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जम्मू-कश्मीर: जल्दबाज़ी में उठाए क़दम, आगे उठाना पड़ रहा है ख़ामियाज़ा

जो लोग हठधर्मी होते हैं, वो सच और वास्तविकता को नहीं जान पाते।
jammu and kashmir

भले ही बीजेपी ''इतिहास का दुखड़ा'' रोती रहे, लेकिन यह ग़ौर करने वाली बात है कि जब उनसे सरकार के बड़े ''कार्यक्रमों या पहलों'' की बात की जाती है तो वे एक कोने में दुबक जाते हैं। केवल डिमॉनेटाइज़ेशन ही नहीं, जीएसटी और अब जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन क़ानून (2019) को भी लागू करने से पहले नरेंद्र मोदी सरकार ने होमवर्क नहीं किया।

एक औपनिवेशिक मानसिकता की सरकार कश्मीर में लोगों से संवैधानिक अधिकार छीन लेती है, उन्हें बंदी बनाकर गाली सुनने, प्रताड़ित होने और हिंसा का शिकार बनने के लिए छोड़ देती है, तब कश्मीरियों के पास खोने के लिए कुछ बचता ही नहीं है। आज उनका मौन, मुखरता की प्रबलता बता रहा है। अपना समय काटते हुए लोग ऐसे ही प्रदर्शन कर सकते हैं।

ठीक इसी दौरान, लद्दाख समेत दूसरे इलाक़ों से जहां धारा 370 और 35A को हटाकर नया क़ानून लागू किया गया, वहां लोगों को इस बात का डर सता रहा है कि उनकी जगह पर अब बाहरी क़ब्ज़ा कर लेंगे। क्योंकि उनके पास अपनी ज़मीन, नौकरी और संस्कृति बचाने विधानसभा नहीं है। उनमें नाराज़गी है कि नेशनल कमीशन फॉर शेड्यूल ट्राइब्स द्वारा लद्दाख को छठवीं अनुसूची में डालने की बात भी नहीं मानी जा रही है। केंद्र सरकार इस मुद्दे पर अड़ी हुई है। जम्मू के इलाक़े में भी नौकरियां और ज़मीन खोने की बात आम से लेकर ख़ुद स्थानीय बीजेपी नेताओं को समझ आ चुकी है, वे लोग मूल निवासी दर्जे के लिए ज़ोर लगा रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर के इस संकट के मूल में चार क़ानून हैं: जम्मू और कश्मीर एलिएनेशन ऑफ लैंड एक्ट (1995), बिग लैंडेड एस्टेट एबॉलिशन एक्ट (2007), जम्मू एंड कश्मीर लैंड ग्रांट एक्ट (1960) और एग्रेगेरियन रिफॉर्म ऐक्ट (1976)। पुनर्गठन क़ानून में ज़मीन से जुड़े पिछले क़ानूनों के कुछ हिस्सों को शामिल किया गया है। लेकिन इसमें इन चार क़ानूनों की कोई बात नहीं है। इसका मतलब है कि किसी बाहरी आदमी के नाम पर भी संपत्ति ट्रांसफर की जा सकती है। अब इस पर रोक की कोई बाध्यता नहीं है।

पुनर्गठन क़ानून से केंद्र को क़ानून बनाने और उन्हें बदलने की ताकत मिली है, पर जम्मू-कश्मीर विधानसभा को नहीं। यह गिरावट केवल सांकेतिक नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी है। अब जम्मू-कश्मीर के लोगों का अपने ही मामलों पर नियंत्रण नहीं रहा।

बेकार पुनर्गठन:

12 दिसंबर को केंद्र ने आर्टिकल 371 की तर्ज़ पर जम्मू-कश्मीर के लिए एक प्रोटेक्टिव लॉ लाने से इंकार कर दिया। गृहराज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने इसकी संभावना से इंकार किया। उन्होंने अपने दावे में कहा,''अगर रहवासियों को ज़मीन, संपत्ति और संसाधनों की सुरक्षा चाहिए तो उन्हें क़ानून बनाने के लिए सक्षम विधानसभा के नए संविधान का इंतजार करना चाहिए।''

ठीक अगले दिन द हिंदू अख़बार ने रिपोर्ट में बताया कि गृह मंत्रालय जम्मू, लद्दाख और कश्मीर को आर्टिकल 371 की तरह का विशेष दर्जा देने पर विचार कर रहा है। जैसा महाराष्ट्र और गुजरात को दिया गया है। इसके ज़रिए वे लोग ''विकास कार्यों के समान बंटवारों'' और राज्य सरकार की सेवाओं में ''पर्याप्त मौके सुनिश्चित करने'' के लिए अलग बोर्ड बना सकते हैं।

