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महाराष्ट्र में जंगल अकाल, मगर क्यों नहीं हो रही आदिवासियों की आजीविका पर बात?

महाराष्ट्र में ही आदिवासियों की आजीविका वनोपज संकट में है, फिर क्यों इसे संकट नहीं माना जा रहा है, जबकि यहां कुछ वर्षों में जंगल भी सूखा और भारी बारिश से प्रभावित हुए हैं।
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तेंदुपत्ता आदिवासी परिवारों की आजीविका की प्रमुख धुरी है। लेकिन, तेंदुपत्ता सहित कई वनोपज की पैदावार में कमी उनके लिए बड़ा संकट है। साभार: टाइम्स ऑफ इंडिया

केसरी मातामी रहनार पुसेर गांव से हैं, जो जिला गढ़चिरौली में आता है। उनके मुताबिक, “इस साल अप्रैल-मई महीने में बेमौसम बारिश के कारण तेंदू के पत्ते नहीं खिले। अपर्याप्त गर्मी के कारण पुरानी पत्तियां नहीं गिरीं। नतीजा, पैदावार आधी घट गई। मजदूरी तो आधी से भी ज्यादा घट गई।" लेकिन, सवाल है कि आदिवासी अंचलों में वनोपज प्रभावित हुई है और इसका असर उनकी आजीविका तथा आर्थिक स्थिति पर पड़ना तय है तो फिर इस बारे में बात क्यों नहीं हो रही है?

खेती किसानों की आजीविका है, उस पर आए संकट को संकट माना जाता है और इस लिहाज से महाराष्ट्र में खेती का संकट राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहता है। लेकिन, महाराष्ट्र में ही आदिवासियों की आजीविका वनोपज संकट में है, फिर क्यों इसे संकट नहीं माना जा रहा है, जबकि यहां कुछ वर्षों में जंगल भी सूखा और भारी बारिश से प्रभावित हुए हैं। लेकिन, राज्य सरकार के पास इस तरह की स्थितियों से निपटने के लिए कोई नीति और योजना नहीं है।

इस वर्ष भी राज्य विदर्भ के वन क्षेत्रों में बेमौसम बारिश के कारण तेंदूपत्ता, महुआ फूल और महुआ फल की मात्रा कम हो गई, ऐसी रिपोर्ट कई ग्रामसभाओं से मिली है।

संकट में आदिवासियों के उत्पाद

देखा जाए तो महाराष्ट्र के विदर्भ, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के वन क्षेत्रों में 200 से अधिक प्रकार के वन उत्पाद हैं और ये इन उत्पादों के प्रमुख व्यापारिक केंद्र भी हैं। आदिवासियों और अन्य वन अधिकार धारकों की अर्थव्यवस्था कृषि के साथ-साथ तेंदू पत्ते और महुआ के फूलों आदि के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन जब गंभीर सूखा और बेमौसम बारिश होती है तो उत्पादन घट जाता है। वनोपज की पैदावार का घटना इस मामले में भी गंभीर मुद्दा है कि आदिवासियों के लिए जंगल आज भी उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत है तो यह फिर अनदेखी क्यों?

सूखा, भारी बारिश, बेमौसम बारिश और ओला पड़ने जैसी कई प्राकृतिक आपदाओं के कारण किसानों को भारी नुकसान होता है। वहीं, इन सभी प्राकृतिक आपदाओं का असर वन क्षेत्र पर भी पड़ता है। यह अलग विषय है कि इसे लेकर ज्यादा अध्ययन नहीं किया गया है। जाहिर है कि कृषि के साथ-साथ वन क्षेत्र भी उतना ही प्रभावित होता है। जंगल में रहने वाले आदिवासी बता रहे हैं कि इस वर्ष विदर्भ के वन क्षेत्रों में बेमौसम बारिश के कारण तेंदूपत्ता और महुआ की पैदावार 50 प्रतिशत प्रभावित हुई है। ऐसा है तो यह कोई साधारण समस्या नहीं कही जा सकती है।

बेमौसम बारिश से पड़ी रोजीरोटी पर मार

इस समस्या को बारिश से जुड़े आंकड़ों के आधार पर भी समझा जा सकता है। क्षेत्रीय मौसम विज्ञान केंद्र, नागपुर की मासिक रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरे विदर्भ उपमंडल में मई, 2023 में सामान्य 9.9 मिमी और 439 प्रतिशत वर्षा के मुकाबले 53.2 मिमी वर्षा दर्ज की गई। इस अंचल के सभी 11 जिलों में कई बार बेमौसम बारिश हुई। इस वर्ष जनवरी से मई के बीच बारिश के दिनों की कुल संख्या 24 थी। इसी अवधि के दौरान चक्रवात भी आया था।

2023 के पहले चार महीनों में राज्य में 120 दिनों में से 84 दिनों तक प्रतिकूल मौसम का रिकार्ड दर्ज किया गया। इसी वर्ष जनवरी और अप्रैल के बीच प्रतिकूल मौसम से जुड़ी हुईं घटनाओं ने महाराष्ट्र सहित देश भर के 33 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में दूर-दूर तक अपना असर दिखाया। इस दौरान यह देखा जा रहा है कि हर साल ऐसे दिनों की संख्या बढ़ रही है जब अत्यधिक गर्मी, अनिश्चित बरसात और ओलावृष्टि होती है। जाहिर है ऐसी स्थिति में जब न खेती बेअसर हो सकती थी और न वनोपज की पैदावार तो दोनों क्षेत्रों की आजीविका प्रभावित होनी ही थी। लेकिन, नीति और योजना में खेती के संकट को तो प्राथमिकता दी गई, जबकि वनोपज के संकट पर नजर फेर ली गई।

