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झारखंड : क्या सियासी दलबदल की कीचड़ में ही खिलाया जाएगा फिर से ‘स्थिर सरकार’ का कमल?

“दल बदल को लेकर पुरानी मान्यता रही है कि राजनेता किसी दल विशेष को त्यागकर दूसरे दल में खुद जाते थे। लेकिन इन दिनों सत्ताधारी दल से हुई विशेष डील के तहत वे बुलाये जाते है अथवा इसके लिए मजबूर किए जाते हैं।”
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फोटो : सोशल मीडिया से साभार

“..... झारखंड के जो विपक्षी राजनेता अपने क्षुद्र स्वार्थों का ‘कमल ’ खिलाने के लिए सियासी दलबदल की कीचड़ में गए हैं, दिखलाता है कि उन्हें यही पसंद है और व्यापक झारखंडी जनभावना व हितों से कोई लेना–देना नहीं है।”

चार दिन पहले झारखंड के विपक्षी विधायकों (कांग्रेस–झामुमो) के पाला बदल कर भाजपा में शामिल होने पर उक्त तल्ख़ टिप्पणी है झारखंडी भाषा आंदोलनकारी और खोरठा भाषा के शिक्षाविद – विद्वान डॉ बीएन ओहदार जी की। वे कहते हैं कि झारखंड राज्य गठन के बाद भाजपा ही वो राजनीतिक पार्टी है जिसने खरीद–फरोख्त और डील की राजनीति का सबसे अधिक इस्तेमाल किया है। यह बीमारी झारखंड में पहले इतनी अधिक नहीं थी।

सियासी पूर्वानुमान के अनुरूप 22 अक्टूबर को भाजपा प्रदेश मुख्यालय में मुख्यमंत्री व अन्य कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं के समक्ष झामुमो व कांग्रेस के चार विधायकों समेत एक चर्चित निर्दलीय विधायक और दो पूर्व नौकरशाहों ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की। मीडिया ने इसे विपक्ष के लिए तगड़ा झटका बताते हुए कुछेक और भी विपक्षी विधायकों के पाला बदलने की संभावना जताई है।

डॉ. ओहदार झारखंड राज्य गठन आंदोलन के ऐसे प्रखर बौद्धिक प्रणेता व एक्टिविस्ट रहे हैं जिन्होंने झारखंडी राजनीति के सारे उतार चढ़ाव को काफी नजदीक से देखा-समझा है। इनके आलवा झारखंडी राजनीति के जानकार कई अन्य बौद्धिक जन का हमेशा से ये आरोप रहा है कि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने ही सत्ता-स्वार्थ के लिए प्रदेश के क्षेत्रीय दलों व नेताओं को राजनीतिक अवसरवाद का पाठ पढ़ाकर दल बदल की संस्कृति को स्थायी रूप से स्थापित कर दिया।      

वर्तमान झारखंड सरकार के ट्राईबल एड्वाइजरी काउंसिल ( टीएसी ) सदस्य और चर्चित आदिवासी नेता रतन तिर्की का मानना है कि हमारी लोकतान्त्रिक–संवैधानिक अधिकारों का खुला दुरुपयोग है। दल बदल को लेकर पुरानी मान्यता रही है कि राजनेता किसी दल विशेष को त्यागकर दूसरे दल में खुद जाते थे। लेकिन इन दिनों सत्ताधारी दल से हुई विशेष डील के तहत वे बुलाये जाते है अथवा इसके लिए मजबूर किए जाते हैं। दल बदलने वाले नेताओं का झारखंड व यहाँ की जनता के हितों और विकास से कोई लेना देना नहीं है , बल्कि अपनी राजनीति का व्यवसाय चलाना है।

जेपी आंदोलन के एक्टिविस्ट रहे वरिष्ठ कानूनविद और आदिवासी अधिकारों के कानूनी जानकार एडवोकेट रश्मि कात्यायन विपक्षी नेताओं के दल बदल को सत्ताधारी दल कि ‘ब्लैकमेलिंग’ राजनीति का नमूना कहते हैं। उन्होंने जेपी आंदोलन के अनुभवों कि चर्चा करते हुए बताया कि उस समय तत्कालीन कांग्रेस सरकार की तानाशाही के खिलाफ ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा लगया जाता था। वर्तमान भाजपा राज तो संसद से लेकर विधानसभा तक को ‘विपक्ष मुक्त’ बनाने की हरचंद कवायद में लगा हुआ है। जो कि हमारी लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली के लिए काफी चिंता का विषय है।

