Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

जोरम: आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन से जुड़े सवाल उठाती फ़िल्म

फ़िल्म जोरम 2023 की उन फ़िल्मों में शुमार होगी जो हमेशा इसलिए याद रखी जाएगी कि जिस दौर में संसद तक में सवाल उठाना मुश्किल था उस दौर में ये फ़िल्म कई सवाल उठाती है।
Joram
फ़ोटो साभार : BookMyShow

तीन महीने की बेटी जोरम को सीने पर साड़ी से बांधे दसरु (मनोज बाजपेयी)  पुलिस से बचते हुए दौड़ता है और दौड़ते-दौड़ते जंगल में पहुंच जाता है। और यही फ़िल्म का क्लाइमैक्स है। जल, जंगल, ज़मीन की बात करने वाला, उन्हीं में रहने वाला, उसी को बचाने की लड़ाई लड़ने वाला एक आदिवासी लौट कर उन्हीं जंगलों में गायब हो जाता है। अगर सोचा जाए तो और क्या हो सकता था इस फ़िल्म का क्लाइमैक्स सीन? आख़िर क्यों जोरम फ़िल्म को एक ऐसे अंत पर छोड़ दिया गया जहां से देखने वाले सोचना शुरू करें, शायद ये फ़िल्म यही चाहती थी कि देखने वाले कुछ सोचें और सोचते हुए घर लौटें। 

लेकिन अजीब इत्तेफाक है कि इस फ़िल्म को देखने के लिए जब हमने दिल्ली के सिनेमा हॉल में टिकट तलाश करने की कोशिश की तो हमें दिल्ली के किसी भी सिनेमा हॉल में ये फ़िल्म नहीं दिखी, गुड़गांव और नोएडा के सिनेमा हॉल में फिर भी ये फ़िल्म लगी थी लेकिन देश की राजधानी दिल्ली के मल्टीप्लेक्स में इस फ़िल्म के लिए जगह नहीं थी। क्यों? ये भी एक सवाल है। ये फ़िल्म सोचने पर मजबूर करती है कि क्यों देश का एक आम आदमी मनोरंजन के नाम पर जोरम देखेगा, और फिर सोचने पर मजबूर होगा? क्यों वो उन सवालों के जवाब तलाश करने की कोशिश करेगा जो इस फ़िल्म में उठाए गए हैं? 

दसरु गांव लौटा तो गांव ही नहीं था

दसरु जब झारखंड के झिनपिड़ी से भागा था तो उसके साथ उसकी पत्नी वानो (तनिष्ठा चटर्जी) थी लेकिन जब जान बचाने के लिए ही वो वापस लौटता है तो पत्नी साथ नहीं है बस बेटी है जोरम, जिसे उसने उस नीली साड़ी से शरीर पर बांधा है जिसे उसने पत्नी की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए खरीदा था। दसरु जब अपने गांव लौटा तो सोती हुई बेटी जोरम से बात करते हुए कहता है कि '' ऐ जोरम, अपना गांव देखेगी, बड़ा-बड़ा पेड़ हुआ करता था जोरम, यहां कहीं नदी भी था, डैम बनाकर गुमा दिए होंगे, यहां तक आता था नदी, छह बरस से तुम्हार माई कहत रही, वापस चलना है, नदी में नहाना है, आ गए वापस'' 

जिस गांव में वापस आने की तमन्ना करती हुई वानो इस दुनिया से चली गई वो गांव भी दसरु को दिखाई नहीं दिया, गांव बदल गया या कहें कि गायब ही हो गया, जिस गांव के पेड़ों पर झूला डाल वानो झूला झूलती थी और दसरु सामने बैठे गाना गाता था ' झूमे रे महुआ के फूल, झूमे रे पलाशे फूल' उस गांव की जगह ले ली, प्रगति स्टील कंपनी ने जिसकी वजह से नदी गायब थी और दूर तक उड़ती धूल दिखाई दे रही थी, बड़े बड़े टावर में से मकड़ी के जालों से दिखाई देता कटा-फटा टुकड़ा-टुकड़ा सा आसमान रह गया था। 

जल, जंगल, ज़मीन की बात करती है फ़िल्म 

फ़िल्म जोरम 2023 की उन फिल्मों में शुमार होगी जो हमेशा ही इसलिए याद रखी जाएगी कि जिस दौर में संसद तक में सवाल उठाना मुश्किल था उस दौर में ये फ़िल्म कई सवाल उठाती है, ये फ़िल्म आदिवासियों की बात करती है, ये फ़िल्म जल, जंगल और ज़मीन के मुद्दे के इर्द-गिर्द बुनी गई है। ये फ़िल्म प्रवासी मजदूरों की कहानी है, ये फ़िल्म नक्सलियों और पुलिस के बीच फंसे भोले-भाले आदिवासियों की है। यह मुद्दा उठाने के लिए इसके लेखक और निर्देशक देवाशीष मखीजा की तारीफ़ करनी होगी।