आठ वर्ष पहले भी आया था संकट

इससे पहले वर्ष 2014 और 2015 के मार्च और अप्रैल महीने के दौरान बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से देश के कई हिस्सों में रबी और बागवानी फसलों को भारी नुकसान हुआ था। इससे वनोपज भी अछूते नहीं रहे थे। वहीं, वर्ष 2016 में भारत मौसम विज्ञान विभाग, पुणे ने 1981 से 2015 तक 35 वर्षों के दौरान भारत के चार निकटवर्ती क्षेत्रों में ओलावृष्टि का विस्तृत विश्लेषण किया। इसका उद्देश्य ओलावृष्टि से संबंधित मौसम संबंधी और अनुकूल पहलुओं का अध्ययन करना था। साथ ही, इसका एक दूसरा उद्देश्य समय पर पूर्वानुमान और कृषि सुझावों से जुड़ी सूचनाओं को साझा करना भी था।

इस विश्लेषण के मुताबिक महाराष्ट्र में 35 वर्षो के दौरान ओलावृष्टि की दर और दिनों में बढ़ोतरी हो रही है। वहीं, अध्ययन से यह भी पता चला कि देश के अन्य राज्यों की तुलना में महाराष्ट्र में ओलावृष्टि की आशंका सबसे अधिक है। महाराष्ट्र के मुकाबले गुजरात, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, त्रिपुरा, मेघालय, सिक्किम और नागालैंड में ओलावृष्टि की आशंका कम है। इस अध्ययन से सामने आई जानकारी फसल के नुकसान को कम करने में उपयोगी साबित हो सकती थी। लेकिन, इस जानकारी से न सबक लिया गया और न ही इसके आधार पर संकट को कम करने के लिए कोई रणनीति तैयार की गई।

नकदी की कमी बढ़ाएगी मुसीबत

आदिवासी प्रतिदिन लगभग आठ घंटे तक वनोपज एकत्रित करते हैं और शाम को संग्रह का जायजा लेते हैं। हालिया घाटा उनके लिए मुश्किल होने वाला है। वजह है कि उन्हें सरकारी खाद्य आपूर्ति योजना से चावल तो मिलता है, लेकिन पोषण के लिए यह पर्याप्त नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वनोपज से उन्हें नकद पैसा मिलता है जिसकी जरूरत उन्हें शादियों, बीमारियों और धान की रोपाई के लिए बीज खरीदने के लिए होती है। लेकिन, वर्ष 2016 और 2023 में वनोपज की कमी के कारण आदिवासियों के जीवन पर भारी मार पड़ी है।

दूसरी ओर, देश में कई गांव वन क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। 'वन अधिकार अधिनियम 2006' और 'भारतीय जनजातीय मंत्रालय' की मार्च 2023 की रिपोर्ट के अनुसार व्यक्तिगत वन अधिकार की श्रेणी में 21 लाख 99 हजार 12 परिवारों को 46 लाख 57 हजार 605 एकड़ भूमि आवंटित की गई है। एक लाख ग्राम सभाओं को सामूहिक वन अधिकार दिए गए हैं। इसमें से एक करोड़ 29 लाख एकड़ जमीन आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को दी गई है।

30 करोड़ से अधिक आदिवासी और अन्य पारंपरिक वन निवासी जंगलों पर निर्भर हैं और यह 6,000 करोड़ रुपए अर्थव्यवस्था है। वनोपज उनकी वार्षिक आय का 40 प्रतिशत और उनकी खाद्य आवश्यकताओं का 25-50 प्रतिशत योगदान देती है। इसके बावजूद, देश के एक विकसित राज्य की सरकार की सूखा प्रबंधन नीति जंगलों में सूखे और बेमौसम बारिश को ध्यान में नहीं रखती है और इससे होने वाले नुकसान की भरपाई नहीं करती है।

इन जिलों पर सबसे ज्यादा पड़ी मार

इस वर्ष विदर्भ में तेंदू पत्ता संग्रहण नागपुर जिले में 50 प्रतिशत, गोंदिया जिले में 35 प्रतिशत और गढ़चिरौली जिले में 50 प्रतिशत रहा। साथ ही इस वर्ष बेमौसम बारिश के कारण महुआ फूलों का संग्रहण भी 50 प्रतिशत से कम रहा। महुआ वृक्ष से फलों का उत्पादन भी 50 प्रतिशत से कम रहा।

हालांकि सूखा प्रबंधन के लिए गठित अधिकांश आधिकारिक समितियों में वन विभाग का प्रतिनिधित्व है, लेकिन सूखा प्रबंधन नीति के तहत वन क्षेत्रों में सूखे के लिए कोई प्रावधान नहीं हैं। जाहिर है कि जब वन क्षेत्रों में सूखा और बेमौसम बारिश का सीधा असर वहां के जल विज्ञान पर पड़ता है, फिर क्यों वन क्षेत्रों में सूखे का कोई अलग वर्गीकरण नहीं है, जबकि औपचारिक सूखा प्रबंधन योजनाओं में वन क्षेत्र में सूखे को शामिल करना बहुत महत्वपूर्ण है।

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