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झारखंड : "चंपा हथनी की मौत सिस्टम की नाकामी से हुई"

राज्य के दलमा क्षेत्र के आदिवासी समाज के लोगों का कहना है कि वन विभाग के अधिकारी और नेता बड़े-बड़े दावे और वादे करते रहे लेकिन इस हथनी को बचाने के लिए कुछ नहीं किया।
Champa elephant

लौहनगरी टाटा की चकाचौंध भरी ज़िंदगी के सामने ‘दलमा की पहचान’ चंपा हथनी ने “सिस्टम” का शिकार होकर अपना दम तोड़ ही दिया। बीते 25 दिसंबर की सुबह उसकी मौत हो गयी।

साथ ही दलमा पहाड़ी क्षेत्र के आदिवासी-मूलवासी और संयुक्त ग्राम सभा द्वारा उस मरणासन्न हथनी चंपा को ज़ंजीरों से मुक्त कराने की जद्दोजहद कोई रंग न ला सकी। बल्कि गांव-गांव में जहां कल तक पद यात्रा निकालकर उसकी ज़िंदगी बचाने की मुहीम चलाई जा रही थी, आज वहां शोकाकुल ग्रामवासी 'चंपा हम शर्मिंदा हैं, तेरे क़ातिल ज़िंदा हैं!’ के नारे लगाने को विवश हो गए हैं।

मीडिया ने ख़बरों में सिर्फ़ वन विभाग के कहे अनुसार चंपा हथनी की मौत की वजह उसकी अधिक उम्र और बीमार होना ही बताया है। भावुक करनेवाली तस्वीरें लगाकर यह भी दर्शाया है कि वन विभाग के आला अधिकारी किस क़दर शोक में हैं और अपनी “प्रिय हथनी” को श्रद्धांजलि दे रहे हैं। उनकी श्रद्धांजलि को प्रकाशित करते हुए यह भी बताया गया है कि वह दलमा की पहचान और सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी। कैसे वह ‘दलमा वाइल्ड सेंचुरी’ में आनेवाले सैलानियों का दलमा के प्रवेश द्वार पर सबका स्वागत करती थी और सभ्य समाज के लोग बाग़ उसके साथ बड़ी ख़ुशी ख़ुशी सपरिवार सेल्फी लेते थे।

चंपा हथनी की देखरेख के ज़िम्मेदार वन विभाग के आला अधिकारी एक स्वर से यही कह रहे हैं कि वह काफ़ी बूढ़ी हो चली थी और तीन पशु डॉक्टरों की टीम उसे बचने में लगी हुई थी। डॉक्टरों के अनुसार अत्यधिक उम्र (67 वर्ष) होने के कारण उसके कई अंग काम करना बंद कर चुके थे। वहीँ, अर्थाराइटीस के कारण उठने बैठने में उसे परेशानी हो रही थी। कई दिनों से उसने खाना भी छोड़ दिया था। दलमा क्षेत्र के वन अधिकारी चार दिनों से ख़ुद उसकी देख रेख में जुटे हुए थे। चार डॉक्टरों की टीम द्वारा उसका पोस्टमार्टम किये जाने के बाद पूरे सम्मान के साथ दफनाया गया। पिछले 12 वर्षों से उसके साथ रहनेवाले महावत ने उसे कफ़न ओढ़ाकर फूल चढ़ाया और अंतिम संस्कार के नियम करने के बाद दफ़नाने की इजाज़त दी।

दूसरी ओर, ‘चंपा हम शर्मिंदा हैं, तेरे क़ातिल ज़िंदा हैं’ का नारा लगाने वाले दलमा जंगल क्षेत्र के निवासी शोकाकुल आदिवासी-मूलवासी समाज के लोगों का कहना है कि आख़िर ह्रदयहीन वन विभाग ने एक बेज़ुबान की जान ले ही ली। आज इसके आला अधिकारी मौत के असली कारणों को दबाने के लिए उम्र का हवाला देकर मौत पर पर्दा डाल रहें हैं। लेकिन पिछले कई महीनों से इसके ज़ंज़ीरों में जकड़े होने और भूख से बीमार रहने की पुरज़ोर मांगें उठायी जा रहीं थी तब ये कहां सो रहे थे। क्षेत्र के लोगों का कहना है कि सभी जानते हैं कि एक हाथी दिन भर में 16-17 घंटे भोजन करता है, क्या चंपा हथनी को उतना भोजन कभी मिला? वे कहते हैं कि भोजन देने के बजाय उसे भूखे-प्यासे ज़ंजीरों में क़ैद रखकर पर्यटकों के सामने फ़क़त मनोरंजन का सामान बनाकर नचाया जाता रहा।

