फिलिस्तीनियों को वह जबरन उनके घरों से निकालकर उन घरों को यहूदियों के हवाले कर रहा है।

हिंसा का यह दौर येरुशलम में हिंसक जियानवादी समूहों और इस्राइली सुरक्षा बल के द्वारा फिलिस्तीनियों पर की जा रही ज्यादती से शुरू हुआ। रमजान के पवित्र महीने में फिलिस्तीनियों पर इस हिंसा में मस्जिद अल अक्सा पर हमला खास तौर पर अपमानजनक था। हमास ने चेतावनी दी कि यह हिंसा रोकी जाए वरना वह फिलिस्तीनियों की तरफ से कार्रवाई करेगा। इसके बाद उसने राकेट दागने शुरू किए।

इस्राइल के लिए यह बहाना बना गाज़ा पर ताजा हमलों का। जाहिर है, इसमें ज्यादा नुक्सान गाज़ा का होना था। लेकिन खुद इस्राइल के लोग कह रहे हैं कि उसे कोई लाभ इससे नहीं हुआ। हमास एक मामले में फायदे में है। कई दशकों में पहली बार इस्राइल के इस हमले ने पश्चिमी तट, गाज़ा और येरुशलम में बाँट दिए गए फिलिस्तीनियों को एक कर दिया है।

पिछले मौकों के मुकाबले इस बार इस्राइल के खिलाफ दुनिया का जनमत मुखर हुआ है। एक रोज़ पहले अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन को मिशिगन में भारी विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ा। अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी में फिलिस्तीन के पक्ष में आवाजें  मजबूत होती जा रही हैं। अमरीका के यहूदी समुदाय की युवा पीढ़ी भी इस्राइल की हिंसा के विरुद्ध मुखर हो रही है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति बाइडन के लिए अधिक समय तक इस्राइली नाइंसाफी का समर्थन करते रहना सम्भव न होगा।

युद्ध रुका है। यह अच्छी खबर है। मौतें किसी भी सूरत में, किसी की भी स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। लेकिन इसके बाद क्या? क्या इस्राइल में ऐसा उदार राजनीतिक तबका कभी प्रभावशाली हो सकेगा जो फिलिस्तीनी जनता के साथ इस्राइल की हिंसक नाइंसाफी को कबूल करके फिलिस्तीन के राज्य के अधिकार को स्वीकार करे? इस्राइल का वजूद खतरे में नहीं है। ज़्यादातर अरब देशों ने उससे रिश्ते बना लिए हैं। उसके पास किसी भी समय किसी भी पड़ोसी से अधिक फौजी ताकत रहेगी। अगर वह फिलिस्तीन को आज़ाद करता है तो खुद उसके लिए एक आशंका कम होती है।

1948 में जब जियानवादियों ने सदियों से बसे अरब फिलस्तीनियों पर हमला करके उनकी ज़मीन पर कब्जा किया, जिसे फिलिस्तीनी नकबा कहते हैं, तब से वह इस नकबा का सिलसिला बढ़ाता ही गया है। वह फिलिस्तीनियों की ज़मीन हड़प रहा है और उन्हें शरणार्थी बना रहा है। यह अपराध है। इस्राइल के भीतर वह स्पष्ट तौर पर नस्लभेदी कानूनों के जरिए वहाँ के अरब मुसलमानों को दोयम दर्जे के लोगों में तब्दील कर रहा है। दक्षिण अफ्रीका में नस्लभेद को नामंजूर कर चुकी दुनिया इसे कैसे कबूल कर सकती है?

इस्राइल का अपराध दोहरा है: उपनिवेशवाद का और नस्लवाद का। जिस यहूदी कौम ने यूरोप में यह नस्लभेदी घृणा और हिंसा झेली है,वह खुद नस्लभेद करे, यह उसके लिए शर्म की बात होनी चाहिए। यहूदी कंसंट्रेशन कैंप से जीवित निकले हैं। वे खुद कंसंट्रेशन कैंप बनाकर दूसरों के साथ वही करेंगे जो उनके साथ किया गया था, यह शर्मनाक है। यह शर्म यहूदी समाज में है। हाल में अमरीका में एक विरोध प्रदर्शन में एक यहूदी युवती एक प्लेकार्ड के साथ शामिल हुई। उसपर लिखा था: मेरे दादा औश्वित्ज़ से ज़िंदा इसलिए नहीं बचे थे कि गाज़ा पर बम गिराएं।

यह सन्देश बहुत सरल और स्पष्ट है। अगर यहूदियों को आज़ाद मुल्क में रहने का हक है तो वही फिलिस्तीनियों को भी है। इसमें पहल इस्राइल को लेनी होगी क्योंकि जुर्म उसका है। गाज़ा से अपना कब्जा हटाना, पश्चिमी तट पर नियंत्रण खत्म करना और इस्राइल के भीतर नस्लभेदी कानूनों को रद्द करना। दूसरी तरफ हमास को भी इस्राइल की वैधता को कबूल करना चाहिए। हिंसा की जगह बातचीत का रास्ता ही दोनों के लिए दीर्घकालीन शांति की गारंटी कर सकता है। लेकिन इसमें पहल दुनिया के दूसरे देशों को लेनी होगी। भारत को भी गाँधी के बुनियादी उसूल पर लौटना होगा और फिलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए ईमानदारी से काम करना होगा। लेकिन अगर वह खुद बहुसंख्यकवादी हो जाएगा तो किस मुँह से इस्राइल को सलाह देगा?   

(अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक और स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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