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मुद्दाः डबल इंजन की सरकार और क़ानून के फेर में उलझा पूर्वांचल के आदिवासियों का हक़

"वन क़ानून में नया संशोधन नियम-2022 लाकर मोदी सरकार ने अंग्रेज़ी हुकूमत को भी पीछे छोड़ दिया है। फिरंगियों ने बक़ायदा क़ानून बनाकर आदिवासियों को जंगल से बेदख़ल करना शुरू दिया था, ताकि वो जंगलों के संसाधनों का इस्तेमाल अपने हितों के लिए कर सकें। अब भाजपा सरकार भी अंग्रेज़ों की तरह काम कर रही है।"
Purvanchal

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में आदिवासी अपने हक़-हक़ूक़ के लिए लामबंद हो रहे हैं। जहां वो सदियों से क़ाबिज़ हैं, उन ज़मीनों का पट्टा उन्हें नहीं दिया जा रहा है। जंगलात महकमा उन्हें न सिर्फ़ खदेड़ रहा है, बल्कि वनोपज निकालने पर ज़्यादती और ज़ुल्म का पहाड़ भी तोड़ रहा है। संविधान की धारा 19 (5) आदिवासियों के अधिकारों की बात करती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक़, आदिवासियों व वनवासियों को सम्मानजनक तरीक़े से ही उनकी ज़मीनों से हटाया जा सकेगा, लेकिन हो रहा है उल्टा। आदिवासियों और वनवासियों का पक्ष जाने बग़ैर ही उन्हें बेदख़ल किया जा रहा है। चाहे वो सोनभद्र, मिर्जापुर हो अथवा चंदौली का नौगढ़ इलाक़ा। शासन का तुग़लकी फ़रमान अब आदिवासियों के ग़ुस्से का सबब बन रहा है और वो सरकारी तंत्र की मनमानी के ख़िलाफ़ लामबंद होने लगे हैं।

वनाधिकार क़ानून के तहत आदिवासियों को उनकी क़ाबिज़ ज़मीनों का पट्टा देने में हीला-हवाली किए जाने से नाराज़ आदिवासियों ने सोनभद्र के दुद्धी स्थित गोंडवाना भवन में आदिवासी-वनवासी अधिकार सम्मेलन का आयोजन किया। सम्मेलन में सोनभद्र के अलावा मिर्जापुर और चंदौली के आदिवासी भी जुटे। सभी ने एक सुर में सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल फूंका। साथ ही भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ जमकर नारेबाज़ी की।

क़ानून के कंधे पर मनुवादी बंदूक

जंगलों में क़ाबिज़ ज़मीन पर आदिवासियों को पट्टा दिलाने की मांग को लेकर मुहिम चला रहे पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड ने कहा, "आदिवासियों को उजाड़ने के लिए क़ानून के कंधे पर अंधाधुंध मनुवादी बंदूक दाग रही है। बड़ा सवाल यह है कि आमतौर पर भाजपा के समय में ही ऐसे आदेश क्यों आते हैं? इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय 30 मई 2002 को आदेश जारी कर आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदख़ल करने का आदेश जारी किया था। कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए मोदी सरकार अब वन संरक्षण नियम-2022 लेकर आई है। दरअसल, आदिवासियों का हक़-हक़ूक़ छीनने के लिए ही इस सरकार ने वन अधिनियम-2006 के नियमों में बदलाव किया है।"

"सरकार की नंगई से डबल इंजन की सरकार का आदिवासी विरोधी चेहरा बेनकाब हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी कर देश के 23 लाख 30 हज़ार आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदख़ल करने का आदेश राज्य सरकारों को दिया है, लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिल रहा है। अटल सरकार के समय आदिवासियों के हितों के ख़िलाफ़ बनाए गए क़ानूनों को तब रद्द किया गया जब वामपंथ के समर्थन से संप्रग सरकार सत्ता में आई। इस सरकार ने वनाधिकार क़ानून-2006 पारित कर 13 दिसंबर 2008 तक वनभूमि पर क़ाबिज़ आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि का मालिकाना हक देने का क़ानून बनाया। आज़ादी के बाद से आदिवासियों और वनवासियों के हित में पारित होने वाला यह सबसे महत्वपूर्ण क़ानून था। भाजपा सरकार के आदिवासी विरोधी रवैये के चलते सालों पुराने क़ानून को आज तक लागू नहीं किया जा सका।"