आदिवासी सवालों पर निरंतर सक्रिय रहने वाले वरिष्ठ आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता–बुद्धिजीवी वाल्टर कंडुलना ने अभी अभी सम्पन्न हुए हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में दल बदल कर भाजपा में जानेवाले अल्पेश ठाकुर सरीखे नेताओं को मिली हार की विशेष चर्चा करते हुए कहा है झारखंडी जनता भी इस बार के विधानसभा चुनाव में यहाँ के दल बदलू नेताओं को सबक सिखाएगी।

कंडुलना के अनुसार मीडिया भाजपा सरकार के जीत का जितना भी दावा छाप दे, जमीनी हक़ीक़त को वह नहीं झुठला सकती। राजधानी के बंद कमरों में बैठकर होनेवाले आकलन से कोई भी निष्कर्ष निकाला जाये, सत्ताधारी दल द्वारा विपक्षी नेताओं को तोड़ कर अपने में शामिल करना कहीं न कहीं से उनके डर कि आशंका को ही उजागर करता है।  

उक्त टिप्पणियां कड़वी और एकपक्षीय लग ही सकती हैं मगर विशेषकर झारखंड प्रदेश में यह सबकी आँखों के सामने की खुली सच्चाई रही है कि जब से यह अलग राज्य बना है यहाँ की सत्ता-सियासत में राजनीतिक अवसरवाद और दलबदल की सियासी कीचड़ को फैलाने – बढ़ाने में भाजपा ही सबसे आगे और सफल रही है।

जिसका उदाहरण वर्तमान प्रदेश कि सरकार की स्थिरता के पाये झारखंड विकास मोर्चा के 6 विधायकों को तोड़कर ही टिकाया हुआ है और झविमो द्वारा दायर केस पर सारी सुनवाई हो जाने के बावजूद विधानसभा अध्यक्ष दल बदल करने वालों पर कोई फैसला नहीं दे रहें है। इसके पहले भी राज़्य में पूर्व की में एनडीए सरकारों को बनाने–टिकाने में भाजपा पर विधायकों की खरीद – फरोख्त और डील करने के आरोप लगते रहें हैं । जिनका मुक्कमिल जवाब आजतक पार्टी ने राज़्य की जनता को नहीं दिया है।

एडवोकेट रश्मि कात्यायन द्वारा सत्ताधारी दल पर राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का आरोप यूं ही नहीं है। मसलन पलामू के भावनाथपुर से जिन निर्दलीय विधायक भनूप्रताप शाही और उनके नौजवान संघर्ष मोर्चा के भाजपा में विलय को खुद मुख्यमंत्री सुखद बता रहें हैं, उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने और भ्रष्टाचार के केस और ईडी की जांच जारी है। इनके खिलाफ सबसे अधिक आवाज़ भाजपा ही उठाकर झारखंड की बरबादी–अस्थिरता का कारण ऐसे निर्दलियों को बताती रही है।

सिंहभूम के बहरागोड़ा से जिस झामुमो विधायक कुणाल षाड़गी के भाजपा में शामिल होने को मोदी-रघुवर सरकार के विकास कार्यों से प्रभावित बताया गया, कल तक वे जनता की विभिन्न सभाओं में ‘ कमल फूल जनता की सबसे बड़ी भूल’ कहते नहीं थकते थे। इतना ही नहीं वर्तमान केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा जी भी झामुमो से ही तोड़कर लाये गए हैं।

22 अक्टूबर को पांचों विपक्षी विधायकों के शामिल होने वाले समारोह में ‘भाजपा गंगा मईया की तरह है, इससे जो जुड़ेगा मुख्यधारा में शामिल हो जाएगा’ का स्तुतिगान करनेवाले हजारीबाग के वर्तमान भाजपा सांसद के पिता माननीय यशवंत सिन्हा जी भी 1996 में अपनी पार्टी को छोड़ भाजपा में शामिल हुए थे। लेकिन आज वह इस पार्टी को कोस रहे हैं । ऐसे दर्जनों नेताओं की फेहरिस्त अभी और गिनाई ही जा सकती है।

फिलहाल जिन पांचों विपक्षी विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं उनके बारे में मीडिया को यह भी कहना पड़ रहा है कि -- कोई फंसा है आय से अधिक संपत्ति मामले के तहत सीबीआई – ईडी जांच में  ... तो कोई पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाए जाने से नाराज़ था .... इत्यादि। सनद हो कि राज़्य में जल्द ही विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने की अटकलें तेज़ हो गईं हैं। ऐसे में लोकतान्त्रिक मूल्यों के पालन की दुहाई देनेवाले सभी दलों और विशेषकर सत्ताधारी दल को दल बदल की सियासी कीचड़ से खुद को बेदाग साबित करना, मतदाताओं की निगाह में एक अनिवार्य पहलू बन गया है!

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