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इज़राइल—फ़िलिस्तीन संघर्ष: क्या दुनिया एक महायुद्ध के‌ मुहाने पर खड़ी है?

इज़रायल और फ़िलिस्तीन का विवाद क़रीब सौ साल पुराना है। दरअसल विवाद की वजह फ़िलिस्तीन का‌ वेस्टबैंक, गाज़ापट्टी, गोलनहाइट्स सहित पूर्वी यरूशलेम पर दावा जताना है, लेकिन इज़राइल यरूशलेम पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है।
Israel Palestine Conflict
फ़ोटो: Reuters

रूस और‌ यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध अभी समाप्त भी नहीं हुआ, कि यूरोप में आर्मीनिया और अज़रबैजान एक बड़े युद्ध के मुहाने पर खड़े‌ हैं। उसी वक्त फिलिस्तीन के गाज़ापट्टी से हमास के अतिवादी छापामारों द्वारा इज़राइल पर किए गए रॉकेटों तथा ज़मीनी हमलों ने समूचे मध्य-पूर्व सहित सारी दुनिया को एक महायुद्ध के मुहाने पर खड़ा कर दिया।

ख़बरों के मुताबिक शनिवार को सुबह-सुबह हमास समूह ने गाज़ापट्टी से इज़राइल पर बीस मिनट में क़रीब 5000 रॉकेट दागे, जिसके बाद मची भारी अफरातफरी के बीच गाज़ापट्टी और इज़राइल के बीच लगे तारों को काटकर ढेरों हमास छापामार इज़राइल में घुस गए। बहुत से‌ छापामार फ्लाइंग ग्लाइडर से भी इज़राइल में घुस गए तथा भारी पैमाने पर सैनिकों और आम नागरिकों पर हमले शुरू कर दिए।

समाचार लिखे जाने तक क़रीब 700 इज़रायली लोग मारे गए हैं, इसमें सैनिक और आम‌ नागरिक दोनों हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार इसमें इज़राइल के दो‌ सर्वोच्च सैन्य पदाधिकारी भी मारे गए हैं। हमास छापामारों ने  बहुत से इज़रायली आम नागरिक तथा सैनिकों को बंधक भी बना लिया है, इसके जवाब में इज़राइल ने गाज़ापट्टी में हमास के‌ ठिकानों हमला बोल दिया। ये हमले युद्धक विमानों तथा रॉकेटों से किए गए।

एक अनुमान के अनुसार अभी तक गाज़ापट्टी में इन हमलों में क़रीब 800 से लेकर 1000 तक लोगों के मारे जाने का अंदेशा है। इज़राइल का कहना है कि वह हमास का‌ पूरी तरह से सफाया कर देगा, परन्तु गाज़ापट्टी के इलाक़े बहुत ही घने रूप से बसे हैं, इसलिए बिना आम नागरिक के जान-माल की भारी‌ क्षति के यह लक्ष्य प्राप्त करना असम्भव है। हमास का यह हमला इज़राइल के‌ सैन्य प्रतिष्ठान तथा उसकी गुप्तचर संस्था मोसाद की असफलता के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि मोसाद लगातार दुनिया भर में इज़राइल विरोधी शक्तियों पर नज़र रखती है। इज़राइल में आम नागरिकों की सुरक्षा के बहुत अधिक पुख़्ता इंतज़ाम किए गए हैं, परन्तु इन सबको धता बताकर हमास ने हमला कर दिया। निश्चित रूप से इसकी तैयारी लम्बे समय से की जा रही होगी।

