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किशोर न्याय बोर्ड ने वन गुर्जर युवा को किया दोषमुक्त, पुलिस व वनकर्मियों पर हमले का था आरोप

"उत्तराखंड में वनाधिकार की लड़ाई का प्रमुख चेहरा बन चुके बुजुर्ग वन गुर्जर गुलाम मुस्तफा चोपड़ा का संघर्ष आखिरकार रंग लाया। तीन साल की लंबी लड़ाई के बाद सच की जीत हुई। किशोर न्याय बोर्ड ने उनके दूसरे नाबालिग बेटे को भी दोषमुक्त करार देते बरी कर दिया। यही नहीं, बोर्ड ने किशोर के खिलाफ प्रचलित जांच को समाप्त करते हुए, उसके संरक्षक और जमानतियों को भी सभी दायित्वों से मुक्त (उन्मोचित्त) कर दिया है। खास है कि विभाग द्वारा, मुस्तफा के दो नाबालिग बेटों को, बालिग बताते हुए, उन पर, वन विभाग एवं पुलिसकर्मियों पर हमला करने का आरोप लगाया गया था। लेकिन अंततः सच की जीत हुई।" 
justice
प्रतीकात्मक तस्वीर

वन विभाग द्वारा मुस्तफा के नाबालिग बेटों के खिलाफ थाना क्लेमेंटाउन, देहरादून में धारा 147, 148, 504, 506, 332, 333, 353 और 307 आईपीसी में मुकदमा दर्ज कराया गया था। और दोनों बेटों को बालिग बताते हुए, इन गंभीर धाराओं में जेल में डाल दिया था। बाद में कोर्ट के हस्तक्षेप आदि के चलते किशोर न्याय बोर्ड में मामले की सुनवाई हुई। किशोर न्याय बोर्ड देहरादून के प्रधान मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) संदीप कुमार तिवारी और सदस्य बिमला नौटियाल तथा निरुपमा रावत की अध्यक्षता वाले बोर्ड ने एक लंबी सुनवाई के बाद न सिर्फ किशोर को नाबालिग माना बल्कि दोषमुक्त करार देते हुए, गंभीर धाराओं वाले अपराध से भी बरी कर दिया।

यही नहीं, किशोर के खिलाफ प्रचलित जांच को समाप्त करते हुए, बोर्ड ने किशोर के संरक्षक और जमानतियों को भी उनके दायित्वों से मुक्त कर दिया। खास है कि मुस्तफा के बड़े बेटे को करीब 6 माह पूर्व आरोप मुक्त कर दिया गया था। इस बड़ी लड़ाई में मिली जीत से जहां मुस्तफा और उसका परिवार गदगद है वहीं, उत्तराखंड के वन गुर्जर समुदाय के चेहरे पर भी हक (वनाधिकार) पाने को लेकर नई उम्मीद जगी है।

मामला राजाजी नेशनल पार्क देहरादून की रामगढ़ रेंज स्थित आशारोडी बीट के जंगल में अरसे से डेरा बनाकर रहते आ रहे वन गुर्जर मुस्तफा चोपड़ा को वन भूमि से जबरन बेदखल करने की कोशिशों का है। 2020 की 16 व 17 जून को क्षेत्राधिकारी के नेतृत्व में वन विभाग की हथियारबंद फोर्स द्वारा देहरादून-दिल्ली हाईवे से करीब 500 मीटर अंदर जंगल में गुलाम मुस्तफा के डेरे पर जाकर तोड़फोड़ की गई थी। वनधिकार की इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के अनुसार, पुलिस मुस्तफा के डेरे पर बिना किसी पूर्व सूचना के पहुंची थी और उनके डेरे को तोड़कर नेस्तनाबूत करने लगी। उस समय डेरे पर केवल महिलाऐं थीं। महिलाओं ने वन विभाग द्वारा डेरे को उजाड़ने का विरोध किया, परन्तु वन विभाग की फोर्स ने उनकी एक न सुनी। महिलाओं की आवाज़ सुन डेरे के स्वामी मुस्तफा चोपड़ा आदि डेरे पर आए। उन्होंने वन क्षेत्राधिकारी के समक्ष अपनी बात को रखते हुए बताया, कि इस ज़मीन पर वनाधिकार कानून 2006 के तहत व्यक्तिगत व सामुदायिक दावे प्रपत्र शासन स्तर पर विचाराधीन हैं, परन्तु आरोप है कि वन क्षेत्राधिकारी ने मुस्तफा चोपड़ा की कोई बात नहीं सुनी। 

मामले में मुस्तफा की बेटी नूरजहां व परिवार की महिलाओं के साथ जमकर अभद्रता और मारपीट की गई थी और पांच महिलाओं सहित मुस्तफा के परिवार व साथियों सहित 10 लोगों पर गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज करा दिए गए। इनमें मुस्तफा के 2 नाबालिग बेटे भी शामिल हैं। 

मुस्तफा याद करते हुए बताते हैं कि 16 जून 2020 को उनके डेरे पर तोड़फोड़ के बाद, नाबालिग बच्चों और महिलाओं सहित 10 लोगों को गिरफतार कर जेल भेज दिया गया था। करीब 9 दिन बाद गिरफ्तार महिलाओं को रिहा किया गया था। जबकि, बुजुर्ग गुलाम मुस्तफा समेत तीन लोगों व बच्चों को जमानत मिलने में करीब दो से चार महीने तक का समय लग गया। वहीं, अब आकर करीब तीन साल बाद उसके बेटों को किशोर न्याय बोर्ड द्वारा दोषमुक्त किया गया है। एक बच्चे को करीब 6 माह पहले और एक बच्चे को अभी हाल ही में 13 दिसंबर को दोषमुक्त किया गया है। 
आदेश की कॉपी

खास है कि मुस्तफा और उसकी बेटी नूरजहां ने भी उनका डेरा उजाड़ने और महिलाओं के साथ अभद्रता व मारपीट की धाराओं में पुलिस और वन कर्मियों के खिलाफ दो अलग अलग तहरीर दी लेकिन इनका मुकदमा दर्ज नहीं किया गया। बाद में कोर्ट के माध्यम से 20 वनकर्मियों और 4 पुलिस वालों पर डेरे में तोड़फोड़, मारपीट और महिलाओं से अभद्रता आदि धाराओं में मुकदमा दर्ज हुआ जो चल रहा है।

गुलाम मुस्तफा चोपड़ा (80) और उनकी बेटी नूरजहां (40) ने पुलिस को दी तहरीर (शिकायत) में आरोप लगाया था कि 16 जून, 2020 को, “वन अधिकारियों ने महिला को लाठियों से पीटा, उसकी सलवार फाड़ दी और उसके बाल पकड़कर उसे फर्श पर घसीटा। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, आसा रोड़ी बीट के ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि 17 जून को अधिकारी कम से कम 30 पुलिस व वन कर्मियों के साथ आए और कथित तौर पर महिलाओं के साथ मारपीट की। शिकायत पत्र के मुताबिक उनके पास लाठी-डंडे और बंदूकें थीं। इसमें आरोप लगाया गया कि जब महिलाएं बेहोश हो गईं और खून बह रहा था, तो उन्हें देहरादून के पंडित दीन दयाल उपाध्याय सरकारी अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल से ग्रामीणों को मिले मेडिकल सर्टिफिकेट में "सक्रिय रक्तस्राव" और "लैकरेशन" का उल्लेख था। यह सब, कथित तौर पर तब हुआ जब पिता-पुत्री ने अपने शिविरों (डेरों) को ध्वस्त करने के अधिकारियों के प्रयास का विरोध किया। 

ग्रामीणों के अनुसार अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) [एफआरए] अधिनियम, 2006 के तहत उनका वन अधिकारों का दावा अभी भी लंबित है। शिकायत के अनुसार, महिला ने "बेदखली पर शीर्ष अदालत की रोक और उच्च न्यायालय के आदेश का संदर्भ भी प्रस्तुत किया था जो भूमि पर समुदाय के कानूनी अधिकारों को मान्यता देता है।"

ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि उन्होंने दो प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराने की कोशिश की- एक अधिकारियों के खिलाफ और दूसरी महिलाओं पर हमले के खिलाफ। लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई जबकि, पुलिस ने उनके खिलाफ धारा 147 (दंगा), 148 (दंगा, घातक हथियारों से लैस), 504 (उकसाना और सार्वजनिक शांति को बाधित करना), 506 (आपराधिक धमकी), 333 (स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाना) के तहत एफआईआर दर्ज की। लोक सेवक को अपने कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान), भारतीय दंड संहिता की धारा 353 (लोक सेवक को गंभीर चोट पहुंचाना, उसके कर्तव्यों के निर्वहन में बाधा डालना), 307 (हत्या का प्रयास)।

तब की डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, एसओ बिष्ट ने दावा किया, “कुछ लोगों को [आशारोड़ी रेंज से] गिरफ्तार किया गया था। हमें एक फोन आया और बताया गया कि वन गुर्जर जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। जब वन विभाग के अधिकारी वहां पहुंचे तो ग्रामीणों ने उन पर हमला कर दिया। हालांकि, बेदखली पर सुप्रीम कोर्ट की रोक और उच्च न्यायालय के आदेश के बारे में पूछे जाने पर, जो एफआरए के तहत सभी दावों का निपटारा होने तक बेदखली पर रोक लगाता है, एसओ ने कहा, "हम उस पर टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं हैं।" वहीं, मुख्य वन संरक्षक, मनोज चंद्रन ने डाउन टू अर्थ को बताया: मेरे लिए इस मामले पर टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी क्योंकि मैंने अभी तक जांच शुरू नहीं की है। मैं जल्द ही एक आधिकारिक संचार की उम्मीद कर रहा हूं। हालांकि, यह एक तथ्य है कि वन गुज्जर कई वर्षों से इस क्षेत्र में निवास कर रहे हैं। उन्होंने कहा: “क्षेत्र में कुछ वन गुर्जरों को एफआरए, 2006 के अनुसार स्थानांतरित और पुनर्वासित किया गया है। हालांकि, कुछ का दावा है कि उन्हें इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया है। उनके दावों को सत्यापित और जांच करने की आवश्यकता है”।

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन ने जानकारी देते हुए बताया कि वन गुर्जर परिवार के बच्चों ने अपने फोन में इस तमाम घटनाक्रम का वीडियो बना लिया था, जिसे देख वन विभाग की टीम ने वीडियो बनाने का विरोध किया और कहा कि तुम्हारे खिलाफ विभिन्न धाराओं में मुकदमा पंजीकृत कर तुम्हें और तुम्हारे परिवार को जेल भेज देंगे। इससे पहले भी वन विभाग ने मुस्तफा चोपड़ा पर अनेक फर्जी केस किए हुए हैं। मुस्तफा चोपड़ा विगत दो दशकों से राजाजी नेशनल पार्क में वन विभाग की तरफ से बेदखली के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। यें वन गुर्जर परिवार राजाजी पार्क के अस्तित्व में आने से पहले से बल्कि आज़ादी से पहले से ही इन वनों में रह रहे हैं। इनकी बेदखली पर नैनीताल हाईकोर्ट द्वारा भी स्टे आर्डर दिया गया है। 2008 में वनाधिकार कानून के संसद में पास होते ही यह आर्डर दिया था कि, राजाजी नेशनल पार्क में वन गुर्जरों को वनाधिकार कानून के तहत उनके अधिकार प्रदान किए जाएं व उन्हें बेदखल न किया जाए। लेकिन कोर्ट आर्डर की अवमानना करते हुए वन गुर्जरों के अधिकार बहाल नहीं किए गए हैं। 

यूनियन नेताओं रोमा मालिक व मुन्नी लाल ने अपने तब के एक लेख में बताया था कि मुस्तफा चोपड़ा द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े खटखटाए जा चुके है जिसमें उनके पक्ष में फैसले हुए लेकिन वन विभाग द्वारा कोर्ट के तमाम आदेशों को मानने से इनकार किया जाता रहा है। इसी रंजिश के चलते वन विभाग ने इस घटना को अंजाम देकर झूठे मुकदमे दर्ज कराए हैं। जबकि फिलहाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी वन समुदाय की बेदखली व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही पर रोक लगाई गई है। कहा कि वन अधिकार अधिनियम 2006 में भी स्पष्ट उल्लेख है कि जब तक दावेदारों के दावों का निस्तारण नहीं हो जाता, तब तक दावेदार को उक्त ज़मीन या डेरों से नहीं उजाड़ा जा सकता है, जो कोई भी ग्राम सभा का सदस्य, समिति का पदाधिकारी वन विभाग के अधिकारी व कर्मचारी या कोई अन्य इस अधिनियम के विरुद्ध कार्य करेंगे, उनके खि़लाफ़ अधिनियम की धारा 7 के अनुसार कड़ी कार्यवाही की जायेगी। 

अधिनियम की धारा 7 के अनुसार, जहां कोई प्राधिकरण या समिति का कोई भी अधिकारी या सदस्य इस अधिनियम या उसके अधीन वन अधिकारों की मान्यता से संबंधित बनाए गए किसी नियम के उपबन्धों का उल्लंघन करेगा तो वह या वे इस अधिनियम के अधीन अपराध के दोषी समझे जायेंगे और अपने विरुद्ध कार्यवाही किये जाने और जुर्माने से जो एक हजार रुपये तक हो सकेगा, दंडित किये जाने के भागी होंगे। कोरोना महामारी के चलते सरकार लॉकडाउन व सामाजिक दूरी जैसे कार्यक्रम चला रही है, परन्तु वन विभाग द्वारा, महामारी के बावजूद, वन आश्रित समुदायों के खिलाफ बेदखली जैसे अन्याय कर, झूठे मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं और लोगों को जेल भेजा जा रहा है।

घुमंतु समुदाय है वन गुर्जर

खास है कि वन गुर्जर समुदाय, घुमन्तु समुदाय हैं, जो शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी से लेकर हिमालय की उच्च चोटियों में रहकर अपनी घुमन्तु जीवनशैली को सदियों से चलाते आ रहे हैं। इनका काम है मवेशियों को पालना और दूध बेच कर अपनी आय कमाना, सदियों से जंगलों में ही रहकर यह समुदाय पशुओं के बड़े बड़े रेबड़ रखते आए हैं जिसके लिए इन्हें बहुत ही कठिनाइयों से जीवन बिताना पड़ता है। गर्मियों में ये अपने तमाम पशुओं को लेकर हिमालय की ऊंची चोटियों पर चले जाते हैं, और जब पहाड़ों में बर्फ पड़ने लगती है तो ये अपने पशुओं को लेकर शिवालिक वनों में आ जाते हैं। 

संसद ने वनाधिकार कानून 2006 में पहली बार घुमन्तु समुदाय के अधिकारों को स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है, वरना आज़ादी के छह दशक बीतने पर भी यह विडम्बना है कि जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड़ व उत्तर प्रदेश में रहने वाले लाखों वन गुर्जर परिवारों का आज़ादी के बाद बने किसी भी कानून में जिक्र तक नहीं किया गया है। यह समुदाय देश के नक्शे से ही गायब है जिनके अधिकारों की कोई मान्यता नहीं है। 2006 में वनाधिकार कानून आने के बाद एक आशा की किरण जगी थी। इसी को लेकर मुस्तफा चोपड़ा और यूनियन के संगठन सचिव तथा हरिपुर टोंगिया (वन ग्राम) के प्रधान मुन्नीलाल ने कहा था कि ‘‘हमें आज़ादी 1947 में नहीं बल्कि 2006 में मिली है, जब हमें वास्तविक तौर पर वन विभाग की गुलामी से आज़ादी मिलेगी’’। 

लेकिन 2006 से लेकर 2020 तक भी वन विभाग की गुंडई और दबंगई बादस्तूर जारी है जिस पर अभी तक कोई भी सरकार लगाम कसने में कामयाब नहीं हुई है। दूसरी ओर, यूनियन नेताओं के अनुसार, इस कानून को लागू करने में राजनैतिक इच्छाशक्ति की भी जबरदस्त कमी रही है जिसके चलते वनों में रहने वाला यह घुमन्तु समुदाय आज भी अपने मौलिक संवैधानिक अधिकारों से वंचित है। घोर जंगलों में रहने वाले इन समुदाय के लिए स्वास्थ, शिक्षा, स्वच्छ पेयजल, आवास, सड़क, बिजली इत्यादि आज भी एक सपना है। आज भी यह समुदाय कच्चे फूस के डेरे बना कर रहते हैं जिनकी दीवारें भी नहीं होती, ज्यादातर यह डेरे खुले होते हैं। जंगली जानवरों से बचने के लिए यह समुदाय डेरे के दहलीज़ पर आग जला कर रात को सोते हैं ताकि जानवर हमला न कर पाए।

यह विडम्बना है कि ऐसे वन समुदाय जो कि आज़ादी के बाद भी अपने हक़ों से वंचित हैं, उन पर आज भी पुलिस व वन विभाग अत्याचार करके, न सिर्फ उनका शोषण कर रहा है बल्कि संविधान के विरुद्ध काम कर रहा है। न्याय मिलने के बजाय गुलाम मुस्तफा, उनकी पत्नी समेत 10 महिलाओं और बच्चों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन द्वारा वन विभाग द्वारा की गई इस घटना की निंदा की गई तथा शासन स्तर पर मामले की निष्पक्ष जांच करने की मांग करते हुए, झूठे मुकदमों को निरस्त कर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की मांग की गई। इसके साथ ही वन गुर्जर समुदाय के सभी गिरफ्तार सदस्यों को बिना शर्त रिहा करने की भी मांग की गई।

उत्तराखंड में वनाधिकार आंदोलन का चेहरा बन गए हैं मुस्तफा 

वन गुर्जर मुस्तफा चोपड़ा का परिवार अपने संघर्ष के बल पर अरसे से राजाजी पार्क स्थित डेरे में रहता आ रहा हैं लेकिन 16-17 जून 2020 की घटना ने मुस्तफा को उत्तराखंड में वनाधिकार आंदोलन का प्रमुख चेहरा बना दिया हैं। वनाश्रित समुदायों खासकर वन गुर्जरों के बीच बुजुर्ग मुस्तफा, न सिर्फ एक नायक के तौर पर उभरें बल्कि इनके धारा के विरुद्ध संघर्ष ने अंदर ही अंदर पूरे वनाश्रित समुदाय में हक, उम्मीद और एकजुटता की नई लौ भी जलाई हैं।

मामला राजाजी राष्ट्रीय पार्क का है। देहरादून के निकट आशारोड़ी बीट में वन गुर्जर मुस्तफा चोपड़ा का परिवार डेरा बनाकर रहता है। यह अरसे से यहां सड़क किनारे डेरे में रहते आ रहे हैं। लेकिन वनाधिकार कानून आने के बाद हक के लिए आवाज उठाना उन्हें भारी पड़ गया। दरअसल, वनों पर एकाधिकार की अपनी सामंती सोच के चलते विभाग, पार्क क्षेत्र से वन गुर्जरों को हटाना चाहता है। इसी को लेकर विभागीय उत्पीड़न के चरम पर होने से एक-एक कर ज्यादातर वन गुर्जर परिवार, पार्क छोड़कर चले गए हैं। मुस्तफा नहीं गए और उल्टे वनाधिकार कानून के तहत वन भूमि पर मालिकाना हक की मांग की। इस पर विभाग का उत्पीड़न बढ़ना ही था। जबरन बेदखली की कोशिश हुई तो मुस्तफा ने हाइकोर्ट की शरण ली। नतीजा कुछ दिन शांति और फिर उत्पीड़न और संघर्ष का दौर शुरू हो गया। कई बार डेरे आदि को नुकसान पहुंचाया गया, दूध बहा दिया गया लेकिन अकेले होने के बावजूद भी मुस्तफा ने हार नहीं मानी।

इस बीच जैसे ही कोरोना आया तो महकमे को मानो मुहमांगी मुराद मिल गई हो। विभाग ने आपदा में अवसर तलाशते हुए, अबकी बार पूरी ताकत से 30-40 की संख्या में मुस्तफा की बेटी नूरजहां के डेरे पर हमला बोला। 16 जून के इस हमले में डेरा तोड़ दिया। नूरजहां को बाल पकड़कर घसीटा। मारा-पीटा। थाने व जेल भेजा। मुस्तफा को भी जेल भेज दिया लेकिन इस पर भी मुस्तफा नहीं झुके तो उसके दो नाबालिग बच्चों को भी जेल में डाल दिया। इतने पर भी मुस्तफा नहीं डरे तो बैकफुट पर आने की बारी, वन विभाग की थी। कोरोना काल में वनाधिकार कानून का साथ मिला। नूरजहां व मुस्तफा न सिर्फ छूट गए बल्कि कोर्ट ने वनाधिकार कानून के आईने में कमेटी बनाते हुए जांच के आदेश दिए। हालांकि दोनों नाबालिग बच्चे जेल में थे। लेकिन बाप-बेटी के हार न मानने वाले संघर्ष (जीत) ने उप्र व उत्तराखंड के वन गुर्जरों में नई चेतना और उत्साह जगाने का काम किया हैं और मुस्तफा, समुदाय में आंदोलन का और ज्यादा प्रखर व प्रमुख चेहरा बनकर उभरे।

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि मुस्तफा ने देश व दुनिया को एक बार फिर बता दिया है कि जो लड़ते हैं, वहीं जीतते हैं और दुनिया उन्हीं को सलाम करतीं है। हालांकि नाबालिग बच्चों को जेल भेजे जाने पर चिंता जताते हुए, अशोक चौधरी ने इसे उत्पीड़न की इंतहा और कोरोना काल में मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन करार दिया हैं। लेकिन देर से सही, मुस्तफा की जीत हुई। उसके दोनों नाबालिग बेटों को किशोर बोर्ड ने दोषमुक्त करते हुए, बरी कर दिया है तथा प्रचलित जांच को भी खत्म कर दिया है तो निसंदेह यह सच और संघर्ष की जीत है। मुस्तफा और पूरे वन गुर्जर समुदाय को इसके लिए मुबारकबाद।

