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मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में पेसा कानून के कार्यान्‍वयन पर सवाल, क्यों नाराज़ हैं आदिवासी?

''एक तरफ सरकार पेसा कानून में ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने, अधिकार देने, गांव में किसी भी तरह के जमीन अधिग्रहण से पहले ग्राम सभाओं की अनुमति को अनिवार्य बताती है और दूसरी ओर हम आदिवासियों को बेघर करने के आदेश पारित किए गए हैं।'’
Panchayats Extension to Scheduled Areas
फ़ोटो साभार : गूगल

मध्यप्रदेश में यह कानून 15 नवंबर 2022 को राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू की मौजूदगी में लागू हुआ था जबकि छत्तीसगढ़ में पेसा कानून को लागू हुए 9 अगस्त को एक वर्ष पूरा हो चुका है। लागू होने के समय वाकई इस कानून ने दोनों ही राज्यों के आदिवासियों के जीवन में कई उम्मीदों जगा दी थीं।

क्‍या है पेसा कानून?

पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज एक्ट(PESA)—1996 अर्थात पेसा कानून। यह ऐसा कनून है, जो आदिवासी क्षेत्रों में अधिसूचित ग्राम सभाओं को वन क्षेत्रों में सभी प्राकृतिक संसाधनों के संबंध में नियमों और विनियमों पर निर्णय लेने का अधिकार देता है।

आदिवासियों ने सोचा था कि पेसा कानून लागू होने से अब उनका गांव और उनकी गांव सरकारें मजबूत होंगी। गांव के विकास के निर्णय बाहर से नहीं थोपे जाएंगे बल्कि वे स्वयं ले सकेंगे। जल, जंगल, जमीन पर उनका अधिकार होगा। सामाजिक, आर्थिक विकास में उनकी सहभागिता बढ़ जाएगी। आज हकीकत यह है कि बीते इस एक वर्ष में पेसा कानून आदिवासियों की इन उम्मीदों को पूरा करता नहीं दिख रहा है।

मध्यप्रदेश के मंडला जिले का ताजा उदाहरण लेते हैं। यहां आदिवासी समाज के हजारों लोग सड़क पर है। ये जगह—जगह बैठकें, जनसभाएं और रैलियां कर रहे हैं। 12 सितंबर को 31 गांव के आदिवासी महिला—पुरुष एक जगह जुटे थे और रैली के रूप में मंडला जिला मुख्यालय पहुंचे थे। यहां नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के कार्यालय का घेराव किया था।

ऐसा क्यों करना पड़ा, इस सवाल के जवाब में आदिवासी बीएल सरवटे कहते हैं, ''एक तरफ सरकार पेसा कानून में ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने, अधिकार देने, गांव में किसी भी तरह के जमीन अधिग्रहण से पहले ग्राम सभाओं की अनुमति को अनिवार्य बताती है और दूसरी ओर हम आदिवासियों को बेघर करने के आदेश पारित किए गए हैं।'’

वह आगे कहते हैं, ''नर्मदा नदी पर बसनिया—ओढ़ारी बांध प्रस्तावित है। मंडला कलेक्टर ने 31 अगस्त 2023 को उक्त बांध के लिए भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना जारी की है। इस बांध से मंडला और डिंडौरी जिले के 31 गांव के हजारों आदिवासी, उनकी जमीन, पेड़—पौधे डूब जाएंगे। विस्थापन के नाम पर वे तहस—नहस हो जाएंगे। जिंदगी खानाबदोश बनकर रह जाएगी।

इन 31 गांव वालों ने मिलकर बसनिया—ओढ़ारी बांध के खिलाफ संघर्ष समिति बनाई है। उसी समिति में बीएल सरवटे सक्रिय सदस्य हैं। वह कहते हैं कि 31 गांव वालों को सरकार ने पेसा कानून के नाम पर धोखा दिया है क्योंकि कानून में इस बात का प्रावधान है कि उनकी सहमति और ग्राम सभा के बिना उनके गांव, क्षेत्र में जमीन अधिग्रहण हो ही नहीं सकती। वह याद दिलाते हुए कहते हैं कि एक वर्ष पहले 15 नवंबर 2022 को शहडोल जिले की धरती से राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू की मौजूदगी में यह वादा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया था। तब भी हमारे ऊपर बांध को थोपा जा रहा है। इसके लिए किसी तरह की कोई ग्राम सभा नहीं कराई और न ही अनुमति ली गई।'’