प्रवासी मज़दूरों की बात करती है फ़िल्म 

फ़िल्म के कई सीन, कई डायलॉग इतने सशक्त हैं कि ज़ेहन में हलचल पैदा कर देते हैं, गांव की ज़मीन को बचाने के लिए कुछ समय के लिए नक्सलियों के साथ मिल गया दसरु जब बेरहमी से की गई हत्या को देखता है तो उसका मन खिन्न हो जाता है और गांव छोड़कर मुंबई चला जाता है, जंगल का एक आदमी मुंबई शहर के जंगल में ख़ुद को गुम सा पाता है। 

दसरु ने लकड़ी में कील ठोक कर जान लेने का हथियार बनता देखा था, मुंबई में कंस्ट्रक्शन साइट से बटोर कर लाई गई लकड़ियों से कील निकाल कर जब वो खाना बनाने के लिए चूल्हा जलता है तो वहां जिस सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल किया गया है वो लगता है जैसे किसी ने आपके ही ज़ेहन में कील ठोंक दी हो और सवालों की नदी में फेंक दिया हो और ये तय करना समझ से परे लगता है कि तैरना है या फिर डूब जाना है। 

फ़िल्म की कहानी 

दसरु और उसकी पत्नी वानो झारखंड के एक गांव में रहते हैं और वहां पहुंचता है प्रगति स्टील कंपनी का 'विकास'। कंपनी गांव की ज़मीन को किसी भी तरह से अपने कब्जे में लेना चाहती है और इसमें मदद करता है पहले आदिवासी MLA बाबूलाल कर्मा का बेटा माडवी, लेकिन नक्सलियों ने गांव में जनसभा कर माडवी की हत्या कर दी। कंपनी को बताने के लिए कि वे अपना गांव अपनी ज़मीन नहीं छोड़ने वाले, नक्सलियों की इस जनसभा में दसरु भी शामिल था, लेकिन ये सब देखकर दसरु का मन विचलित हो जाता है और वो अपनी पत्नी के साथ मुंबई चला आता है और यहां वो एक दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने लगता है, लेकिन सालों बाद फूलो कर्मा ( बाबूलाल कर्मा की पत्नी और माडवी की मां ) मुंबई पहुंच जाती है और दसरु को पहचान लेती है। यहां दसरु की पत्नी वानो की हत्या हो जाती है जबकि दसरु को भी मारने की कोशिश की जाती है, लेकिन किसी तरह वो बच जाता है और इसके बाद शुरू होता है जान बचाकर भागने का एक सिलसिला, दसरु तीन महीने की बच्ची जोरम के लिए अपनी जान की भीख मांगने के लिए दोबारा झारखंड की तरफ रुख करता है उसे लगता है कि अगर वो फूलो कर्मा से माफी मांग लेगा तो उसकी जान बख़्श दी जाएगी। तो कहानी वहीं पहुंच जाती है जहां से शुरू हुई थी। 

आदिवासी और पुलिस का व्यवहार

दसरु जब मुंबई भागता है तो उसे माओवादी घोषित कर दिया जाता है, और जब वो मुंबई से झारखंड भाग कर आता है तो उसके पीछे मुंबई पुलिस के एक अधिकारी रत्नाकर ( मोहम्मद जीशान अय्यूब) को भी भेजा जाता है। और फिर दिखाई देती है पुलिस स्टेशन में ही क़ानून की धज्जियां उड़ती हुई, वहां दिखाई देता है कि नाबालिग आदिवासियों को जेल में डाला गया है हथियार रखने के जुर्म में और वो हथियार हैं तीर-धनुष। यहां पुलिस अधिकारी रत्नाकर और लोकल पुलिस वाले की बातचीत बताती है कि आदिवासी इलाकों में पुलिस किस माइंडसेट के साथ काम करती है। 

लोकल पुलिस - का लेंगे? 