आक्रोशित दलमा ग्रामवासियों का वन विभाग के ख़िलाफ़ यह भी कहना है कि 'हम मानते हैं कि जो हाथी अपने झुंड से बिछड़ जाता है उसे फिर अपने झुंड में स्वीकार नहीं किया जाता है। लेकिन जब आपने इसे पालतू पशु बना लिया तो इसे पालने के लिए जो नियम-क़ानून हैं, क्या उसका पालन किया कभी?’

ऑल इंडिया पीपल्स फोरम से जुड़े संयुक्त ग्राम सभा के आंदोलनकारी सुखलाल पहाड़िया ने हथनी की मौत पर दुःख ज़ाहिर करते हुए मांग की है कि- दलमा पहाड़ की बेज़ुबान हथनी चंपा के क़ातिलों पर धारा 428 और 429 के तहत मामला दर्ज होना चाहिए। मुझे दुःख है कि हम चंपा को ज़ंजीर से नहीं आज़ाद करा पाए।

पिछले 5 दिसंबर से संयुक्त ग्राम सभा ने चंपा-रजनी हथनियों को ज़ंजीरों से तत्काल आज़ाद कर समुचित भोजन देने व उचित इलाज की मांग को लेकर गांव गांव ‘पदयात्रा अभियान’ चलाया था। दलमा इको सेंसेटिव ज़ोन के अभ्यारण्य के जीव-जंतुओं की देखभाल और भोजन के लिए जारी किए गए भारी फंड की लूट को लेकर स्थानीय प्रशासन और वन विभाग के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ रखा था। यह सवाल उठाया गया था कि चंपा-रजनी व अन्य जानवरों का खाना कौन खा रहा है? लेकिन कहीं से कोई संज्ञान नहीं लिया गया। उलटे वन विभाग ने इन सभी पर ‘राजनीति करने’ का आरोप लगा दिया।

शोकाकुल ग्राम सभा के आंदोलनकारी अब ये सवाल उठा रहें हैं कि जब दलमा पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले इंसानों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है तो क्या जिस बेज़ुबान चंपा की मौत पर पर्दा डाला जा रहा है, उसे इंसाफ़ मिल सकेगा?

इस विडंबना पर भी क्या कहा जाए कि जिस हाथी को राज्य का प्रतीक-पशु घोषित किया गया इसके बावजूद पिछले 12 वर्षो से सैलानियों का मुफ़्त मनोरंजन कर रही इन हथनियों की दुरावस्था पर राज्य सरकार ने भी सीधे तौर से कोई संज्ञान नहीं लिया।

लोगों का सवाल टाटा नगरी में ही कोठी बनाकर रह रहे केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री महोदय से भी है कि इतने पास रहकर भी वे एक बार भी यहां क्यों नहीं आए? वे आए दिन मंच के भाषण देते रहे कि उनकी केंद्र सरकार और विशेषकर मोदी जी झारखंड के आदिवासियों के लिए बहुत चिंतित रहते हैं।

सोशल मीडिया पर भी कहा जा रहा है कि चंपा को ‘सिस्टम ने मारा’ है। शोक भरे पोस्टों में यह भी नाराज़गी ज़ाहिर की जा रही है कि आज हमारे प्रदेश और देश में वन्य प्राणियों व पर्यावरण की रक्षा को लेकर ख़ूब नाटक होते हैं। भव्य आयोजनों में मंत्री-नेता से लेकर नौकरशाह-बुद्धिजीवी बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन चंपा-रजनी जैसे बेज़ुबान जीवों को ज़ंजीरों से क़ैद करके रखा गया और सब के सब चुप्पी साधे रहे। वे इसलिए चुप रहे क्योंकि चंपा-रजनी और उनके वंशज वोट नहीं करेंगे!

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