आर्टिकल 371A से 371G के उलट, आर्टिकल 371 राज्य सरकार द्वारा शक्ति के बंटवारे का प्रावधान करता है। इसे प्रशासन जब चाहे, तब हटा सकता है। क्योंकि यह कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है, बल्कि प्रशासनिक सहूलियत के लिए बनाया क़ानून है।  

मूलनिवासी दर्जा: 

भारत सरकार स्थानीय आबादी की सुरक्षा के लिए कितनी गंभीर है? जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन ने राज्य के लिए अलग रोज़गार नीति बनाने और नौकरी को आवेदन देने वालों के लिए एक भाषा परीक्षा रखने की सलाह दी थी। आयोग ने यह भी कहा था कि सरकारी नौकरियों के लिए केवल वही लोग आवेदन करें, जो कश्मीर में पिछले 15 सालों से लगातार रह रहे हों। लेकिन 31 अक्टूबर को पीएससी की परीक्षा हो गई और इन सिफारिशों को नहीं माना गया।

26 दिसंबर को जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने 33 नॉन गजेटेड पोस्ट के लिए विज्ञापन निकाला। यह बाहर वालों के लिए भी खुली रखी गईं। बता दें हाईकोर्ट हीबियस कॉर्प्स की याचिकाएं सुनने में भी बहुत धीमा रहा है। लेकिन इस विज्ञापन को वापस लेना पड़ा। क्योंकि लोगों में इससे बहुत गुस्सा बढ़ गया, इसमें बीजेपी के लोग भी शामिल थे। तब सरकार के पास इसे वापस लेने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा। जम्मू-कश्मीर के औपनिवेशिक प्रशासन ने इसके बाद सभी विभागों को जारी कर अगले आदेश तक कोई भी रिक्ति न निकालने के लिए कहा। यह तब तक रहेगा, जब तक सरकार स्थानीय लोगों के ज़मीन अधिकार और नौकरियों को सुरक्षित करने के लिए जरूरी कदम नहीं उठा लेती।

लेकिन मीडिया में सूत्रों के हवाले से जो बात निकलकर सामने आई, वह यह है कि मोदी सरकार का स्थानीय लोगों के अधिकार और नौकरियों को सुरक्षित करने का कोई इरादा नहीं है। यह हीला हवाली तब तक चली, जबतक साफ नहीं हो गया कि बीजेपी जम्मू में भी समर्थन हार रही है। उन्हें लगा था कि जम्मू के लोग हर काम में सरकार के साथ रहेंगे। लेकिन कुछ ही दिनों में यह साफ हो गया कि ज़मीन खोने और नौकरियां जाने का पहला असर जम्मू पर ही पड़ेगा और वहां प्रदर्शन चालू हो गए।

जब लगने लगा कि अब कुछ करना ही चाहिए, तब मोदी सरकार ने ऐसी कहानियां गढ़वाईं, जिनसे संदेश पहुंचाया जाए कि अब वे कुछ करने वाले हैं। उसी रिपोर्ट में बताया गया कि स्थानीय लोगों को कुछ सुरक्षा तो दी जाएगी, लेकिन एक्स-सर्विसमैन और राज्य में अपनी सेवाएं दे चुके अधिकारियों को इन बंदिशों से बाहर रखा जाएगा। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल का यही प्लान था। लेकिन इसका विरोध हो गया और सरकार को योजना वापस लेनी पड़ी। इस प्लान पर दोबारा विचार कर, इसमें बाहरी लोगों को लाने के लिए फिर एक रास्ता निकाला गया। इसके ज़रिए जम्मू-कश्मीर की जनसंख्या प्रवृत्ति को बदला जाएगा। उसी न्यूज़ रिपोर्ट से यह भी साफ हो गया कि जो इंडस्ट्री और एंटरप्राइज बाहरी लोगों द्वारा जम्मू-कश्मीर में लगाई गई हैं, उन्हें अपने राज्य से बाहर के कर्मचारियों को बसाने के लिए ज़मीन खरीदने का अधिकार है। 

अब यहां सवाल उठता है कि जब स्थानीय लोगों में नौकरियों की इतनी कमी है, तो बड़ी संख्या में बाहरी बेरोज़गारों को क्यों लाया जाए? अगर सरकार की यही नीति रही तो निवेशकों, रिटायर नौकरशाहों, पूर्व सर्विसमेन, पैरामिलिट्री फोर्स के लोगों को भी स्थानीय लोगों की तरह रहवासी दर्जा मिल जाएगा। इसलिए जम्मू चेंबर ऑफ कॉमर्स ने बाहरी लोगों ज़मीन खरीदने और निवेश पर बाधाएं लगाने की मांग की थी। क्योंकि जम्मू-कश्मीर के पास वैसे भी ज्यादा जमीन नहीं है और अनुच्छेद 370 हटने के बाद इसे खरीददारी-बिक्री का गढ़ नहीं बनाना है। 