वास्तव में इस सारे घटनाक्रम के पीछे सबसे अधिक जिम्मेदारी इज़राइल की है। वर्तमान समय में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के नेतृत्व में इज़राइल में जो‌ सरकार‌ है, उनके सहयोगी घोर दक्षिणपंथी ज़ायोनी हैं, ये पार्टियाँ यहूदी दक्षिणपंथी संगठन हैं। इनका भी फासीवादी राजनीति का एक लम्बा इतिहास है, इसी कारण से वहाँ पर विशेष रूप से गाज़ापट्टी में फिलीस्तीनियों पर अत्याचार बहुत ज़्यादा बढ़ ग‌ए। यरुशलम में इसकी अल अक्सा मस्ज़िद; जो इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र मस्ज़िद मानी जाती है, उसमें 9 मई 2021 को‌ इज़राइल की पुलिस घुसकर हैंडग्रेनेड से हमला करती है। हमास संगठन इसे मस्ज़िद को अपवित्र करना बताता है तथा इज़राइल से बदला लेने की बात का अल्टिमेटम देता है। इज़राइल पर हुए इस हमले में इस तथ्य की भी बड़ी भूमिका है, जिसे आमतौर पर पश्चिमी देश नकारते हैं।

विवाद का लंबा इतिहास

इज़रायल और फिलिस्तीन का विवाद क़रीब सौ साल पुराना है। दरअसल विवाद की वजह फिलिस्तीन का‌ वेस्टबैंक, गाज़ापट्टी, गोलनहाइट्स सहित पूर्वी यरूशलेम पर दावा जताना है, लेकिन इज़राइल यरूशलेम पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है, वहीं गाज़ापट्टी पर फिलहाल हमास का क़ब्ज़ा है, जो इज़राइल और मिस्र के बीच में है।

1948 में इज़राइल बनने के‌ बाद भी फिलिस्तीन से उसका संघर्ष जारी रहा। ऐसा माना जाता है कि हमास के गठन के पीछे इज़राइल और पश्चिमी ताकतों का हाथ है। यासिर अराफात के नेतृत्व में बना फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन पीएलओ एक उदारवादी धर्मनिरपेक्ष संगठन था। उसके संगठन में ईसाई सहित अनेक धर्मों के लोग शामिल थे। दुनिया भर में पीएलओ की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर 1970 के दशक में इज़राइल ने फिलिस्तीन के कट्टरपंथी संगठन को उदारवादी फिलिस्तीन नेताओं के विरोध में खड़ा कर दिया गया इसे ही हमास नाम दिया गया, जिसे इज़राइल अब आतंकवादी संगठन मानता है।

हालाँकि हमास की औपचारिक स्थापना 1987 में हुई और बाद में इज़राइल के पूर्व जनरल यित्जाक सेजेव ने इसे इज़राइल की ऐतिहासिक ग़लती बताया। हमास ने फिलिस्तीन के उदारवादी नेतृत्व को धीरे-धीरे किनारे कर ख़ुद फिलिस्तीनी आंदोलन को अपने हाथ में ले‌ लिया। गाज़ापट्टी की क़रीब दो मिलियन आबादी पर हमास का‌ शासन है, जहां से‌ वह लगातार हमले करता रहता है। इसके जवाब में इज़राइल द्वारा किए गए हमलों में अधिकतर आम‌ फिलिस्तीनी ही मारे जाते हैं, क्योंकि गाज़ापट्टी दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक हैं।

वास्तव में बहुत से स्वतंत्र प्रेक्षकों का मानना है कि हमास एक कट्टरपंथी इस्लामी संगठन है, इसने स्वतंत्र फिलिस्तीनी राष्ट्र के संघर्ष को बहुत नुकसान पहुँचाया। हमास के इस हमले में ढेरों विदेशी लोग भी मारे गए हैं, इसमें 10 नेपाली छात्रों सहित अनेक अमेरिकन, आस्ट्रेलियाई तथा यूरोपियन नागरिक भी शामिल हैं। ये चीज़ें इज़राइल और पश्चिम को फिलीस्तीनियों पर हमला करने की वैधता प्रदान करती हैं।