पूर्व विधायक गोंड ने कहा, "साल 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद दोबारा मनुवादी एजेंडे को लागू किया जा रहा है। इस सरकार ने अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीडऩ निरोधक क़ानून को भी निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की है। डबल इंजन की सरकार ने वनाधिकार क़ानून में बदलाव करके बेशर्मी की सभी हदें पार कर दी हैं। मोदी सरकार की मंशा आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदख़ल कर उनकी रोज़ी-रोटी छीनने की है। वह प्राकृतिक संपदा-जल, जंगल और ज़मीन ही नहीं, बल्कि उस भूमि के नीचे छिपे प्राकृतिक संसाधनों को भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना चाहती है। सत्ता में आते ही भाजपा ने भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 को हटाने के लिए तीन बार कोशिश की। देशव्यापी प्रतिरोध के बाद मोदी सरकार को अपने पांव पीछे खींचने पड़े, लेकिन अब भाजपा की राज्य सरकारें केंद्र के इशारे पर कॉरपोरेट घरानों के आगे बिछ गई हैं।"

आदिवासी वनवासी महासभा के कृपाशंकर पनिका ने आदिवासियों के हक़-हक़ूक़ का मामला उठाते हुए कहा, "सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला अंतर्विरोधों से लबालब है। इंसाफ पाने के लिए लाखों आदिवासियों और वनवासियों ने वनभूमि के लिए दावे पेश किए, लेकिन ज़्यादातर के दावे रद्द कर दिए गए। भाजपा का मनुवादी और आदिवासी विरोधी चेहरा सरकारी नुमाइंदों के कामकाज में भी दिखाई देता है। भाजपा की राज्य सरकारें आदिवासियों को वनभूमि से बेदख़ल कर उनकी ज़मीनों को भू-माफियाओं और कॉरपोरेट कंपनियों को सौंपती जा रही हैं। अधिकांश परियोजनाएं आदिवासी बहुल इलाक़ों में लाई जा रही हैं, ताकि आदिवासियों को मुआवज़ा न देना पड़े।"

जन-जातियों के लिए जल, जंगल और ज़मीन के लिए मुहिम चला रहे कृपाशंकर पनिका ने आदिवासियों का आह्वान किया कि वो अपनी ज़मीन का पट्टा पाने के लिए एकजुट होकर लड़ाई तेज़ करें। एकजुटता से ही वनाधिकार क़ानून बदला जा सकता है और उसकी रक्षा भी की जा सकती है। पनिका ने कहा, "हमें यह समझना होगा कि मोदी सरकार अपने आदिवासी विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के के कंधे पर बंदूक रख कर आदिवासियों और दलितों पर निशाना साध रही है। अब हमें यह युद्ध लडऩा होगा और भाजपा को हराकर सबक़ सिखाना होगा। साल 1927 के भारतीय वन अधिनियम के लागू हुए दशकों गुज़र चुके हैं, जिसका नतीजा यह है कि भारत के सभी हिस्सों में रहने वाले आदिवासी अपनी ही ज़मीनों को अतिक्रमण से मुक्त नहीं करा पा रहे हैं। यही वजह है कि वनों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है और जंगलों पेड़ों की अवैध कटान अंधाधुंध रफ़्तार से जारी है।"

नए वन नियम से बढ़ रही ज़्यादती

इंडियन पीपल फ्रंट (आईपीएफ़) के नेता दिनकर कपूर ने आदिवासियों को संबोधित करते हुए जंगलों में रहने वाली जन-जातियों के मुद्दों को प्रमुखता से उठाया। कहा, "भारतीय वन अधिनियम 1927 और वन संरक्षण क़ानून 1980 का कोई मतलब नहीं रह गया है। अलबत्ता ये क़ानून अब आदिवासियों की राह में वैधानिक चुनौतियां खड़ा कर रहे हैं। ज़रूरत इस बात की है कि वनाधिकार क़ानून-2006 के वैधानिक प्रावधान और भावना के अनुरूप प्रभावी तरीक़े से लागू किया जाए। इस क़ानून के तहत आदिवासी बहुल इलाक़े में ग्राम पंचायतों की अनुमति के बग़ैर कोई परियोजना शुरू नहीं की जा सकती हैं। जंगलों की कटाई तो बिल्कुल संभव नहीं है।"

