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स्वीडन के बाद इटलीः यूरोप में मज़बूत होती दक्षिणपंथी ताक़तें

दुनिया भर की: इटली में घोर फ़ासीवादी पार्टी की नेता होंगी देश की पहिला महिला प्रधानमंत्री।
Giorgia Meloni

रविवार को इटली में हुए मतदान से काफी पहले ही रुझान नजर आने लगा था कि गियोर्जिया मेलोनी इटली की पहली महिला प्रधानमंत्री बन जाएंगी। काफी पहले इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इटली में मतदान से दो हफ्ते पहले ही रायशुमारियों पर रोक लग जाती है, लिहाजा मेलोनी की जीत के तमाम अनुमान दो हफ्ते पुराने या उससे भी पहले के थे। इसीलिए कुछ लोग यह उम्मीद भी जाहिर कर रहे थे कि हो सकता है कि इन दो हफ्तों में कुछ बदलाव लोगों के मन में आ जाए और नतीजों में अनुमानों के विपरीत कुछ सरप्राइज देखने को मिल जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

सोमवार सवेरे तक जो 63 फीसदी वोट गिने जा चुके थे, उनमें मेलोनी की ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 44 फीसदी वोट मिल चुके हैं। गठबंधन अब सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत हासिल करने की दिशा में मजबूती से बढ़ रहा है। मेलोनी की अपनी पार्टी को 26 फीसदी वोट मिले हैं जबकि उनके गठबंधन सहयोगी मैटियो सैल्विनी की लीग को करीब 9 फीसदी और पूर्व प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी की फोर्ज़ा इटालिया को 8 फीसदी वोट मिले हैं। अंतिम नतीजे आने में वक्त लगेगा और सरकार बनने में तो कई हफ्ते लग जाएंगे।

लेकिन उस सबमें जो भी दांव-पेच हो, यह नतीजा काफी परेशान करने वाला है।

मेलोनी की जीत कई मायनों में ऐतिहासिक है, केवल इसलिए नहीं कि वह इटली की पहली महिला प्रधानमंत्री बनेंगी, बल्कि इसलिए भी कि वह उस पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं जो फ़ासिस्ट मुसोलिनी के समय के बाद से—यानी दूसरे विश्व युद्ध के बाद से—इटली में मुख्यधारा की सबसे दक्षिणपंथी पार्टी है। फ़ासीवाद में जड़ें रखने वाली ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी की लोकप्रियता में हाल के सालों में जोरदार इजाफ़ा हुआ है। साल 2018 में हुए पिछले चुनावों में उसे महज 4.5 फीदी ही वोट मिले थे।

लेकिन यहां चिंता का विषय केवल इटली तक ही सीमित नहीं है। एक हफ्ते पहले ही स्वीडन में हुए चुनावों में नव-नाज़ीवाद में जड़ें रखने वाली, इमिग्रेशन विरोधी पार्टी स्वीडन डेमोक्रेट्स वहां नई सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका में पहुंच गई। आम चुनावों में सीटों की संख्या के मामले में वह दूसरे नंबर पर रही।

इससे पहले अप्रैल में फ्रांस में हुए राष्ट्रपति के चुनावों में इमेन्युएल मैक्रों को बमुश्किल जीत हासिल हुई। दक्षिणपंथी मेरिन ला पेन को जिस कदर समर्थन हासिल हुआ उससे फ्रांस की राजनीति की धुरी भी वाम से थोड़ी दक्षिण की तरफ खिसकी है।

पिछले कुछ समय से यूरोप में यह रुझान दिखाई दे रहा है। उन जगहों पर भी जहां, वामपंथी या मध्यमार्गी लोकतांत्रिक पार्टियां सत्ता में आई हैं, दक्षिणपंथी ताकतें अपना समर्थन बढ़ाने में कामयाब रही हैं। हंगरी व पोलैंड में पहले ही दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता में हैं। इस लिहाज से इटली के नतीजे यूरोप के भीतर, खास तौर पर यूरोपीय संघ में, नए समीकरण बनने की दिशा में कदम बढ़ने की तरफ इशारा कर सकते हैं। इससे यूरोप के लिए नई चुनौतियां और सिरदर्द खड़े होंगे।

