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झारखंड की नई सरकार पर ग़ैर-भगवाकरण की बड़ी ज़िम्मेदारी

इस सरकार को पूरे भारत के लिए बहुलतावादी-धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को पुनः हासिल करना होगा।
hemant soren
Image Courtesy : NDTV

विधानसभा चुनावों में बहुत ही आसान जीत के बाद, हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस पार्टी के गठबंधन के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती है। ऐसे तीन सबसे महत्वपूर्ण काम हैं जिन पर सरकार को तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है, जिनमें से पहला झारखंड के आदिवासीकरण को बहाल करना है। इसका मतलब यह है कि आदिवासियों को विकास का लाभ और शासन में उनकी उचित हिस्सा मिलनी चाहिए। इसे हासिल करने के लिए, नई सरकार को राज्य के भीतर मौजूद गहन-सांप्रदायिक समाज को इसके विष से निजात दिलानी पड़ेगी। 

झारखंड में लंबे समय से भगवा ताक़तें सक्रिय हैं। राज्य, मानव लिंचिंग का केंद्र बन गया था। उदाहरण के लिए, 11 दिसंबर को पांच-चरण के विधानसभा चुनाव के मतदान के तीसरे चरण से एक दिन पहले, तबरेज़ अंसारी की लिंचिंग करने वाले तेरह आरोपी जो छह महीने से कैद में थे, उनमें से 6 को रांची उच्च न्यायालय ने ज़मानत दे दी है। इस तरह, लिंचिंग और सांप्रदायिक राजनीति राज्य में लगातार रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पर अपनी काली छाया डाले हुई है।

तहसीन पूनावाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बावजूद, राज्य ने भीड़ द्वारा हिंसा के शिकार लोगों की सुरक्षा और उन्हें रोकने के लिए एक क़ानून नहीं बनाया है। 17 जुलाई 2018 को, शीर्ष अदालत ने राज्य सरकारों को तीन सप्ताह के भीतर उन जिलों, उप-डिवीजन/या गांवों की पहचान करने का आदेश दिया था जहां हाल ही में हिंसा और लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, "दी गई समयावधि आज के डेटा संग्रह की तेज दुनिया के लिए पर्याप्त है।" मध्य प्रदेश और राजस्थान ने जल्द ही लिंचिंग के ख़िलाफ़ कड़े कानून बनाए हें, लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाली झारखंड सरकार जिसका इस क्षेत्र के भगवाकरण (और छत्तीसगढ़ से सटे) का लंबा इतिहास है, उसने कोई कदम नहीं उठाया है।

28 जून 2018 को, हार्वर्ड-शिक्षित भाजपा नेता जयंत सिन्हा, जो हजारीबाग से सांसद और केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य हैं, ने रामगढ़ लिंचिंग के दोषियों यानी आठ लोगों को माला पहना कर स्वागत किया था। तो यही वह स्थिति है जिससे झामुमो-कांग्रेस गठबंधन को निपटना है।

नए शासन को यह भी समझने की जरूरत है कि गैर-आदिवासीकरण की प्रक्रिया कैसे काम करती है, और इसे कई दशकों से झारखंड में भगवाकरण के साथ चलाया गया है। समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर ने अपने निबंध Teaching to Hate: RSS Pedagogical Programme, में बताया है कि पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में यह ग़ैर-भगवाकरण कैसे हुआ। हालाँकि, झारखंड की कहानी काफ़ी हद तक अनकही है।

झारखंड में संघ की कथा के असर को बेअसर करना:

1952 की शुरुआत में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने मध्य प्रदेश के निकटवर्ती सरगुजा रियासत की सक्रिय सहायता और धन से, जमशेदपुर में अपनी वनवासी कल्याण आश्रम परियोजना की शुरुआत की थी, जो अब छत्तीसगढ़ में है। वनवासी कल्याण आश्रम परियोजना विशेष रूप से भाजपा की अग्रगामी आरएसएस और भारतीय जनसंघ के लिए काफी साहायक साबित हुई है।