रत्नाकर- बैकअप के लिए कुछ ऑफिसर 

लोकल पुलिस - का लेंगे बताइए ना

रत्नाकर- ये आदमी( दसरु) माओवादी हो सकता है हमारे पास इन सब चीज़ों के लिए टाइम नहीं है 

लोकल पुलिस- अरे, सर इस जिला में हर दूसरा माओवादी ही है, और नहीं है तो वो क्या बोलते हैं उसको sympathizer ( हमदर्द) ज़रूर है।

महिला कैदी गृह में नाबालिग लड़कों को रखा जाना, धारा 144, धनुष-बाण को हथियार मानना, UAPA और ऊपर से ऑर्डर जैसी बातें सुनते हुए तय करना मुश्किल हो रहा था कि ये फिक्शन है या फिर आदिवासी इलाकों का हाल। 

''ऐसा कोई आदिवासी पैदा ही नहीं हुआ है कि जिसे बंदूक उठाने का शौक हो''

फ़िल्म में एक जगह दसरु और पुलिस के लिए मुखबिरी करने वाले दसरु के जान पहचान के आम आदिवासी के बीच बातचीत है जिसमें वे कहता है कि '' हम क्या करें, पुलिस की मदद ना करो तो वो Sympathizer बोलकर जेल में डालते हैं, और माओवादियों की मदद ना करो तो वो सरकार का आदमी बोल कर उल्टा लटका देते हैं, दोनों तरफ से हम ही तो मर रहे हैं, हमारे पास तो कोई चारा नहीं है '' यही मजबूरी कुछ और विस्तार से मुंबई से पहुंचे पुलिस अधिकारी रत्नाकर और लोकल पुलिस वाले की बातचीत में दिखाई देती है जब लोकल पुलिस अधिकारी कहता है कि '' ऐसा कोई आदिवासी पैदा ही नहीं हुआ है कि जिसे बंदूक उठाने का शौक हो, कौन जाने क्या मजबूरी थी दसरू की, क्योंकि मजबूरी तो हमरा भी था, वर्ना हम भी उसकी तरह वर्दी में होते, कौन सी वर्दी जायज है, कौन सा नाजायज यही तय करते-करते और सौ साल बीत जाएगा''। 

फ़िल्म में कई ऐसे संकेत हैं जो ख़ामोशी से अपना रोल निभा रहे थे जैसे दीवार पर लिखा एक स्लोगन '' आदिवासी को मिट्टी में मिलाने वालों, तुझे पता नहीं कि वो बीज हैं'' इसी तरह बड़े पत्थर (पत्थलगड़ी) पर 'भारत का संविधान' और पांचवी अनुसूची के बारे में जानकारी लिखी गई है। 

( जोरम फ़िल्म का एक सीन ) साभार: मनोज बाजपेयी के इंस्टाग्राम से 

मनोज बाजपेयी का दमदार अभिनय 

फ़िल्म में गाने तो नहीं हैं लेकिन नगाड़े और मांदर की थाप पर आदिवासियों के वो गीत है जिसमें वे गा रहे हैं '' जंगल नहीं देंगे, गांव नहीं देंगे हमारा'' बात करें एक्टिंग की तो मनोज बाजपेयी किसी सर्टिफिकेट के मोहताज नहीं हैं, हमेशा की तरह उनकी ख़ामोशी की भी एक जुबान होती है, और वो खामोशी इस फ़िल्म में ख़ूब चीखती नज़र आ रही है। सच के क़रीब एक आम आदमी, एक मजदूर, एक आदिवासी जब कहता है कि ''हम तो यहां दो हज़ार साल से रहते आ रहे हैं'' लगता है फिर कौन इन आदिवासियों को इनकी ज़मीन से हटा सकता है, कौन इनके जंगल छीन सकता है। और जिस तीन महीने की बच्ची जोरम के नाम पर इस फ़िल्म का नाम रखा गया है वो भी जब अपनी मासूम आंखों से अपने बेबस पिता को देखती है तो फ़िल्म इंसानी एहसास को बयां करने में कामयाब दिखती है। फ़िल्म बच्ची जोरम के नाम पर शायद इसलिए रखी गई होगी क्योंकि आदिवासी जल, जंगल और ज़मीन को अपनी आने वाली नस्लों के लिए ही बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं और उनके इस संघर्ष में कई बार मासूम आदिवासियों को जेल में डाल दिया जाता है तो कई को जान से हाथ धोना पड़ता है।  

ये फ़िल्म भले ही कई करोड़ की कमाई वाले क्लब में शामिल हो पाए या नहीं लेकिन ढेरों अंतरराष्ट्रीय अवार्ड और तारीफ बटोर चुकी है लेकिन अब देखना होगा कि साल की सबसे बेहतरीन फ़िल्म में से एक जोरम अपने लिए नेशनल अवार्ड का रास्ता बना पाती है या फिर उसे आदिवासियों का मुद्दा उठाने की वजह से किनारे लगा दिया जाएगा। 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest