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यूपी चुनाव: पांच साल पत्रकारों ने झेले फ़र्ज़ी मुक़दमे और धमकियां, हालत हुई और बदतर! 

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने पिछले पांच सालों में जिस तरह से मीडिया का गला घोंटा है उसे लोकतंत्र का चौथा खंभा शायद कभी नहीं भुला पाएगा। पूर्वांचल की बात करें तो जुल्म-ज्यादती के भय से थर-थर कांप रहे मीडियाकर्मी और तथाकथित जर-खरीद पत्रकार अब सत्तारूढ़ दल से सवाल पूछना ही भूल गए हैं।
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पूर्वांचल के गावों में पहले गरीब तबके के लोग भूख से बिलबिलाते अपने बच्चों को चुप कराने के लिए डराया करते थे, "सो जाओ नहीं तो लकड़सुंघवा (बच्चों को चुपके से उठा ले जाने वाला) आ जाएगा।"  इन दिनों जनता को कुछ इसी तरह का खौफ दिखा रही है भाजपा। इस पार्टी के नेता एक सुर में, एक ही राग अलाप रहे हैं, "भाजपा हारी और अखिलेश यादव जीत गए तो सूबे में "गुंडाराज" आ जाएगा। वे गुंडा राज लाए थे और हम कानून का राज वापस लेकर आए हैं।"

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने पिछले पांच सालों में जिस तरह से मीडिया का गला घोंटा है उसे लोकतंत्र का चौथा खंभा शायद कभी नहीं भुला पाएगा। पूर्वांचल की बात करें तो जुल्म-ज्यादती के भय से थर-थर कांप रहे मीडियाकर्मी और तथाकथित जर-खरीद पत्रकार अब सत्तारूढ़ दल से सवाल पूछना ही भूल गए हैं।प्रेस की आजादी के मामले में योगी आदित्यनाथ सरकार की कार्यप्रणाली पर गौर फरमाएं तो खून से रिसता हुआ मंजर दिखता है। जुल्म-ज्यादतियों से भरा ऐसा मंजर जिसे उत्तर प्रदेश के लोग आज तक नहीं भूल पाए हैं। सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं, पूरे देश को मालूम है कि मिड डे मील में नमक-रोटी परोसे जाने का खुलासा करने वाले पत्रकार पवन जायसवाल पर जुल्म का पहाड़ तोड़ने के लिए योगी सरकार ने धारा 120-बी, 186,193 और 420 के तहत फर्जी मामला दर्ज करा दिया था। यह वाक़या अगस्त 2019 का है, जब पूर्वांचल के मिर्ज़ापुर के एक प्राइमरी स्कूल में बच्चों को मिड डे मील में नमक-रोटी परोसी जा रही थी। इस मामले का भंडाफोड़ करने पर योगी सरकार ने पत्रकार पर सिर्फ इसलिए फर्जी मुकदमा लाद दिया कि दुनिया भर में उसकी नाक कट रही थी। स्कूली बच्चों को घटिया भोजन परोसे जाने के मामले में पुलिस आंचलिक पत्रकार पवन जायसवाल के पीछे तब तक पड़ी रही, जब तक भारतीय प्रेस काउंसिल ने इस मामले को संज्ञान में नहीं लिया। योगी सरकार की ज्यादती यहीं नहीं रूकी। सरकार ने उस अखबार का विज्ञापन भी रोक दिया, जिसमें यह खबर प्रकाशित हुई थी। इस घटना के कुछ ही दिन बाद आज़मगढ़ जनपद के आंचलिक पत्रकार संतोष जायसवाल को 07 सितंबर 2019 को एक प्राथमिक विद्यालय में बच्चों से जबरदस्ती परिसर की सफाई कराए जाने का मामला उजागर करने पर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। 

यूपी के मिर्जापुर में बच्चों को मिड डे मील योजना में नमक रोटी खिलाने के इसी मामले में पत्रकार पर दर्ज हुआ था फर्जी मामला

भाजपा सरकार के कुशासन का पर्दाफाश करने वाली दोनों घटनाओं का जिक्र करते हुए काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तल्ख टिप्पणी करते हैं। वे कहते हैं, "यूपी के विधानसभा चुनाव में जिस राज को भाजपा नेता गुंडाराज बता रहे हैं, उससे कई गुना ज्यादा तो कारनामा पिछले पांच सालों में योगी सरकार ने कर दिखाया है। अपनी नासमझी, अयोग्यता और नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए यह सरकार पूरे पांच साल तक पत्रकारों को निशाना बनाती रही। उसकी इन आतंक भरी कार्रवाई से एक तरफ जहां पत्रकार प्रताड़ित हुए, वहीं दूसरी तरफ आम जनमानस में जबर्दस्त भय का संचार हुआ। इस सरकार के पहले तक लोगों को यह भरोसा रहता था कि उनके साथ होने वाली नाइंसाफी या किसी तरह के जुल्म के खिलाफ पत्रकार खड़ा हो सकता है, लेकिन योगी सरकार के आने के बाद जिस भी पत्रकार ने आम आदमी की तकलीफों को उजागर करने की कोशिश की, उस पर प्रशासन बेशर्मी भरी क्रूरता से पेश आया। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि पिछले पांच सालों में फर्जी मामलों में सबसे ज्यादा पत्रकार जेल भेजे गए। भाजपा सरकार की इस दमनात्मक कार्रवाई के बीच ऐसे कई मामले सामने आए, जिनमें पुलिस ने पत्रकारों को सरेआम लठियों से पीटा। अगर यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि योगी सरकार में समाज का सबसे डरा हुआ कोई तबका रहा तो वह पत्रकार ही थे।"

प्रदीप कहते हैं, "इसमें कोई संशय नहीं है कि भाजपा सरकार ने लोकतंत्र के चौथे खंभे को बुरी तरह लहूलुहान और भोथरा किया। सभी पत्रकार संगठनों ने योगी सरकार के खिलाफ आवाज भी उठाई, लेकिन वो नक्कारखाने में तूती ही साबित हुई। कई मौके तो ऐसे भी आए कि सरकार ने पत्रकार संगठनों को ही धमकी दे डाली। यूपी में पिछले पांच सालों में पत्रकारों को व्यक्तिगत तौर पर, सामूहिक तौर पर और संस्थागत रूप में जबर्दस्त आतंकित और उत्पीड़ित किया गया। देश के पैमाने पर देखें तो मोदी सरकार ने अपने खुफिया संसाधनों के अलावा तकनीक का इस्तेमाल ईमानदार पत्रकारों पर हमला बोलने के लिए किया। साथ ही उन मीडिया संस्थानों को भी नहीं बख्शा जिन्होंने सरकार की दोषपूर्ण नीतियों पर सवाल खड़ा करने की हिम्मत दिखाई। न्यूजक्लिक, द वायर और न्यूजलांड्री सरीखे मीडिया संस्थानों को परेशान करने के लिए झूठे मामले गढ़कर छापे डलवाए गए। पेगासस मामले में भी भाजपा सरकार ने मीडिया कर्मियों और संस्थानों की जासूसी कराई और उन्हें निशाना बनाया। फासिस्ट सोच वाली भाजपा सरकार अगर सबसे पहले कोई चीज छीनती है तो वह है मीडिया की आजादी और उसकी आवाज। इस मामले में मोदी सरकार के सबसे बड़े अलंबरदार मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ ही साबित हुए। समाज का कोई ऐसा तबका नहीं है जो इस सरकार में की जुल्म-ज्यादतियों से डरा हुआ न हो।" 

इसे सुशासन कहें या गुंडाराज?

पत्रकारों पर जुल्म और ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाने वाले फोरम "कमेटी अगेंस्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट्स" (काज) ने उत्तर प्रदेश में पिछले पांच सालों में पत्रकारों पर हुई जुल्म और ज्यादतियों का विस्तृत आंकड़ा जारी किया है। जिस योगी राज को भाजपा सुशासन बता रही है उसके कार्यकाल में रमन कश्यप, शलभ श्रीवास्तव, राकेश सिंह, नवीन गुप्ता, सुधीर सैनी समेत आधा दर्जन से अधिक पत्रकारों की हत्याएं हुईं। इनके अलावा सरफराज वारसी, नितिन श्रीवास्तव, राजी सिद्दीकी, फक्र-ए-आलम, पटेश्वरी सिंह, अमित शर्मा, कृष्ण कुमार सिंह और सोनभद्र के पत्रकार मनोज सोनी पर जानलेवा हमले किए गए। ये घटनाएं साल 2019 से 2021 के बीच हुईं। पत्रकारों को फर्जी तरीके से निरुद्ध करने के मामले में योगी सरकार ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ डाले। काज की रिपोर्ट के मुताबिक, द वायर के संपादक सिद्धार्थ वलदराजन, स्क्रोल की संपादक सुप्रिया शर्मा, भड़ास के संपादक यशवंत सिंह के अलावा पवन जायसवाल, पत्रकार निधि सुरेश, मनोज शुक्ला, राना अय्यूब, सबा नकवी, मोहम्मद जफर, रविंद्र सक्सेना, बच्चा गुप्ता, आशीष तोमर, शकील अहमद आदि पर फर्जी केस लादे गए। साथ ही सिद्दीकी कप्पन, शर्जील उस्मानी, शलभ मणि त्रिपाठी, संतोष जायसवाल, अंजू शुक्ला, इशिता सिंह और अंशुल कौशिक को सच की पड़ताल करने पर जेल की सलाखों में ठूंस दिया गया। ऐसे पत्रकारों की संख्या तो सैकड़ों में है जिन्हें परेशान करने के लिए योगी सरकार के नुमाइंदों ने कानूनी नोटिसें भेजे और धमकाया भी। 

यूपी में पत्रकारों पर जब जुल्म और ज्यादती की घटनाएं बढ़ने लगीं तब कमेटी अगेंस्ट असाल्ट आन जर्नलिस्ट्स (काज) की वक्तव्य कमेटी के सदस्य आनंद स्वरूप वर्मा, एके लारी, परंजय गुहा ठकुराता, राजेश वर्मा, संतोष गुप्ता और शेष नारायण सिंह को 28 दिसंबर 2019 को दुनिया की पत्रकार बिरादरी से अपील करनी पड़ी कि वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों की रक्षा करें। यूपी में पत्रकारों की सुरक्षा और स्वतंत्रता दोनों ही खतरे में है। काज ने निंदा वक्तव्य जारी करते हुए कहा, "जिनके हाथ में कानून व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने कुछ खास राज्यों की सरकारों के साथ मिलकर जैसा व्यवहार किया है, वह दिखाता है कि वे संदेशवाहक को ही निशाना बनाने पर आमादा हैं। सबसे बुरे हमले उन सभी राज्यों में हुए है, जहां भारतीय जनता पार्टी का शासन है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में, जहां सबसे ज्यादा पत्रकारों की मौतें हुई हैं। पुलिस पत्रकारों को निष्पक्ष तरीके से अपना काम करने से रोक रही है। इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल के अलावा देखें तो कभी भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) में वर्णित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को इस बुरे तरीके से दमित नहीं किया गया, जैसा वर्तमान में हो रहा है।"

राइट एंड रिस्क एनालिसिक ग्रुप (आरआरएजी) के एक अध्ययन के मुताबिक साल 2020 में भारत में जिन 228 पत्रकारों को निशाना बनाया गया, उनमें सर्वाधिक प्रताड़ना उत्तर प्रदेश के पत्रकारों को झेलनी पड़ी। आरआरएजी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2020 में यूपी में पत्रकारों पर कुल 37 मामले दर्ज किए गए। इस अवधि में भारत में कुल 13 पत्रकार मारे गए, इनमें सबसे ज्यादा छह पत्रकार यूपी के थे। स्टडी रिपोर्ट कहती है कि जिन 13 पत्रकारों की मौत हुई थी, उनमें से 12 की हत्या, नान स्टेट एक्टर्स/अपराधियों ने की। एक पत्रकार की हत्या दो पुलिसकर्मियों ने नान स्टेट एक्टर्स के साथ मिलकर की। चिंताजनक बात यह रही कि हत्या से पहले इन पत्रकारों ने पुलिस अफसरों को संभावित खतरे की सूचना दी थी, लेकिन पुलिस उन्हें सुरक्षा देने में नाकाम रही। 

भारतीय पत्रकारों की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले देश के प्रमुख एनजीओ राइट्स एंड रिस्क्स एनेलिसिस ग्रुप ने हाल में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि पत्रकारों पर हमलों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है। पत्रकारों के लिए बगदाद, काबुल और इस्लामाबाद के बाद उत्तर प्रदेश सबसे खतरनाक जगह है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की एक रिपोर्ट में भारत को पत्रकारिता के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में शामिल किया गया है। संस्था द्वारा जारी 2021 वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत को 180 देशों में 142वां स्थान मिला है, जो मीडिया स्वतंत्रता की खराब स्थिति को जाहिर करता है। पिछले साल रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने दुनिया के 37 ऐसे नेताओं की सूची जारी की थी, जो मीडिया पर लगातार हमलावर हैं, उनमें भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी नाम है।

लॉकडाउन के समय बढ़े हमले

कोविड काल में लॉकडाउन के दौरान बिगड़े हुए हालात पर रिपोर्ट करने के कारण उत्तर प्रदेश में कम से कम 55 पत्रकारों और संपादकों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ अथवा उन्हें गिरफ्तार किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार की नाकामियों को तोपने के लिए नौकरशाही ने काफी तेजी दिखाई है और कुछ ही महीनों में कई सारे ऐसे मामले सामने आए, जहां प्रशासन पर सवाल उठाने वाली खबरों के कारण पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज की गई। साल 2020 में लॉकडाउन शुरू होते ही मार्च के अंतिम दिनों में भूख से बेहाल मुसहर समुदाय के लोगों की हालात पर रिपोर्ट लिखने पर वाराणसी के जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा ने इस लेखक के लिए कानूनी नोटिस भिजवाया और गिरफ्तार करने की धमकी भी दी। यही नहीं, अपने बेटे के साथ अंकरी घास खाते हुए मीडिया और सोशल मीडिया में तस्वीरें भी वायरल की। घास को दाल बताते हुए उन्होंने फर्जी ढंग से गिरफ्तार करने के लिए ताना-बाना तक बुन डाला। यह घटना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र से सटे वाराणसी के कोइरीपुर गांव की है, जहां मुसहर समुदाय के लोग घास खाने को मजबूर हो गए थे। इस मामले में नौकरशाही की कलई खुलने लगी तो खुन्नस निकालने के लिए पत्रकार मोहम्मद इरफान को अकारण शांतिभंग में गिरफ्तार लिया गया। साथ ही विजय सिंह नामक पत्रकार को सरेराह गोदौलिया चौराहे पर पीटा गया और बाद में हवालात में डाल दिया गया।

सच को झूठ में बदलने के लिए अपने बेटे के साथ अकरी घास खाते हुए बनारस के डीएम कौशलराज शर्मा

योगी सरकार में बेअंदाज रहे वाराणसी जिला प्रशासन ने दबाव बनाकर नई दिल्ली में समाचार पोर्टल ‘स्क्रोल डॉट इन’  की कार्यकारी संपादक और एडिटर-इन-चीफ सुप्रिया शर्मा के खिलाफ एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) कानून 1989 और आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत केस दर्ज कराया। वाराणसी के रामनगर थाने में डोमरी गांव की माला देवी से शिकायत दर्ज करवाई गई कि सुप्रिया शर्मा ने अपनी रिपोर्ट में गलत तरीके से बताया है कि कोरोना वायरस के कारण लागू लॉकडाउन के कारण आपातकालीन भोजन की व्यवस्था न होने से उनकी स्थिति और खराब हुई है। सुप्रिया ने डोमरी गांव के लोगों की स्थिति की जानकारी दी थी और गांव वालों के हवाले से बताया था कि लॉकडाउन के दौरान किस तरह से उनकी स्थिति और बिगड़ गई है। डोमरी उन गांवों में से एक है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद लिया है। सुप्रिया की रिपोर्ट में बताया गया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के फेल हो जाने से गांव के गरीब लोगों को जरूरी राशन के बिना गुजारा करना पड़ रहा है। वरिष्ठ पत्रकार सुप्रिया शर्मा पर यह एफआईआर भी कोविड-19 लॉकडाउन से प्रभावित लोगों की स्थिति पर रिपोर्ट करने, स्वतंत्र पत्रकारिता को डराने और चुप कराने की कोशिश थी। 