वनवासी आश्रम, अपने एकल विद्यालयों या एकल-शिक्षक विद्यालयों, अपने सत्संग केंद्रों और अन्य उप-समूहों के माध्यम से, आदिवासी लोगों का राजनीतिक "रूपांतरण" कर उन्हे हिंदू धर्म में ला रहा है। 2002 के अंत तक, आरएसएस झारखंड में लगभग 150 एकल विद्यालय खोल चुकी है। आज, एकल विद्यालय फाउंडेशन कई एकल-शिक्षक विद्यालय पूर्व शिक्षा देने के लिए चलाए जाते हैं, जिनमें बच्चों को बुनियादी पढ़ाई और लिखना, संस्कृत और ‘संस्कार’ या अच्छा व्यवहार सिखाया जाता है।

लेकिन वीकेए की सबसे प्रमुख पहल किशोर आदिवासी लड़कों (लड़कियों के लिए बहुत कम हैं) के लिए छात्रावास की योजना है, जिन्हें वे कक्षा एक से दसवीं तक, और कभी-कभी बारहवीं तक की पढ़ाई में मदद करने के लिए चलाते हैं। ये संगठन तीरंदाजी में आदिवासियों को प्रशिक्षित करते हैं, तीरंदाजी और अन्य खेल प्रतियोगिताओं के आसपास सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं।

दलितों के लिए, आरएसएस सेवा भारती चलाती है, जो 1979 में सरसंघचालक या प्रमुख बालासाहेब देवरस द्वारा स्थापित किया गया एक एनजीओ है। इसकी वैचारिक रूप से प्रक्षीक्षित मशीनरी और समर्पित कैडर ने जनजातियों में व्यापक और गहरा आधार बनाने में मदद की है; एक प्रक्रिया जो कई वर्षों से चल रही है।

बिहार के बक्सर के एक आरएसएस प्रचारक कैलाशपति मिश्रा (1923-2012) ने झारखंड के आदिवासियों के भगवाकरण करने में योगदान दिया है, खासकर यह सुनिश्चित करने में कि आरएल नंदा ही रांची विश्वविद्यालय के कुलपति बने। नंदा ने आरएसएस को आदिवासियों के बीच घुसने में मदद की है। जब, अप्रैल 1979 में, जमशेदपुर में हिंसा भड़की, तो मिश्रा राज्य के वित्त मंत्री थे। 1990 के दशक तक आते-आते वे बिहार में मान्यता प्राप्त भगवा आइकन बन गए थे।

इस दंगे की पृष्ठभूमि विशेष रूप से चौंकाने वाली है: मार्च 1964 में, जमशेदपुर ने दंगों का पिछला दौर देखा था। उस दंगे के बाद, जमशेदपुर के कुछ हिस्सों जैसे कि साबिरनगर में आदिवासियों द्वारा बेची गई जमीनों पर कई मुसलमान बस गए थे। इसने मुसलमानों को आदिवासी इलाकों जैसे दीमनाबस्ती के क़रीब ला दिया था। 1979 में, इस बात पर ज़ोर दिया गया कि पहली बार रामनवमी जुलूस (जिस दिन हिंदुओं ने भगवान राम की जयंती मनाई थी) को साबिरनगर से गुजारा जाएगा। जिसे इस प्रकार माना जाता है कि यह लड़ाई मूल रूप से जनजातियों और मुसलमानों के बीच थी।

आरएसएस द्वारा हिंदी दैनिक रांची एक्सप्रेस (आरई) को 1963 में सीताराम मारु की अध्यक्षता में चार-पृष्ठ साप्ताहिक के रूप में शुरू किया गया था। बाद में, आरई एक दैनिक अखबार बन गया। न्यायमूर्ति जितेंद्र नारायण की रिपोर्ट के अनुसार, इसने अप्रैल 1979 की हिंसा को भी भड़काया था। अनिवार्य रूप से, प्रभात खबर और हिंदुस्तान की उदार पत्रकारिता ने उस समय सांप्रदायिक राजनीति का विरोध किया था। उजागर होने और बदनाम होने के डर से आरई ने दैनिक जागरण को रास्ता दिया। जागरण ने हाल के दशकों में, झारखंड और बिहार के सांप्रदायिकरण का कुचक्र चलाया है।

इन सभी नेटवर्कों के ज़रिये संघ के संगठन ग्रामीण और साथ ही झारखंड के शहरी सामाज का सांप्रदायिकरण कर रहे थे। जमशेदपुर (टाटानगर) पर विचार करें, जो आदित्यपुर और गम्हरिया उपनगरों सहित 13 लाख 50 हज़ार आबादी वाला राज्य का सबसे बड़ा शहर है। इसमें तीन विधानसभा सीटें हैं जिनमें से एक जनजाति के लिए आरक्षित है। आरएसएस 1991 से बिरसानगर, 2018 से बहुलिया और  बहरागोड़ा, बागबेड़ा और चांडिल में स्कूलों की एक श्रृंखला चला रहा है।

ये तथ्य जमशेदपुर की शहरी सीटों पर भाजपा की निरंतर पकड़ को समझने में मदद करते हैं।

आदिवासी हितों की सबसे बड़ी पार्टी जेएमएम ने जमशेदपुर को कभी नहीं जीता:

ऐसा इसलिए है क्योंकि अप्रवासी ("डीकू") की बदौलत यह औद्योगिक शहर आबाद हैं। भाजपा का ज्यादातर कुलीन-जाति के हिंदुओं और अन्य पिछड़े वर्गों या ओबीसी की ऊपरी परत के बीच अपना ठोस आधार है; जमशेदपुर में अप्रवासी इन सामाजिक पहचानों की पुष्टि करते हैं। इसके अलावा, जमशेदपुर में मुस्लिम जो खुदरा व्यापार क्षेत्र में काम कराते हैं कुछ हद तक आर्थिक प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता का दम रखते हैं। इन्हे जमशेदपुर के छोटे खुदरा व्यापार केंद्र साकची के कुछ भागों में देखा जा सकता है। यहां लगभग 15 प्रतिशत व्यापारी मुस्लिम हैं। वास्तव में, साकची बाजार के भीतर मोहम्मडन लाइन है, जो उपरोक्त तथ्य को मज़बूत करती है।

एक अन्य स्थान, बिष्टुपुर, जमशेदपुर का एक पॉश बाज़ार है। इसके 7 प्रतिशत व्यापारी अक्सर अनुमान लगाया जाता है कि मुस्लिम हैं। टाटानगर रेलवे स्टेशन के पास जुगसलाई में मुसलमानों का एक बड़ा अनुपात है, जो यहाँ भी खुदरा व्यापार में लगे हुए हैं। आदित्यपुर और गम्हरिया एक सहायक औद्योगिक निर्माण केंद्र हैं जहाँ मुसलमानों का बड़ा अनुपात मजदूरों के रूप में काम करता है। इसके अलावा, मुसलमान बड़ी संख्या में शहर के ऑटो और टैक्सी ड्राइवर हैं, वे चित्रकार, राजमिस्त्री, टायर मरम्मत करने वाले, मोटर मेकेनिक, वेल्डर आदि भी हैं।

कुछ युवा मुस्लिम पुरुषों ने खाड़ी देशों में भी नौकरी कर ली है, और वे धार्मिक त्योहारों और उत्सवों के दौरान आर्थिक रूप से सम्पन्न तबके जो काफी दृश्यमान होते हैं चमकीली सुंदर और बड़ी मस्जिदों में जाते हैं। इसके चलते पुनरुत्थानवाद, अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता में वृद्धि होने की प्रवृत्तियां मिलती है। ऐसी परिस्थितियों में, हिंदुत्ववादी ताक़तों को हिंदू जनता को सांप्रदायिक रूप देना आसान हो जाता है। वे संबंधित वर्ग के मुक़ाबले हिंदुओं के वंचित होने का फ़ायदा उठाते हैं, जो अक्सर मुस्लिमों के तत्काल आसपास के क्षेत्र में रहते हैं।

कौन निर्वाचित होता है और वे किन क़ानूनों को आगे बढ़ाते हैं:

1996 में, महाकाव्य महाभारत पर आधारित टीवी धारावाहिक में हिंदू भगवान कृष्ण की भूमिका निभाने वाले नीतीश भारद्वाज को जमशेदपुर से लोकसभा सदस्य चुना गया था। बीजेएस-बीजेपी के एक अन्य नेता, दीनानाथ पांडे (1934-2019), लगातार बिहार के विधान सभा के सदस्य के रूप में, 1977 से 1990 तक चुने गए थे। अप्रैल 1979 के मुस्लिम-आदिवासी दंगों के दौरान उन पर खातौर पर दंगे के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया था। इस पूर्ववर्ती हिंसा पर देवरस ने एक भड़काऊ सार्वजनिक भाषण दिया था। 

जमशेदपुर की 1979 की झड़पों और गुजरात के 2002 के नरसंहार के लिए भी आदिवासियों को मुसलमानों के खिलाफ लामबंद किया गया था। गुजरात दंगों पर जस्टिस तेवतिया आयोग की रिपोर्ट, Facts Speak for Themselves: Godhra and After, Part II नोट करती है कि “पहले, गुजरात में, आदिवासी कभी भी हिंदू-मुस्लिम दंगों में शामिल नहीं हुए।” आगे, मानव अधिकार संगठन पीपल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज या PUCL की 2006 की रिपोर्ट नोट करती है कि कैसे वनवासी कल्याण आश्रम  ने आदिवासियों का गैर-आदिवासीकरण किया है: उन्होंने "देश की आदिवासी बेल्ट को इस उद्देश्य से निशाना बनाया ताकि वे अपनी आदिवासी पहचान, संस्कृति और पूजा प्रकृति की परंपराओं को खो दे, यह दावा करते हुए कि वे सब हिंदू हैं।"

फिर, 2001 में, बाबूलाल मरांडी सरकार ने आदिवासी और मूलवासी बनाम डीकूआ (प्रवासियों) के मुद्दे को तय करने के लिए 1932 भूमि रिकॉर्ड को आधार बनाने के लिए एक विधेयक का प्रस्ताव रखा। उसी वर्ष, रांची उच्च न्यायालय ने इस कानून को रद्द कर दिया। बाद में, 1986 को आधार वर्ष के रूप में लिया गया। यानी जो भी 1986 से झारखंड में रह रहे थे, उन्हें अधिवासी के रूप में माना जाएगा। जनसांख्यिकी की यह राजनीति भाजपा के लिए बहुत मददगार साबित हुई।

यह सब कॉर्पोरेट-हिंदुत्व सांठगांठ से हुआ है। उदाहरण के लिए, रतन टाटा ने पिछले तीन वर्षों में वर्तमान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के साथ कम से कम दो बैठकें की हैं। 2016 में इसे व्यापक रूप से रिपोर्ट किया गया था। कॉरपोरेट सेक्टर के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ऐसी बातचीत को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए और न ही इसे महत्वहीन माना जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, टाटा ने अपनी कॉर्पोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी (CSR) निधि का एक बड़ा हिस्सा आरएसएस द्वारा संचालित परियोजनाओं के लिए रखा है। यही नहीं, बीजेपी को मिलने वाला 75 प्रतिशत चंदा टाटा समूह के प्रगतिशील चुनावी ट्रस्ट से आता है।

दूसरी हिंदुत्व की प्रयोगशाला  

जैसा कि ऊपर देखा गया है, झारखंड को गुजरात के बाद एक अन्य "हिंदुत्व की प्रयोगशाला" बनाया जा रहा था। इतनी व्यापक और गहरे पैमाने पर बसी सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष करना बेहद मुश्किल है।

रामगढ़ सीट से कांग्रेस की उम्मीदवार ममता देवी की निराशा यह सब कहानी कहती है। चुनाव अभियान के दौरान जब उनसे पूछा गया कि “धर्मनिरपेक्ष” पार्टियां लिंचिंग पर चुप क्यों हैं, तो उन्होंने कहा, “हम अभी इस मुद्दे को नहीं उठा रहे हैं…एक जाति विशेष पे ये लोग थोड़ा से भ्रमित कर देते हैं अंतिम चरण में जिससे वोट तुरंत बदल जाते हैं।

वह जो कह रही है कि भाजपा में उसके विरोधियों ने लोगों को गुमराह कर रहे है, जिससे मतदाताओं को उनकी पार्टी के खिलाफ एक झटके में किया जा सकता है। ममता देवी ने आगे कहा कि उनकी पार्टी मॉब लिंचिंग के बारे में बात करेगी- लेकिन वक़्त देस्ख कर- जब समय सही होगा। उन्होंने कहा, "हिन्दू-मुस्लिम की बात कर देते हैं, बस यही वजह से- भाजपा इसे हिंदू-मुस्लिम मुद्दे में बदल देती है, इसीलिए हम लिंचिंग के बारे में बात नहीं करते।"

कल्याणकारी और आर्थिक कार्यक्रम:

राजनीतिक अर्थव्यवस्था को सांप्रदायिकता से मुक्त करने के लिए एक गंभीर आर्थिक कार्यक्रम और कल्याणकारी कदमों का सहारा लेना होगा। इसलिए, झारखंड की नई सरकार, अगर वह हिंदुत्व को बदलना चाहती है, तो उसे कुपोषण और उसके कठोर परिणाम के खिलाफ मुस्तैदी से काम करना होगा - गरीब कुपोषित वयस्कों और बच्चों की भूख से मृत्यु पर रोक लगानी होगी, विशेष रूप से राज्य सबसे कुपोषित और खराब ढंग से शासित पश्चिम सिंगभूम में जिला में यह सब करना होगा।

कुल मिलाकर, झारखंड की 46.5 प्रतिशत आबादी ग़रीब है, लेकिन उसमें 60 प्रतिशत आदिवासी और दलित गरीब हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- IV (2015-16) से पता चलता है कि झारखंड की 48 प्रतिशत आबादी के पास सबसे कम धन है। इन मुद्दों को ईमानदारी के साथ संबोधित करने की आवश्यकता है। 

फिर भी एक अन्य केंद्रीय मुद्दा रांची और जमशेदपुर के बीच खूंटी क्षेत्र में पत्थलगड़ी आंदोलन का है। नए शासन को इस आंदोलन के बारे में संवेदनशीलता से विचार करने की आवश्यकता है। इस आंदोलन से जुड़े क़रीब 10,000 लोगों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के आरोपों को समाप्त करना सबसे महत्वपूर्ण काम है। संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अनुसार आदिवासियों की भूमि और वन अधिकारों का सम्मान किया जाना आवश्यक है। यह भगवा शासन द्वारा फैलाए गए गैर-आदिवासीकरण को पूर्ववत करना सुनिश्चित करेगा। भाजपा के खिलाफ आदिवासी नाराजगी इतनी अधिक थी कि उसके गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री, रघुबर दास ने बड़े अंतर से अपनी सीट खो दी। 1995 के बाद से राज्य में यह उनका लगातार छठा चुनाव था, और उनका पहला नुकसान, और उन्हें इस बार केवल 33 प्रतिशत वोट ही मिले।

भाजपा शासन को निरस्त करने वाले जनादेश को बड़े पैमाने पर ग़ैर-सांप्रदायिकरण को लॉन्च करने के अवसर के रूप में ज़ब्त किया जाना चाहिए, जो कि शेष भारत के लिए एक मॉडल बन सकता है। जनता के भीतर से सांप्रदायिक ज़हर को निकालना अब तक एक बेहद मुश्किल काम है। हेमंत सोरेन को एक लिंचिंग विरोधी क़ानून बनाना चाहिए; यह बहुलतावादी-धर्मनिरपेक्ष भारत को पुनः हासिल करने का एक तरीक़ा है। संभवतः, यह 2020 में बिहार के आगामी चुनावों के लिए एक कार्यक्रम और रणनीति तैयार करने में मदद करेगा।

लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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