"कई बार ग्राम पंचायत सदस्यों के जाली दस्तख़त के ज़रिए कॉरपोरेट एजेंसियां जब काम करने पहुंच जाती हैं और जब आदिवासियों को खदेड़ा जाने लगता है तब पता चलता है कि उनके साथ कितना बड़ा खेल हुआ है? नए नियम में मोदी सरकार ने पंचायतों की अनुमति लेने का नियम ही ख़त्म कर दिया है। इसे ही नाम दिया गया है वन संरक्षण नियम-2022।, वन संरक्षण नियम, 2022 के लागू होने पर न सिर्फ़ आदिवासियों के वनाधिकार का हनन होगा, बल्कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई होगी। साथ ही सत्ता में बैठे लोगों के निजी स्वार्थों की पूर्ति और भ्रष्टाचार की संभावनाएं भी बढ़ेंगी। मोदी सरकार का नया नियम साफ़ तौर पर वन अधिकार क़ानून-2006 को ख़ारिज करता है।"

आदिवासी हितों के लिए मुहिम चला रहे राजेश सचान, जनकधारी गोंड, ज़ुबेर आलम, सुकालो गोंड, नागेश्वर गोंड ने कहा, "आज़ादी के बाद आदिवासियों ने अपने वनाधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी। साथ ही यह भी स्थापित करने की कोशिश की थी कि जंगल पर सिर्फ़ उन्हीं का अधिकार है। मुख्य रूप से उन लोगों का जिनकी ज़िंदगी और आजीविका जंगलों के भरोसे चल रही है। मौजूदा समय में देश के उन्हीं इलाक़ों में जंगल बचे हैं, जहां आदिवासियों की बहुलता है। डबल इंजन की सरकार सिर्फ़ यूपी ही नहीं, बल्कि पूरे देश में संसाधनों की लूट, आदिवासियों के विस्थापन और उनके जीवन की बर्बादी का नया मॉडल लेकर आई है।"

"आदिवासियों के विस्थापन और पुनर्वास के मामले में इस सरकार का रिकॉर्ड पहले से बहुत ज़्यादा ख़राब रहा है। आदिवासियों की जीवन शैली और वनों से उनके अटूट संबंध की भरपाई कतई संभव नहीं है। तमाम अध्ययन और शोध से यह साफ़ हो चुका है कि जंगल के आसपास अथवा उनके बीच में रहने वाले आदिवासियों को साथ लाकर लागू की गई योजनाएं जंगल का संरक्षण करने में बेहद कारगर साबित हुई हैं। हमें जंगल बचाने और नए जंगल लगाने का काम करना चाहिए। कुछ कॉरपोरेट घरानों के मुनाफ़े के लिए उठाया गया यह क़दम भारत में रहने वाले हर इंसान के लिए आत्मघाती साबित होने जा रहा है।"

आदिवासी सम्मेलन में सुषमा गोंड और आदिवासी युवा मंच की ज़िलाध्यक्ष रूबी सिंह गोंड़ ने जंगलों में रहने वाले लोगों की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने पर बल दिया। सहकारी समितियों से आदिवासियों को बिना ब्याज क़र्ज़ देने की मांग उठाते हुए सस्ती दरों पर खाद, बीज, सिंचाई सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया। सम्मेलन में आदिवासी वनवासी महासभा के सेवालाल कोल, राजेंद्र सिंह गोंड़ समेत सुदूरवर्ती इलाक़ों से बड़ी संख्या में आए आदिवासी महिलाएं और पुरुष मौजूद थे।

