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दो टूक : ‘नये कश्मीर’ की डरावनी तस्वीर

जम्मू के पुंछ-राजौरी इलाक़े के टोपा पीर नामक गांव में 22 दिसंबर 2023 को सेना ने जिस तरह तीन नागरिकों की अत्यंत बर्बर और पाशविक तरीक़े से हत्या की उससे एक बात साफ़ हो गयी हैः यही है - ‘नया कश्मीर’!
kashmir
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

भारतीय सेना के बर्बर कारनामे के साथ भारत के हिस्से वाले कश्मीर (जम्मू-कश्मीर) में वर्ष 2023 का अंत हुआ। सेना की यह बर्बरता न पहली थी, न आख़िरी है।

जम्मू के पुंछ-राजौरी इलाक़े के टोपा पीर नामक गांव में 22 दिसंबर 2023 को सेना ने जिस तरह तीन नागरिकों की अत्यंत बर्बर और पाशविक तरीक़े से हत्या की उससे एक बात साफ़ हो गयी हैः यही है - ‘नया कश्मीर’!

जिस ‘नये कश्मीर’ का ढोल-नगाड़ा हिंदुत्व फ़ासीवादी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार पीटती आ रही है उसकी असलियत सामने आ चुकी है। ‘नये कश्मीर’ का मतलब हैः कश्मीर की जनता पर सेना का और ज़्यादा ज़ोर-जुल्म, और ज़्यादा उत्पीड़न और यातनाएं, और ज़्यादा मुठभेड़ हत्याएं, और ज़्यादा तबाही।

21 दिसंबर 2023 को टोपा पीर के पास घने जंगलों में सेना के काफ़िले पर हथियारबंद विद्रोहियों (मिलिटेंट) ने हमला कर दिया जिसमें चार फ़ौजी मारे गये। दूसरे दिन, 22 दिसंबर को, सेना ने पूछताछ के लिए टोपा पीर के नौ निवासियों को उठा लिया। सेना की हिरासत में इन नौ लोगों को बहुत बर्बर तरीक़े से पीटा गया और उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गयीं। उनके घावों पर और टट्टी-पेशाब के रास्ते पर पिसी लाल मिर्च डाली गयी। तीन लोग सेना की हिरासत में मर गये/मार डाले गये और अन्य छह लोग, जो बुरी तरह घायल थे, अस्पतालों में भेजे गये।

ख़ास बात यह है कि यातना देने और मार डालने की इस घटना का वीडियो बना और उसे सोशल मीडिया पर जारी किया गया। इस वीडियो की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। सवाल है, सेना की हिरासत में कोई ग़ैर-सैनिक या नागरिक वीडियो कैसे बना सकता है? जम्मू-कश्मीर की भूतपूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती का कहना है कि यह वीडियो सेना ने ही बनाया और उसे जारी किया ताकि लोगों में दहशत पैदा की जा सके। सेना अपनी क्रूरता की तस्वीर दिखा कर सार्वजनिक भय पैदा करना चाहती है। कश्मीर में सेना की ओर से मनोवैज्ञानिक युद्ध भी लड़ा जा रहा है।

इस घटना को छुपाना या इसे मुठभेड़ की शक्ल दे पाना संभव नहीं था लिहाजा केंद्र सरकार और सेना ने फ़ौरन अपनी ‘ग़लती’ मान ली और इसे ‘दुरुस्त’ करने का काम आनन-फानन में शुरू कर दिया। मारे गये लोगों के परिवारों को सरकार और सेना की तरफ़ से 30-30 लाख रुपये का मुआवजा और घायलों को 3-3 लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की गयी। पुलिस ने ‘अज्ञात’ (!) लोगों के ख़िलाफ़ हत्या की एफ़आईआर दर्ज की और सेना ने अपनी ओर से जांच बैठा दी। इस मामले में अभी तक किसी सैनिक या सेना अधिकारी की गिरफ़्तारी नहीं हुई है (होगी भी नहीं, जब तक केंद्र सरकार की हरी झंडी न मिले)।

टोपा पीर में भारतीय सेना के हाथों तीन नागरिकों की हत्या का मामला उन घटनाओं में से एक है, जहां सेना का अपराध पकड़ा गया। इससे पहले पथरीबल फ़र्जी मुठभेड़ (2002), लोलब फ़र्जी मुठभेड़ (2004), माछिल फ़र्जी मुठभेड़ (2010) और अमशीपोरा फ़र्जी मुठभेड़ (2020) के मामलों में सेना का अपराध पकड़ा गया था।

इन सभी घटनाओं में सेना ने कश्मीरी नागरिकों को ‘आतंकवादी’ बताकर और ‘मुठभेड़’ दिखाकर मार डाला था। बाद में असलियत सामने आयी।

माछिल और अमशीपोरा की घटनाओं को छोड़कर अन्य किसी घटना में किसी फ़ौजी को न सज़ा हुई, न उसे जेल भेजा गया। माछिल और अमशीपोरा की घटनाओं में सेना के अफ़सरों और अन्य फ़ौज़ियों को सज़ा सुनायी गयी और उन्हें जेल भेजा गया आर्मी ट्रिब्यूनल ने उनकी सज़ा को स्थगित कर दिया और उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया। कश्मीर में सेना को पूरी छूट मिली हुई है।

(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं )

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