कौन पैसा देगा:

घटियापन की एक और बात यह है कि केंद्र ने दोनों केंद्र शासित प्रदेशों के खर्चे से बचने की कोशिश की है। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के लिए बनाए गए क़ानूनों में केंद्र ने एक खास प्रावधान रखा है। इसमें एन के सिंह के नेतृत्व वाली 15 वीं वित्त आयोग को प्रभावित करने की कोशिश की है। इसके तहत दोनों केंद्रशासित प्रदेशों के लिए पैसा केंद्र से नहीं, बल्कि राज्यों में बंटवारे वाले पैसे से मिलेगा। यह प्रावधान वित्त आयोग की रिपोर्ट में पूर्ण राज्यों के लिए किए गए थे। लेकिन 15 वें वित्त आयोग ने साफ किया है कि वे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को एक केंद्रशासित प्रदेश मानते हैं। इन्हें एक राज्य नहीं माना जा सकता। एनके सिंह ने कहा कि ''आप एक केंद्र शासित प्रदेश को सिर्फ केंद्रशासित प्रदेश मानने के अलावा कुछ नहीं मान सकते।''

इसका मतलब यह है कि मोदी सरकार सरकार अर्थव्यवस्था ठीक तरीके से नहीं संभाल पाई और राजस्व उगाही में कमी आ गई। इसलिए सरकार को संसाधनों के लिए अपने हिस्से के पैसे पर निर्भर रहना पड़ा। सरकार जो चाहती है, वो वित्त आयोग से लेने की कोशिश लगातार कर रही है। सरकार ने आगे बढ़ते हुए घोषणा की है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्तों को सातवें वेतन आयोग के नियमों के तहत ही दिया जाएगा।

इसका मतलब है कि 4800 करोड़ रुपये का अतिरिक्त दबाव। जबकि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को दो साल के लिए बढ़ा दिया गया था। उदाहरण के लिए जम्मू-कश्मीर (लद्दाख सहित) का सैलरी और पेंशन बिल 2013 के 10,113 करोड़ रुपये से बढ़कर 2011-12 में 28,079 करोड़ रुपये पहुंच गया। अब इसमें आगे होने वाली बढ़ोत्तरी से यह 32,000 रुपये करोड़ के भी पार पहुंच जाएगा। चूंकि जम्मू-कश्मीर में राजस्व अच्छा नहीं है, तो संसाधन विहीन केंद्र सरकार पैसे कहां से लाएगी?

पुनर्सीमन:

एक्ट में बदलाव करने की ज़रूरत पुनर्सीमन में विरोधाभास के चलते भी है। जम्मू-कश्मीर में यह पुनर्सीमन अभी होना बाकी है। इस क़ानून पर काफ़ी चिंताएं है कि यह कैसे विधानसभा सीटों की सीमाएं तय करेगा।

जम्मू आधारित नेशनल पेंथर पार्टी के नेता का दावा है कि एक्ट की धारा 63 के मुताबिक़, ''सेक्शन 59 से 61 के बीच की बातों से इत्तेफाक न रखते हुए, जब तक 2026 के बाद जनगणना के पहले आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते, तब तक यह जरूरी नहीं है कि राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बने जम्मू-कश्मीर में विधानसभा और संसद की सीटों का पुनर्सीमन किया जाए''

 सेक्शन 59-61 2011 की जनगणना के आधार पर पुनर्सीमन की बात कहते हैं। इसके अलावा सेक्शन 62(2) कहता है कि पुनर्सीमन आयोग का गठन पुनर्सीमन क़ानून (2002) के मुताबिक़ किया जाए, इस क़ानून के तहत पुनर्सीमन की प्रक्रिया को चालू करने के लिए केंद्र सरकार के आदेश की ज़रूरत पड़ती है।

चुनाव आयोग के मुताबिक़, जब आदेश जारी हो जाता है तो प्रक्रिया पूरी होने में करीब एक साल का वक्त लगता है। सूत्रों के मुताबिक़, यह संशोधन इसलिए किए गए ताकि क़ानून की खामियों को पूरा किया जा सके। क्योंकि पुनर्गठन क़ानून को जल्दबाजी में बनाया गया था।

बड़े पैमाने पर निराशा: 