खदेड़े जा रहे आदिवासी

पूर्वांचल में दलित और आदिवासियों के हितों के लिए काम कर रहे एक्टिविस्ट डॉ.लेनिन कहते हैं, "सोनभद्र, चंदौली और मिर्ज़ापुर के जिन जंगलों में आदिवासियों बसेरा था, उसे मुहिम चलाकर मिटाया जा रहा है। जब इन्हें खदेड़ा जाने लगा तो वन माफिया ने घुसपैठ शुरू कर दी। यह सब सुनियोजित तरीक़े से किया जा रहा है। पूर्वांचल के तीनों ज़िलों के जंगलों में आदिवासियों की आठ जातियां रहती हैं जिनमें कोल, खरवार, भुइया, गोंड, ओरांव या धांगर, पनिका, धरकार, घसिया और बैगा हैं। ये लोग जंगलों से तेंदू पत्ता, शहद, जलावन लकड़ियां, परंपरागत औषधियां इकठ्ठा करते हैं और इसे स्थानीय बाज़ार में बेचकर अपनी रोज़ी रोटी का इंतज़ाम करते हैं। कुछ आदिवासियों के पास ज़मीन के छोटे टुकड़े भी हैं, जिन पर धान या सब्ज़ियों की खेती से उनकी ज़िंदगी गुज़रते हैं। मौजूदा समय में अपनी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम करने का बेतरतीब तरीक़ा इनकी ज़िंदगी को समझने के लिए मजबूर करता है।"

"वन क़ानून में नया संशोधन नियम-2022 लाकर मोदी सरकार ने अंग्रेज़ी हुकूमत को भी पीछे छोड़ दिया है। फिरंगियों ने बाक़ायदा क़ानून बनाकर आदिवासियों को जंगल से बेदख़ल करना शुरू दिया था, ताकि वो जंगलों के संसाधनों का इस्तेमाल अपने हितों के लिए कर सकें। अब भाजपा सरकार भी अंग्रेज़ों की तरह काम कर रही है। दुर्भाग्य की बात है कि आज़ादी के बाद से जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को अपने अधिकारों के लिए भारतीय राज्य से लगातार लड़ना पड़ रहा है। चंदौली की सीमाएं जहां बिहार से लगती हैं, वहीं सोनभद्र की मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार व झारखंड से। जंगलों का दायरा तेज़ी से घटना ख़तरे की घंटी है। इसके बावजूद भाजपा सरकार वन संरक्षण के मामलों को गंभीरता से नहीं ले रही है।"

जनवादी नेता अजय राय यह भी कहते हैं, "पूर्वांचल के आदिवासियों के पास जल, जंगल, ज़मीन का नैसर्गिक अधिकार रहा है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि यह सरकार उनसे अभिलेखों की मांग कर रही है। इनकी ग़लत नीतियों का शिकार एक तरफ़ आदिवासी हो रहे हैं तो दूसरी ओर पूर्वांचल का पर्यावरण लगातार बिगड़ता जा रहा है। यूपी की योगी सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि सोनभद्र, मिर्ज़ापुर और चंदौली के जंगलों से ही पीएम मोदी के बनारस का संसदीय इलाक़ा सांस लेता है। यह वो इलाक़ा है जहां लाखों साल पहले आदि मानव हुआ करते थे। कुछ ही बरस पहले यहां आदि मानवों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले औज़ारों की पूरी खेप सोनभद्र से निकाली गई थी। वैज्ञानिकों के मुताबिक़ पुरातात्विक नज़रिए से यह समूचा इलाक़ा विश्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला है। सोनभद्र में ही दुनिया का सबसे प्राचीन फॉसिल्स पार्क भी है, जिसमें स्ट्रोमेतोलाईट श्रेणी के जीवाश्मों का भंडार है, लेकिन खनन का भूत इन बेशक़ीमती पत्थरों को भी तहस-नहस कर रहा है। कई क्षेत्रों में भारी मशीनें लगाकर ज़मीन से बालू निकलने की हवस में जीवाश्मों को भी ज़मींदोज कर दिया गया।"