वाराणसी कोइरीपुर गांव की मुसहर बस्ती में लाकडाउन के दौरान घास खाने पर मजबूर हो गए थे ये बच्चे 

25 मार्च को लॉकडाउन के दौरान अयोध्या में एक धार्मिक सभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा शामिल होने पर एक खबर करने के कारण यूपी पुलिस ने “द वायर” के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ दो एफआईआर दर्ज की थी। वरदराजन के खिलाफ कार्रवाई करने लिए पुलिस को इतनी जल्दी थी कि उनकी एक टीम लॉकडाउन के बीच 700 किमी की यात्रा कर नई दिल्ली पहुंची और घर जाकर उन्हें नोटिस थमाया।  

वो घटनाएं जो सुर्खियां बनीं

उत्तर प्रदेश में योगी के शासन में पत्रकारों पर हमले दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बनती रही हैं। लखीमपुर में आंदोलन के समय केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय कुमार मिश्र टेनी के पुत्र आशीष मिश्र के काफिले ने पिछले साल किसानों के साथ स्थानीय पत्रकार रमन कश्यप को भी कुचल दिया था। अभी हाल में सहारनपुर में ओवरटेकिंग के दौरान साइड लगने पर कार सवार बदमाशों ने चिलकाना के मोहल्ला गढ़ी निवासी 28 वर्षीय पत्रकार सुधीर सैनी की बेरहमी से हत्या कर दी। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन से संबद्ध सुधीर सैनी, शाह टाइम्स अखबार में काम करते थे। हत्यारों ने पत्रकार के शव को छुपाने की नीयत से पानी से भरे एक गड्ढे में फेंक दिया था।

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उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सख्त रवैये का काला सच यह है कि बलरामपुर में दबंगों ने एक पत्रकार राकेश सिंह निर्भीक व उनके साथी पिंटू साहू को जिंदा जला दिया। इस मामले में योगी सरकार कई दिनों तक लीपापोती करती रही। प्रतापगढ़ ज़िले में पत्रकार सुलभ श्रीवास्तव की एक शराब माफिया ने सिर्फ इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि पुलिस अफसरों ने उसे सुरक्षा नहीं दी। धमकियां मिलने पर पत्रकार सुलभ ने इलाहाबाद ज़ोन के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक और प्रतापगढ़ के पुलिस अधीक्षक से मिलकर गुहार लगाते हुए अपनी हत्या की आशंका जताई थी। इस मामले में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का वह ट्वीट आज भी मौजूद है जिसमें उन्होंने सवाल किया था कि 'क्या जंगलराज को पालने-पोसने वाली यूपी सरकार के पास पत्रकार सुलभ श्रीवास्तव के परिजनों के आंसुओं का कोई जवाब है?'

केरल के पत्रकार सिद्दीक़ी कप्पन को पिछले साल अक्टूबर में उस वक्त गिरफ्तार कर लिया गया था जब वह उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुए एक बलात्कार और हत्या के मामले की खबर के सिलसिले में यूपी आए थे। कप्पन तभी से आईपीसी की धारा 153ए (समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना), 295ए (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना), 124ए (देशद्रोह), 120बी (साजिश), यूएपीए के तहत जेल में हैं। पिछले दिनों उनकी 90 वर्षीय मां का निधन हुआ तब भी वह उनके पार्थिव शरीर को कंधा नहीं दे पाए। 

जुलाई 2021 में उन्नाव के मुख्य विकास अधिकारी दिव्यांशु पटेल ने एक टीवी रिपोर्टर की सिर्फ इसलिए पिटाई कर दी थी कि उसने स्थानीय परिषद के सदस्यों को मतदान से रोकने के लिए सत्तारूढ़ दल द्वारा किए जा रहे अपहरण में मदद करने वाली फिल्म बना ली थी। इस मामले में इंडियन एडीटर्स गिल्ड ने भी योगी आदित्यनाथ सरकार को आड़े हाथ लिया था। हाथरस का हवाला देते हुए गिल्ड ने कहा था, "सिद्दीकी कप्पन, पत्रकार जिसे 2020 में एक दलित महिला के बलात्कार और हत्या की रिपोर्ट करते हुए गिरफ्तार किया गया था, परिवार और नागरिक समाज द्वारा उसे निष्पक्ष सुनवाई के लिए कई अपीलों के बावजूद अभी भी यूएपीए के तहत जेल में है।"

07 सितंबर, 2020 को बिजनौर में दबंगों के डर से वाल्मीकि परिवार के पलायन करने संबंधी ख़बर के मामले में योगी सरकार ने पांच पत्रकारों आशीष तोमर, शकील अहमद, लाखन सिंह, आमिर ख़ान तथा मोइन अहमद के ख़िलाफ आईपीसी की धारा 153A, 268 और 505 के तहत एफ़आईआर दर्ज कराई थी। बाद में कोर्ट ने इस मामले में त्रुटिपूर्ण विवेचना की बात कहते हुए इसे संज्ञान लेने से इंकार कर दिया था। 

साल 2019 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर कथित तौर पर अशोभनीय टिप्पणी के मामले में पत्रकार प्रशांत कनौजिया के ख़िलाफ़ लखनऊ के हज़रतगंज कोतवाली में एफ़आईआर दर्ज कराई गई थी। बाद में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था। पुलिस का आरोप था कि प्रशांत ने मुख्यमंत्री पर आपत्तिज़नक टिप्पणी करते हुए उनकी छवि ख़राब करने की कोशिश की थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रशांत कनौजिया को रिहा किया गया। कोर्ट ने न सिर्फ़ प्रशांत कनौजिया की गिरफ़्तारी पर सवाल उठाते हुए काफ़ी सख़्त टिप्पणी की थी, बल्कि 11 दिन की न्यायिक हिरासत में भेजने संबंधी मजिस्ट्रेट के फ़ैसले की भी आलोचना की थी। प्रशांत कनौजिया पर दोबारा 18 अगस्त को एक ट्वीट की वजह से लखनऊ के ही हज़रतगंज कोतवाली में फिर से एफ़आईआर दर्ज हुई और उन्हें दोबारा गिरफ़्तार कर लिया गया था। 

"लोकतांत्रिक मूल्यों को नुक़सान"

सीएम योगी आदित्यनाथ के शासन में पत्रकारों पर जुल्म और ज्यादतियां बढ़ने लगीं तो पत्रकारों के वैश्विक संगठन कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) के एशिया प्रतिनिधि कुनाल मजुमदार बनारस आए और उन्होंने घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया। बाद में सीपीजे ने रिपोर्ट जारी करते हुए कहा, "पत्रकारों के खिलाफ कुछ कार्रवाइयां पुलिस और प्रसासनिक अधिकारियों ने किए तो कुछ संगठित आपराधिक गिरोहों ने, जिनमें कई बालू माफिया शामिल थे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार की आलोचना करने पर देश के ईमानदार पत्रकारों पर जानबूझकर मामले दर्ज किए। कई टीवी चैनलों के पत्रकारों को कथित तौर पर हिंसा के लिए उकसाने और मुख्यमंत्री को बदनाम करने की कोशिश के आरोप में गिरफ्तार किया गया। 

सीपीजे द्वारा किए गए तात्कालिक दस्तावेजीकरण के अनुसार यूपी के शामली जिले में एक निजी समाचार चैनल न्यूज़ 24 के एक पत्रकार को दो घंटे तक हिरासत में रखने के दौरान उसकी जमकर पिटाई की गई। बाद में पत्रकार के कपड़े उतारकर पुलिसकर्मियों ने उसके मुंह पर जबरन पेशाब भी किया। वाराणसी के एक फोटो जर्नलिस्ट बच्चा गुप्ता के खिलाफ अतिचार एवं आपराधिक षड्यंत्र करने का फर्जी मामला उस समय दर्ज किया गया जब उन्होंने गंगा तट पर बाढ़ प्रभावित जल पुलिस थाने में बच्चों द्वारा सफाई करवाए जाने की तस्वीरें छापीं। 