इतनी बड़ी भूलों के चलते समझा जा सकता है कि पुराने जम्मू-कश्मीर को लेकर सरकार की गंभीरता कितनी थी। उदाहरण के लिए इंटर-स्टेट टोल को हटाए जाने का जम्मू चेंबर ऑफ कॉमर्स ने स्वागत किया। लेकिन चेंबर ने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर टोल हटने के बाद स्थानीय व्यापारी यूनिट्स को सुरक्षित नहीं किया जाता, तो बाहरी लोगों से प्रतिस्पर्धा के चलते चार से पांच लाख लोग बेरोज़गार होंगे।

छोटे और मध्यम उद्योगों को नाराजगी है, क्योंकि सरकार ने अलग-अलग मालों की खरीददारी के लिए बाहरी लोगों को भी निविदाएं देने बुलाया है। माना जा रहा है कि इस कदम से करीब 15 हजार कर्मचारियों को नुकसान होगा। अब स्थानीय उद्योंगों के पास सुरक्षा नहीं है।

एक ऐसे वक्त में जब प्रदेश में इंटरनेट बंद है और केवल टू जी सेवाएं उपलब्ध हैं, तब सरकार ने जम्मू में ''जनरल फायनेंशियल रूल, 2017'' के तहत क्षमता बढ़ाने वाला पहला कार्यक्रम आयोजित किया। केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने दावा किया कि जम्मू-कश्मीर का केंद्रशासित प्रदेश भारत के लिए बदलाव का आदर्श बनेगा।

नीति आयोग का ''सतत विकास लक्ष्य भारत इंडेक्स'' से पता चलता है कि जम्मू-कश्मीर ने गरीबी, भूख, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, लैंगिक समता और उत्पादन में बाकी राज्यों से बेहतर प्रदर्शन किया है। जिसमें गुजरात भी शामिल है, जिसे प्रधानमंत्री, केंद्र सरकार द्वारा सब तरह की अच्छाई का शीर्षस्थ राज्य बताया जाता है। गुजरात निचले राज्यों में है। वहीं जम्मू-कश्मीर भारत के टॉप-3 में शामिल है। संभावना है कि अब बीजेपी के हाथ में सत्ता आने के बाद जम्मू-कश्मीर का भी वही हाल होगा, जो गुजरात के कामगार महिला और पुरूषों का हुआ।

भारत सरकार जम्मू कश्मीर से आने वाली खबरों पर नियंत्रण खोने की संभावना से बेहद डरी हुई है। सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन से ''प्रतिरोध कला'' पर नज़र रखने के लिए कहा है ताकि भारत विरोधी अवाधारणाएं बनाने वाली कलाओं को रोका जा सके। इस बीच जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने तय किया है कि लोग आधिकारिक खबरों के अलावा कुछ न सुन पाएं, उनके पास स्वतंत्र न्यूज़ स्त्रोत ही न हों।

एक तरफ मोदी सरकार के प्रोपगेंडा को चलाने वाली मीडिया कश्मीर में सब सामान्य दिखा रही है, तो दूसरी तरफ सरकारी एजेंसियों के भीतर से ही खतरों का अंदेशा दिया जाना शुरू हो चुका है।

सीआरपीएफ ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर एक आंतरिक सर्वे करवाया। दिसंबर 2019 में हुए इस सर्वे में खुलासा हुआ कि लंबे बंद से, अशांति फैलाने वालों के पास प्रतिरोध और हथियार बंद संघर्ष की एक नई लहर शुरू करने का मौका बनेगा।'' सर्वे में खुलासा हुआ कि अस्थायी कैंपों में ठहरे सीआरपीएफ सैनिकों को मिलिटेंट से खतरा है।

घाटी में बड़ी संख्या में, लंबे वक्त तक सुरक्षाबलों की तैनाती मिलिटेंट को संतुष्ट कर रही है। इससे पहले अक्टूबर 2019 में एक सीनियर सीआरपीएफ अधिकारी ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया था, ''पिछली बार जब मैंने दिल्ली से पूछा कि बड़ी हुई संख्या के सुरक्षाबलों को यहां कब तक रहना होगा। तो मुझसे कहा गया कि यह सवाल अगले अप्रैल तक मत पूछिएगा। इसलिए हमें लंबी सर्दियों के लिए तैयार रहना होगा, जहां हम लड़ रहे होंगे। हम सुरक्षाबलों के भीतर तनाव पैदा करना नहीं चाहते। वो पहले से ही कठिन स्थितियों में हैं।''

संक्षिप्त में मोदी सरकार आने वाली पीढ़ियों के लिए, अपने जल्दबाजी भरे कामों से विरासत में एक समस्या बनाकर जा रही है। यह जल्दबाजी भरे कदम इसलिए उठाए गए क्योंकि उनकी हठधर्मिता के चलते उन्हें सच मंज़ूर नहीं है और वे वास्तविकता से बहुत दूर हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक  पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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