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झारखंड: कई ‘प्रायोजित अड़चनों’ के बाद चम्पई सोरेन बने मुख्यमंत्री, लेकिन राज्यपाल की भूमिका पर सवाल

नयी सरकार के शपथग्रहण के बाद मुख्यमंत्री-मंत्री समेत महागठबंधन के वरिष्ठ नेताओं ने सिद्धू-कानू की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर लोकतंत्र की रक्षा का लिया संकल्प।
Champai Soren

काफी अगर-मगर और “प्रायोजित अड़चनों” के बावजूद आखिरकार चम्पई सोरेन के नेतृत्व में झारखंड प्रदेश को नया मुख्यमंत्री हासिल हो ही गया। वरना एक फरवरी को तो देर शाम तक महागठबंधन के 41 विधायक राजभवन में महामहिम राज्यपाल को अपनी गिनती-परेड दिखाते रहे फिर भी उनकी ओर से कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिल रहा था। जबकि झारखंड महागठबंधन के नेता के तौर पर चम्पई सोरेन खुद 47 विधायकों के समर्थन हस्ताक्षर और 41 विधायकों को लेकर राजभवन पहुंचकर राज्यपाल के समक्ष लिखित रूप से सरकार बनाने का दावा पेश करके उनके जवाब का इंतज़ार कर रहे थे। उड़ती हुई ख़बरों में ये बात भी आ रही थी कि राज्यपाल ने सुबह तक का सोचने का समय माँगा है।  

इधर, जैसे जैसे शाम बढ़ने लगी और कयासों का बाज़ार सरगर्म होता गया, फिर खबर आई कि भाजपा की “जोड़-तोड़ चालों” से बचाने और राज्यपाल का जवाब आने तक महागठबंधन के सभी विधायक हैदराबाद में रहेंगे। जहाँ अभी कॉंग्रेस की राज्य सरकार है। सभी विधायक दो चार्टर प्लेनों में जाकर बैठ भी गए थे लेकिन उस समय रांची का मौसम काफी खराब होने के कारण प्लेन टेक-ऑफ नहीं हो सका। बाद में वहीं से सारे विधायकों को सर्किट हाउस ले जाकर ठहराया गया। इसी दौरान अंततः राजभवन से भी ये खबर प्रसारित हो गयी कि 2 फरवरी को राज्यपाल ने चम्पई सोरेन को सरकार बनाने के न्योता दिया है और शपथ-ग्रहण समारोह होना है।

 

सोशल मीडिया से लेकर प्रदेश के राजनितिक गलियारे में व्यापक चर्चा इसी बात को लेकर थी कि राज्यपाल महोदय को कौन सा “धर्म संकट” घेरे हुए है कि वे राजभवन में डेरा डाले हुए महागठबंधन के सरकार बनाने के दावे पर संविधानसम्मत आचरण नहीं दिखा रहें हैं।

क्योंकि महज चंद दिनों पूर्व जब बिहार में “सियासी खेला हुआ” और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार के राज्यपाल महोदय को अपना इस्तीफा दिया तो उन्होंने उसे झट से स्वीकार करने के साथ साथ नयी सरकार गठन को तुरंत हरी झंडी दिखा दी।

लेकिन जब झारखंड में भी लगभग वैसा ही मामला सामने आया और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्यपाल को इस्तीफा देते हुए अपने गठबंधन की नयी सरकार गठन के लिए पत्र दिया तो राज्यपाल महोदय ने मौन साध लिया।

नयी सरकार के गठन में हो रही वैधानिक देरी को देखकर हर ओर से यही सवाल काफ़ी ज़ोरों में चर्चा में उठने लगा कि- अभी झारखंड में “शासन व्यवस्था” कौन संचालित कर रहा है? कानून-व्यवस्था से लेकर प्रदेश के पूरे तंत्र का संचालन किसी संवैधानिक केंद्र के ज़रिये हो रहा है? क्योंकि इस समय तो कोई मुख्यमंत्री व सरकार विधि-सम्मत ढंग से अस्तित्व में है ही नहीं।

सोशल मीडिया में जारी पोस्ट/ख़बर- “बिहार में चट इस्तीफ़ा, पट सरकार- झारखंड में इस्तीफा, और फिर इंतज़ार?  खूब वायरल हुआ।