पेसा कानून के उल्लंघन का यह अकेला उदाहरण नहीं है, बल्कि अलीराजपुर में भी कई गांव के आदिवासी नाराज हैं। ये 6 सितंबर को जोबट एसडीएम कार्यालय का घेराव कर चुके हैं। आदिवासी शंकर तड़वाल व लाल सिंह डावर बताते हैं कि जोबट तहसील के 35 गांवों में अधिकारियों की टीम खनन करके खनिज का पता कर रही है। डाबड़ी गांव में भी हाल ही में जांच करने वाली टीम पहुंची थी। जिसे ग्रामीणों ने खदेड़ा है।

सरकार चोरी—छुपे ग्रामीण क्षेत्रों में खनिज संपदा का पता लगा रही है। यह काम लंबे समय से चल रहा है। ग्रामीणों को भरोसे में नहीं लिया जा रहा है। ग्राम सभा से किसी तरह की कोई अनुमति नहीं ली गई है और काम किया जा रहा है। यह गलत है और आदिवासी समाज इसको लेकर आवाजें भी उठा रहा है।

आदिवासी मामलों के जानकार रामा काकोड़िया कहते हैं कि सरकार ने मध्यप्रदेश में आदिवासियों को पेसा कानून के तहत परंपरागत पद्धति से गांव के छोटे-मोटे विवादों का निराकरण करने, किसी भी प्रोजेक्ट, बांध या किसी काम के लिए गांव की जमीन देने या नहीं देने का निर्णय लेने जैसे कई बड़े अधिकार देने की घोषणा की थी। इनमें से किसी का भी पालन नहीं हो रहा है।

यहां तक कि गंभीर अपराधों को छोड़कर मामूली अपराधों पर ग्राम सभाओं को निपटारा संबंधी निर्णय लेने जैसे बिंदू का पालन नहीं हो रहा है। क्षेत्र की पुलिस ऐसे मामलों में ग्राम सभाओं की चिंता किए बिना सीधे मुकदमें दर्ज कर रही है। जिसकी वजह से ग्रामीणों पर अपराध के मामले बढ़ रहे हैं। आदिवासी समाज पहले जिस हाशिये पर खड़ा था, आज भी वह वहीं खड़ा है।जमीनी स्तर पर पेसा कानून पर अमल ही नहीं हो रहा है।

आदिवासी हितों की बात करने वाली कांग्रेस की छत्तीसगढ़ सरकार से भी आदिवासी नाराज

ऐसा नहीं कह सकते कि मध्यप्रदेश की भाजपा शासित सरकार इस कानून पर अमल नहीं करवा पा रही है बल्कि यही हाल कांग्रेस शासित सरकार वाले पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ की सरकार का है। यहां से कांग्रेस में कभी केंद्रीय मंत्री रहे छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के संरक्षक अरविंद नेताम भी स्वीकारते हैं कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार पेसा कानून का पालन नहीं करवा पा रही है। पहले से लेकर वर्तमान स्थिति में रेत के ठेके गैर आदिवासियों को उनकी मर्जी के खिलाफ दिए जा रहे हैं। इसमें आदिवासी बाहुल्य पंचायतों की कोई भूमिका ही नहीं है। जल, जंगल और जमीन के अधिकार को शिथिल कर दिया है जो आदिवासियों के हितों की रक्षा कर पाने में निष्क्रिय की तरह हो गया है।

छत्तीसगढ़ में इस समय कांग्रेस की सरकार है। अरविंद नेताम भी कांग्रेस के बड़े आदिवासी नेताओं में गिने जाते थे। वह पूर्व केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। हाल ही में 9 अगस्त 2023 को विश्व आदिवासी दिवस पर उन्होंने कांग्रेस से त्याग पत्र दिया है। वह फिलहाल किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी में नहीं है। केवल आदिवासी हितों पर काम कर रहे हैं और बेबाकी से बोल रहे हैं।