अमेरिका ने इज़राइल को हर तरह की सैनिक और आर्थिक सहायता प्रदान करने की घोषणा की‌ है। एक सूचना यह भी है कि एक एयरक्राफ़्ट कैरियर इज़राइल की मदद करने के लिए मध्य-पूर्व की ओर रवाना हो गया है। इज़राइल ने इस हमले के बाद फिलिस्तीन के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी है। वास्तव में यह हमला 1948 में इज़राइल के गठन के बाद का सबसे बड़ा हमला है।

अगर यह युद्ध आगे बढ़ा, तो इसके क्या वैश्विक परिणाम हो सकते हैं? वह भी देखने की बात होगी। अगर अरब दुनिया को देखा जाए, तो ईरान, सीरिया और लेबनान को छोड़कर किसी भी इस्लामी मुल्क़ ने सीधे-सीधे हमास के आक्रमण का समर्थन नहीं किया है। ईरान के बारे में यह कहा जा रहा है कि हमास के इस हमले की योजना बनाने में उसका सीधा हाथ रहा है। उसी ने हमास को‌ हथियार और प्रशिक्षण भी दिया है। लेबनान में ईरान समर्थित हिजबुल्ला नामक अतिवादी ग्रुप सक्रिय है। उसने भी हमास हमले का समर्थन किया है तथा इज़राइल पर मिसाइलें छोड़ी हैं और रॉकेट से हमला भी किया है, इसके जवाब में इज़राइल ने भी हिजबुल्ला के ठिकानों पर हमले किए हैं। दूसरे अन्य इस्लामी देशों के सामने एक बड़ा संकट पैदा हो गया है कि वे अमेरिका के वैश्विक रणनीति का एक हिस्सा हैं तथा इस्लामी देश होने के कारण फिलिस्तीन का समर्थन करना उनकी मजबूरी भी है।

अमेरिकी प्लान के‌ अनुसार यूएई, बहरीन, मोरक्को तथा सूडान ने‌ इज़राइल को मान्यता दे दी है और सऊदी अरब ने भी इज़राइल को मान्यता देने का निश्चय किया था। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने तो‌ साफ़-साफ़ कहा था, कि "सऊदी अरब इज़राइल को मान्यता दे, इससे अमेरिका को सबसे ज़्यादा फ़ायदा होगा, इसलिए इसके लिए हर मुमकिन कोशिश जारी है।" हमास के इस हमले के कारण इस प्रयास को धक्का‌ लगने‌ की सम्भावना है। वास्तव में कुछ‌ राजनीतिक प्रेक्षकों का‌ यह‌ भी‌ मानना है कि इस हमले का एक कारण मुस्लिम देशों द्वारा इज़राइल से बढ़ते‌ संबंध भी हैं।

वैश्विक स्तर पर आज दुनिया तेज़ी से बदल रही है। एक ओर चीन, रूस और ईरान का एक‌ गुट बन गया है तथा दूसरी ओर अमेरिका, पश्चिमी देश, भारत और इज़राइल का एक और गुट उभर रहा है। मध्य-पूर्व के इस्लामी देश; जिनके पास अपार तेल सम्पदा है, वो भले ही आज फिलिस्तीन के साथ खड़े होने की बात क‌रें, लेकिन वे सुरक्षा कारणों से अमेरिका के साथ खड़े हैं।

अगर इज़राइल तथा अगल-बगल के देशों में संघर्ष बढ़ा, तो स्वेज़ नहर‌ भी बंद हो सकती है, जिससे पश्चिमी देशों में तेल की निर्बाध सप्लाई में बाधा आ सकती है, जैसा कि पहले भी हो चुका है। पहले से ही कोरोना महामारी के कारण भयानक आर्थिक संकट झेल रही दुनिया एक और बड़े आर्थिक संकट‌ में फँस सकती है, इस कारण से अमेरिका भी इस संकट को आगे खींचना नहीं चाहेगा, परन्तु इसके लिए फिलिस्तीन समस्या का एक शान्तिपूर्ण समाधान ज़रूरी है। क्या अमेरिका इसके लिए कोई पहल करेगा? यह अभी भविष्य के गर्त में छिपा हुआ है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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