भाकपा माले के झारखंड विधायक विनोद सिंह, जो राजभवन में महागठबंधन दलों के विधायकों से साथ नयी सरकार बनाने का दावा लेकर गए थे, राज्यपाल महोदय की भूमिका को लेकर काफी क्षुब्ध हो उठे। जिसे राजभवन के गेट पर मौजूद मीडियाकर्मियों द्वारा राज्यपाल द्वारा देरी किये जाने के  सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने व्यक्त भी किया कि- लोग बार बार ये कह भी रहें है और धीरे धीरे सारा घटनाक्रम ये साबित भी कर रहा है कि “करप्शन कोई सवाल-कोई मुद्दा नहीं है, भाजपा के जो साथ हैं वे भ्रष्टाचार-मुक्त हैं और भाजपा के विरोध में जो भी हैं वे भ्रष्टाचारी-युक्त हैं। लोगों को नोटिस देने के बाद भी यदि वे भाजपा से हाथ मिला लेते हैं- वे चाहे बंगाल में शुभेंदु अधिकारी हों अथवा महाराष्ट्र में हों तो सारी चीजें ठीक ठाक हैं। मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने इस्तीफ़ा दिया, उसके सत्रह घंटे बीत गए हैं। चम्पई सोरेन ने नयी सरकार बनाने का दवा पेश किया। कांग्रेस विधायक दल के नेता, झामुमो विधायक दल के नए चुने गए नेता और समर्थन दे रही भाकपा माले कि ओर विधयक के तौर पर मेरे समेत सभी घटक दलों के विधायक यहाँ पहुंचे हुए हैं। लेकिन सत्रह घंटे हो गए हैं, अभी तक तो सरकार बनाने का आमंत्रण दे दिया जाना चाहिए था और यही लोकतंत्र है। अभी तक तो राष्ट्रपति शासन की भीं कोई अधिसूचना नहीं निकली है लगता है कि “ज़ीरो आवर” जैसी स्थिति बन गयी है। झारखंड में पहली बार ऐसी अनोखी स्थिति दिख रही है।

इसके पूर्व अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों ये बात भी वायरल हुई कि- हेमंत सोरेन के इस्तीफे के तुरत बाद ही बजाय नयी सरकार गठन के लिए महागठबंधन द्वारा दिए गए “सूचना-पत्र” पर विधि-सम्मत आचरण अपनाने के, उन्होंने झारखंड में राष्ट्रपति-शासन लगाने की सिफारिश-सूचना केंद्र को भेज दी है। जिसपर वहां से कोई जवाब नहीं आया।

उधर, हेमंत सोरेन की गिरफ़्तारी को लेकर पूरे प्रदेश में जनाक्रोश उबाल में आ गया। गनीमत रही कि वाम दलों व महागठबंधन के सभी घटक दलों के नेतृत्व ने काफ़ी संयम से काम लिया। लेकिन विरोध प्रदर्शनों और बयानों का ताँता सा लग गया जो लगातार जारी है।

भाकपा माले झारखंड राज्य मुख्यालय में प्रेसवार्ता के माध्यम से पार्टी नेताओं ने भाजपा पर आरोप लगाया है कि- ईडी के ज़ोर पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से इस्तीफ़ा दिलवाना मोदी-सरकार का लोकतंत्र पर फासीवादी हमला है। जो पूरी तरह से राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित है। ईडी न्यायिक-विधिक प्रक्रियाओं की खुलकर अनदेखी कर रही है। तो राज्यपाल का रुख़ भी संविधान के लिहाज से स्वस्थ नहीं है। यह सब झारखंड के लोकतंत्र और जनादेश पर सीधा प्रहार है। जिससे राज्य की व्यापक जनता में काफी आक्रोश है। राज्य की जनता ने खुली आँखों से ये देखा है कि किस तरह से इस प्रदेश को भ्रष्टाचार और लूट की खाई में धकेलने वाले मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों व नेताओं (भाजपा के) को खुद यही राज्यपाल नवाज़ रहे हैं तो मोदी सरकार केन्द्रीय मंत्री और पार्टी के उच्च पदों पर लाकर सम्मानित कर रही है।

राज्य की जनता को यह भी याद है कि मोदी-सरकार, बीते चार सालों में पूर्ण जनादेश प्राप्त झारखंड की महागठबंधन सरकार को संकट में डालने के लिए राज्यपालों, केंद्र की आर्थिक पाबंदियों और भाजपा की अफ़वाह-मशिनरी का खुलकर इस्तेमाल करती रही है। यकीनन ऐसे में झारखंड की जनता अपने हक़-अधिकारों की रक्षा के लिए फ़ासीवाद विरोधी लोकतान्त्रिक आन्दोलनों को और अधिक तेज़ करगी।

ताज़ा खबर है कि राजभवन में नयी सरकार के शपथग्रहण उपरांत मुख्यमंत्री-मंत्री समेत महागठबंधन के वरिष्ठ नेताओं ने संथाल विद्रोह के नायक सिद्धू-कानू को याद किया और राजभवन के समीप स्थित ‘सिद्धू-कानू पार्क’ में जाकर उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर लोकतंत्र की रक्षा का संकल्प लिया।

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