सीपीजे के दस्तावेजों के मुताबिक योगी राज में जब किसी अफसर अथवा राजनेता ने पत्रकारों को निशाना बनाया तो पुलिस ने किसी तरह का हस्तक्षेप ही नहीं किया। मिर्ज़ापुर जिले में हिंदी अखबार हिन्दुस्तान के पत्रकार कृष्ण कुमार सिंह पर पार्किंग माफिया ने बेरहमी से हमला किया। पुलिस अफसरों से सामने हुए इस हमले की रिपोर्ट दर्ज करने में छह घंटे से अधिक का समय लिया गया। सोनभद्र के पत्रकार मनोज कुमार सोनी पर एक भूमाफिया के इशारे पर छह लोगों ने लोहे की रॉड से हमला किया, जिससे उनके घुटने टूट गए और गंभीर चोटें आईं। शिकायत दर्ज कराने के बावजूद पुलिस ने कोई पुख्ता कार्रवाई नहीं की। सीपीजे की रिपोर्ट के मुताबिक, "उत्तर प्रदेश में पुलिस छोटे-छोटे मामलों में भी पत्रकारों के पीछे पड़ जा रही है। एक दौर था जब राजनेता आपको चाय पिलाकर आपसे आपके सूत्र के बारे में पूछते थे, लेकिन अब वे स्पष्ट रूप से पत्रकारों के लिए अपशब्द बोलते हैं। ऐसा नहीं लगता कि हम लोग लोकतांत्रिक परिवेश में रह रहे हैं।"

पत्रकारों के लिए यूपी असुरक्षित 

जाने-माने साहित्याकर एवं पत्रकार रामजी यादव कहते हैं, "पत्रकारों पर हुए ताबड़तोड़ हमलों को देखें तो हमारे दिमाग में यही बात आती है कि योगी आदित्यनाथ और उनका निजाम यूपी में पत्रकारों के रहने के लिहाज से असुरक्षित है। यहां पत्रकारों की स्वतंत्रता और सुरक्षा दोनों ही खतरे में है। भले ही प्रेस के लिहाज से मेक्सिको को सबसे खतरनाक देश कहा जा रहा हो, मगर वहां पत्रकार कम से कम सरकार की चाटुकारिता न करने के चलते नहीं मारे जा रहे हैं। स्वतंत्र पत्रकारों को जिस तरह की धमकियां दी गईं, उसे इस राज्य के लोग कभी नहीं भूल पाएंगे। योगी सरकार ने कोरानाकाल में तो आपातकाल की तरह पत्रकारों पर हमले कराए और धमकियां दिलाईं। आरटीआई कार्यकर्ताओं को भी नहीं बख्शा गया। सबकी जुबान बंद कर दी गई। अब कुछ जरखरीद पत्रकारों के दम पर ही भाजपा अफवाह फैला रही है कि यूपी में अखिलेश सरकार में गुंडाराज था और अब सुशासन है।" 

रामजी यह भी कहते हैं, "पूरी दूनिया को मालूम है कि मोदी सरकार ने भारत के सभी बड़े मीडिया संस्थानों को अपनी "गोदी मीडिया" में बदल दिया है। जब भी किसी राज्य में चुनाव होता है तो ये संस्थान भाजपा के प्रति सकारात्मक कवरेज देते हैं, सत्तारूढ़ दल की खामियों पर पर्दा डालते हैं और सरकार की उपलब्धियों का डंका पीटते नजर आते हैं। संपादकीय लेखों में भी ये अखबार सत्तारूढ़ दल को सीधे-सीधे भारी रिश्वत देते नजर आते हैं। दूसरा तरीका है टैक्स रेड चलाने का, जो एक प्रकार की धमकी है। योगी सरकार ने कई मीडिया संस्थानों को काली सूची में डालकर उनके विज्ञापनों को रोक दिया जो सत्तारूढ़ दल की दोषपूर्ण नीतियों के खिलाफ कलम चलाया करते थे। यह भी अप्रत्यक्ष धमकी ही है। इंडिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2020 में जो मामले दर्ज हैं, वह मीडिया की स्वतंत्रता पर बुनियादी हमले को रेखांकित करते हैं। जो संदेश हर बार दिया जाता है, वह है कि या तो पूरी तरह बिक जाओ, अन्यथा ऐसे हमलों से बच पाना संभव न होगा, सावधान!"