वह कहते हैं कि कांग्रेस की तत्कालीन केंद्र सरकार ने पेसा अधिनियम 1996 कानून लागू किया था और राज्यों को अपने अपने—अपने राज्यों के अनुरूप लागू करने की छूट दी थी। सबसे पहले 6 राज्यों हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र ने पेसा कानून बनाए थे।

वह कहते हें कि मध्यप्रदेश में तो भाजपा की सरकार है, वह इस कानून का जमीनी स्तर पर पालन क्यों नहीं करवा पा रही है, इसकी वजह तो सरकार के लोग ही जानते होंगे लेकिन छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस की सरकार है, तब भी आदिवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी मामलों के जानकार उदय सिंह पंद्राम भी मानते हैं कि जिस गांव में देखो, वहीं पेसा कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही है। चाहे रेत खदानों की नीलामी का मामला हो या अपराध से जुड़े किसी मामले को आपस में सुलझाने की बात हो। कहीं पेसा कानून काम नहीं आ रहा है।

वरिष्ठ पत्रकार और आदिवासी मामलों के जानकार के.आर; शाह कहते हैं, ''दोनों ही राज्यों में पेसा कानून के तहत दिए गए अधिकार आदिवासी समाज को नहीं मिल रहे हैं। उनकी जमीनें धीरे—धीरे कर निजी हाथों में जा रही है, वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं। बांध बनाने की बात हो या, किसी अन्य प्रयोजन के लिए उनकी जमीन लेने की बात, उनकी सहमति अथवा असहमति का कोई वजूद नहीं है। वह मानते हैं कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कई उदाहरण है। कहने भर के लिए आदिवासियों को पेसा कानून मिला है लेकिन वास्तव में यह कानून क्या है, इसके बारे में ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासियों को ज्यादा जानकारी नहीं है।'’

छत्‍तीसगढ़ में पेसा कानून के प्रारूप को लेकर भी आदिवासी नाराज

यहां के आदिवासी पेसा कानून के प्रारूप को लेकर शुरू से ही नाराज चल रहे हैं। समाज के लोगों का आरोप रहा है कि इस कानून में न सिर्फ उनके अधिकारों में कटौती की गई बल्कि उसे कमजोर भी किया है।

छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के संरक्षक और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम यह भी मानते हैं कि पेसा कानून की मूल भावना को कमजोर करके लागू किया है। यह कानून कहता है कि किसी भी परियोजना के लिए किए जाने वाले जमीन अधिग्रहण से पहले प्रभावित होने वाली पंचायत की सहमति जरूरी है, जिसे बदल दिया गया और सहमति वाले अनुच्‍छेद में बदलाव करते हुए उसे परामर्श लेने तक सीमित कर दिया। यही इस कानून की मूल भावना थी जिसे एक तरह से खत्म कर दिया गया। वह कहते हैं कि अब यदि परामर्श खिलाफ में भी दिया जाता है तो जरूरी नही कि सरकार उसे मान ही ले।

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक शुक्ला दावा करते रहे हैं कि उक्त् कानून को लेकर जो नियम राज्य सरकार ने लागू किए है वह आदिवासियों के साथ खिलवाड़ हैं।

शुक्ला के कई बयान वर्तमान में सार्वजनिक रूप से मौजूद हैं। जिसमें उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण के बाद की जाने वाली आपत्ति की व्यवस्था भी उक्त कानून में पारदर्शिता के साथ नहीं की गई है। सर्व विदित है कि जमीन अधिग्रहण के अधिकार कलेक्टर अथवा उनके नामित अधिकारियों को ही होते हैं। ऐसे में उक्त कानून में अधिग्रहण पर आपत्ति अर्थात अपीलीय अधिकार भी कलेक्टर व उनके नामित अधिकारियों को ही दिए है। यह ठीक नहीं है क्योंकि जो अधिकारी अधिग्रहण करेंगे, वह अपने ही किए गए कामों पर प्राप्त होने वाली अपील पर कैसे सुनवाई करेंगे। यदि करते भी है तो उसमें पारदर्शिता कितनी होगी, इस पर बड़ा संशय है। 

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