दक्षिणपंथी लॉबी की ताकत बढ़ने से यूरोपीय संघ की नीतियों व फैसलों में लोकतांत्रिक रुझानों पर दबाव बढ़ेगा। यूरोपीय ताकतें इसलिए भी परेशान हैं क्योंकि यूरोपीय संघ की अवधारणा रखने वाले शुरुआती देशों में से एक इटली ही अब उसके लिए चुनौती बन जाएगा।

जर्मनी में 2017 में ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) ने चुनावों में 12 फीसदी वोट जीतकर यूरोपीय राजनीतिक हलकों में सनसनी फैला दी थी। वह न केवल तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी बल्कि दोनों शीर्ष पार्टियों के मिलकर सरकार बनाने की वजह से वह आधिकारिक रूप से मुख्य विपक्ष हो गई थी। यह वही पार्टी है जिसे जर्मन सरकार ने आधिकारिक तौर पर निगरानी पर डाला था, और नाज़ियों के दौर के बाद से वह जर्मनी की पहली पार्टी थी जिसे इस तरह निगरानी पर रखा गया था।

दुनियाभर में दक्षिणपंथी ताकतें एक ही तरह से सोचती, हरकत करती हैं। वे लोगों के मुक्त आवागमन या इमिग्रेशन का विरोध करती हैं, विविध लैंगिक रुझान वालों लोगों पर सवाल खड़े करती हैं, महिलाओं की आजादी पर बेड़ियां लगाती हैं, जलवायु परिवर्तन उनके लिए फिज़ूल बकवास है, मानवाधिकारों की बातें बेमानी हैं और वे यह मानती हैं कि जीवन के पारंपरिक मूल्यों और तरीकों को खतरा है। अब ये खतरा उनकी नजर में कहीं से भी आ सकता है। दरअसल इसी खतरे का भय दिखाकर ये ताकतें खुद को मजबूत करती हैं, हम भारत समेत तमाम देशों में इसकी प्रतिध्वनि देख-सुन सकते हैं।

यूरोप में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद से उपजे संकट, महंगाई, आदि ने दक्षिणपंथी ताकतों को और मजबूत किया है। किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में आर्थिक-सामाजिक संकट सरकार के प्रति असंतोष बढ़ाते हैं और विपक्ष को मजबूत करते ही हैं। दक्षिणपंथी ताकतें अक्सर भय का माहौल खड़ा करके इन स्थितियों का भरपूर फायदा उठाती हैं। इटली ने कोविड महामारी के शुरुआती दौर में उसका प्रकोप सबसे ज्यादा झेला था। वहां की भयावह तस्वीरें दुनियाभर में छाई रही थीं। ऐसी स्थितियां भय की राजनीति करने वालों को सबसे ज्यादा रास आती हैं।

अब देखिए, सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार इटली की नई नेता मेलोनी के सबसे बड़े प्रशंसकों में अमेरिकी स्टीव बैन्नन भी हैं जो पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की राजनीतिक विचारधारा के शिल्पी और अमेरिका में फिर जन्मे दक्षिणपंथी अभियान के जनक माने जाते हैं।

स्वीडन और इटली के नतीजे बाकी जगहों पर भी मौजूदा संकट को भुनाने के लिए तैयार बैठी दक्षिणपंथी ताकतों को मजबूत करेंगे। कई लोग दक्षिणपंथ के इस उदय को सामाजिक लोकतंत्र की जन्मस्थली रहे आधुनिक यूरोप में नागरिक अधिकारों, लैंगिक समानता, बराबरी और बहुसंस्कृतिवाद के लिए बड़ा खतरा मानते हैं। स्कैंडेनेवियाई देश तो इसमें अग्रणी रहे हैं, लेकिन पिछले ही साल मैगडेलिना एंडरसन को देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनाने के बाद अब स्वीडन ने उन धुर दक्षिणपंथी स्वीडन डेमोक्रेट्स को सत्ता में पहुंचा दिया जिनकी शुरुआत ही फ़ासीवादी ताकतों और श्वेत प्रभुसत्ताविदयों के मेल से हुई थी। ये ताकतें युवा पीढ़ी में खासा समर्थन जुटा रही हैं, इनके नेता भी ज्यादातर कम उम्र हैं- यह भी अपने आप में चेतावनी का संकेत है।

जाहिर है, यूरोप में असल लोकतांत्रिक व प्रगतिशील ताकतों के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। उन्होंने खोई जमीन जल्द ही फिर से हासिल नहीं की तो यूरोप की राजनीति का चरित्र बदलते देर नहीं लगेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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