वाराणसी में ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के अध्यक्ष सीबी तिवारी कहते हैं, "पत्रकार का काम ऐसा है कि किसी न किसी पक्ष को पीड़ा पहुंचेगी ही, लेकिन सरकार अपनी आलोचना न सुन सके, ये स्थिति बेहद गंभीर है। हो सकता है कि इसके पीछे सरकार का प्रचंड बहुमत का अहंकार हो, लेकिन यह लोकतांत्रिक मूल्यों को कितना नुक़सान पहुंचा रहा है, इसका अंदाज़ा शायद सरकार में बैठे लोगों को नहीं है। प्रशासनिक स्तर पर ऐसी कार्रवाइयों का सिर्फ़ एक मक़सद है पत्रकारों को डराना। पत्रकार ने ख़बर लिखी और किसी को आपत्ति है तो उसके लिए कई फ़ोरम बने हैं। आप संपादक से शिकायत कर सकते हैं और प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया में जा सकते हैं। यहां तक कि कोर्ट में भी जा सकते हैं, लेकिन आप उसके साथ अपराधी की तरह पेश आएंगे, एफ़आईआर कर देंगे और फिर गिरफ़्तार कर लेंगे, ऐसा नहीं होना चाहिए। इससे साफ़ पता चलता है कि आलोचना सुनने की सहनशक्ति आप में नहीं है और आप प्रतिशोध की भावना से काम कर रहे हैं।"

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "भाजपा का छल, धोखा और जुल्म यूपी की जनता समझे या न समझे, लेकिन लहूलुहान चौथा खंभा इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि भाजपा जिस तरह का सुशासन लाने की बात कर रही है वह जालिम ही नहीं, क्रूर और अहंकार से लवरेज है।

यूपी में पत्रकारों का लगातार दमन और बढ़ती पाबंदियों ने मीडिया की आजादी के लिए बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। जो पत्रकार सरकार से सवाल करते हैं उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने का अभियान चलाया जाता है। कई बार तो बलात्कार या हत्या जैसी धमकियां भी दी जाती हैं। पुलिस झूठे मामले गढ़ देती है। योगी सरकार अलग-अलग तरीकों से पत्रकारों को काम करने से रोकती रही है। कभी उन्हें धमकाकर, फर्जी गिरफ्तारी या फर्जी मामले दर्ज करके अथवा कई तरह की पाबंदियां लगाकर चुप कराती रही है। जो सरकार के खिलाफ बोलते हैं उन पर देशद्रोह जैसे मुकदमों और गिरफ्तारी का खतरा लगातार बना रहता है।" 

यह तो रही पत्रकारों पर जुल्म और ज्यादतियों की दास्तां। यूपी में आम आदमी कितना दहशत में है वह पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल) की हालिया रिपोर्ट से पता चलता है। पीयूसीएल ने यूपी में बढ़ते मानवाधिकार हनन के मामलों पर गहरी चिंता जताते हुए फरवरी 2022 के पहले हफ्ते में एक विस्तृत रिपोर्ट जारी है। रिपोर्ट में कहा है कि मानवाधिकार हनन के 40 फीसदी मामले अकेले यूपी के ही हैं। सिर्फ पत्रकार ही नहीं, महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के मामले में भी यूपी देश में अव्वल है। दलित उत्पीड़न की सर्वाधिक 25.8 फीसदी घटनाएं इसी राज्य में हुई हैं। योगी राज में फर्जी मुठभेड़ के बढ़ते मामलों ने भी दुनिया के मानवाधिकार संगठनों का ध्यान यूपी की ओर खींचा है। यह वह स्थिति है जो हर समय डर में जीने के लिए अभिशप्त हैं। पीयूसीएल ने मांग की है कि सभी दल अपने चुनावी घोषणा में वादा करें कि नई सरकार के गठन के बाद वे इस दिशा में तत्काल सख्त कदम उठाएंगे।

(विजय विनीत बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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