"न्यूज़क्लिक" से बातचीत में अजय राय कहते हैं, "खनन माफियाओं ने मंत्रियों और अधिकारियों की शाह पर समूची सोन को ग़ुलाम बना दिया है। नतीजा यूपी और बिहार में सोन नदी से सटे तमाम इलाक़ों में खेती चौपट हो ही गई और वन्य जीव अभ्यारण्य का स्वरूप भी छिन्न-भिन्न होता जा रहा है। इसे लेकर जिस तरह का सांगठनिक विरोध होना चाहिए, उसका नितांत अभाव है। जंगलों की जिस प्राकृतिक संपदा को भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारी, सरकार और उनके पूंजीपति मित्र दोनों हाथों से लूटते चले जा रहे हैं, उससे ये जंगल कितने दिन टिक पाएंगे, दावे के साथ कह पाना कठिन है। सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली का नौगढ़ इलाक़ा पहले वन्य जीवों के लिए भी जाना जाता था और वह अब अपनी पहचान खोता जा रहा है। इस इलाक़े के आदिवासियों का जन-जीवन आज भी एक ऐसे क्षेत्र की दास्तान है, जो जंगलों को उजाड़े जाने की कहानियां सुना रहा है। यही हाल रहा तो इस इलाक़े में सिर्फ़ नंगी पहाड़ियां ही देखने को मिलेंगी। आदिवासियों को उनका हक़-हक़ूक़ दिलाने के अलावा जंगलों को बचाने के लिए व्यापक और संगठित सोच वाले आंदोलन की ज़रूरत है, अन्यथा लोग देखते रह जाएंगे और आंखों के सामने ही सब कुछ ख़त्म हो जाएगा।"

आदिवासियों के लिए मांगा न्याय

ऑल इंडिया पीपल्स फ्रंट की ओर से आदिवासी अधिकारों के लिए योगी सरकार को एक और पत्र भेजा गया है। आईपीएफ के संस्थापक सदस्य अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने सरकार को पत्र भेजकर कहा है कि वनाधिकार क़ानून में आदिवासियों को पुश्तैनी वन भूमि दी जाए। चंदौली, सोनभद्र और मिर्ज़ापुर ज़िले के आदिवासी खरवार, चेरो, पनिका जाति का नृजातीय सर्वे करा कर जनजाति का दर्जा दिया जाए। साथ ही पंखा और पनिका जाति को अनुसूचित जाति का जाति प्रमाण-पत्र जारी किया जाए। सोनभद्र के आदिवासी बाहुल्य दुद्धी तहसील में आदिवासी लड़कियों के लिए आवासीय डिग्री कॉलेज, म्योरपुर प्रखंड राजकीय आश्रम पद्धति विद्यालय, मिर्ज़ापुर, सोनभद्र, चंदौली के नौगढ़ इलाक़े को वन बंधु कल्याण योजना में शामिल करते हुए इन जगहों का शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक विकास करने, आदिवासी दलित बच्चों के लिए बड़े पैमाने पर मुफ़्त प्रशिक्षण केंद्र, निःशुल्क नर्सिंग और फ़ॉर्मेसी कोर्स चलाने की मांग की गई है।

अखिलेंद्र ने मांग-पत्र में यह भी कहा है कि आदिवासी-दलित बाहुल्य सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली का नौगढ़ सरकारी उपेक्षा का शिकार रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पेयजल, आवागमन के साधनों की बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। इस क्षेत्र में सामाजिक तनाव का बड़ा कारण भूमि विवाद रहा है। इसी वजह से उभ्भा जैसे नरसंहार कांड हुए। इसके समाधान के लिए बने वनाधिकार क़ानून को सरकारों ने विफल कर दिया।

आईपीएफ़ की पहल के बाद सोनभद्र और चंदौली में वनाधिकार के दावों का पुनः परीक्षण कराया जा रहा है, लेकिन मिर्ज़ापुर में हाईकोर्ट के आदेशों की अनदेखी की जा रही है। यूपी में कोल आदिवासियों की बहुत बड़ी आबादी है। इन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा न मिलने से वो वन भूमि से वंचित हो रहे है और शैक्षणिक संस्थाओं व सरकारी सेवाओं में भी उन्हें यथोचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है। साल 2013 में राज्य सरकार ने नृजातीय सर्वे के साथ कोल को जनजाति का दर्जा देने का प्रस्ताव जनजाति कल्याण मंत्रालय भारत सरकार को भेजा था, लेकिन आज तक इस बारे में सरकार ने सार्थक क़दम नहीं उठाया। भारी उपेक्षा और न्याय नहीं मिलने पर आदिवासी समुदाय गोलबंद होकर दोबारा उसी रास्ते पर जा सकता है, जिस पर कुछ साल पहले चलने लगा लगा था।

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