उत्तराखंड वन विभाग ने भी माना, वन गुर्जरों को बेदखली नोटिस एक चूक 

उत्तराखंड वन विभाग ने भी वन गुर्जरों को बेदखली (नोटिस) देने को एक चूक माना है। दरअसल पिछले दिनों उत्तराखंड वन विभाग ने "अवैध अतिक्रमणों" को हटाने के अभियान की आड़ में, वन क्षेत्रों के निवासियों (वन गुर्जरों) को भी बेदखली नोटिस थमा दिए थे। इस पर तराई पूर्व और पश्चिम डिवीजनों के कई गांवों के निवासियों ने इसे वनाधिकार अधिनियम (FRA) के प्रावधानों का उल्लंघन बताते हुए, विरोध प्रदर्शन किया और वरिष्ठ अधिकारियों को लिखा तो वन विभाग को बैक फुट पर आने में देर नहीं लगी। वन विभाग ने उत्तराखंड के वन गुर्जरों को बेदखली नोटिस जारी करने को गलती माना। 25 मई, 2023 को उत्तराखंड वन विभाग ने स्वीकार किया कि वन गुर्जरों को बेदखली के जो नोटिस जारी किए गए थे वो एक चूक थी। गलती से नोटिस हो गए थे। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा (VPSM) ने राज्य सरकार को लिखे पत्र में इस बात पर प्रकाश डाला था कि वन दरोगा द्वारा बेदखली नोटिस जारी किए जा रहे हैं, जबकि भारतीय वन अधिनियम के अनुसार, ऐसे नोटिस केवल मंडलीय वन अधिकारी द्वारा जारी किए जाते हैं।

'द हिंदू' की एक रिपोर्ट के अनुसार, 25 मई के एक आदेश में, वन विभाग ने इन बेदखली नोटिसों को जारी करने में प्रक्रियात्मक उल्लंघनों को स्वीकार किया है। और अधिकारियों को यह ध्यान देने का निर्देश दिया कि खत्तों के नाम से जानी जाने वाली उनकी बस्तियों को तभी हटाया जा सकता है जब उनके पुनर्वास के लिए समुचित प्रावधान कर दिए जाएं। तराई पूर्व और पश्चिम डिवीजनों के कई गांवों के वन गुर्जरों को इस तरह के बेदखली नोटिस प्राप्त हुए थे। हालांकि, जब टीओआई ने तराई पश्चिम डिवीजन में बन्नाखेड़ा रेंज के वन रेंज अधिकारी लक्ष्मण सिंह मर्तोलिया से बात की, तो उन्होंने कहा, "पत्र का उद्देश्य केवल उन्हें सूचित करना था कि वन क्षेत्र के भीतर वन विरोधी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।"

खास है कि उत्तराखंड वन विभाग ने लगभग 400 वन गुर्जरों को बेदखली का नोटिस जारी किया था, ताकि वन संपत्ति पर से, धार्मिक स्थलों, बस्तियों या अवैध रूप से बनी किसी भी अन्य संरचना जैसे अतिक्रमण को हटाने के अभियान के तहत उनके घरों को खाली किया जा सके। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इनमें अधिकांश वन गुर्जर मुस्लिम समुदाय के हैं। वन गुर्जरों के अनुसार, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (जिसे वन अधिकार अधिनियम भी कहा जाता है) के तहत दायर उनके अधिकार दावे अभी भी सरकार के पास लंबित हैं।

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी ने भी नोटिस की कार्रवाई को गैर कानूनी और असंवैधानिक बताया था। चौधरी के अनुसार, वन गुर्जरों की बेदखली को लेकर उत्तराखंड वन विभाग की कार्रवाई पूरी तरह से गैरकानूनी और असंवैधानिक है। चौधरी कहते हैं कि वन अधिकार कानून के तहत जो लोग अपना दावा पेश कर चुके हैं, उन्हें वन भूमि से तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक कि उनके दावों का निस्तारण नहीं हो जाता है। चौधरी के अनुसार, वन अधिकार कानून में ग्राम सभा द्वारा पारित दावे को खारिज करने का अधिकार किसी को नहीं है। यही नहीं, फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी किसी भी बेदखली पर रोक लगा दी थी जिनके दावे लंबित है। संवैधानिक रूप से देंखे तो वनाधिकार कानून एक विशेष कानून है और वन विभाग के अन्य सभी कानूनों में सर्वोपरि है। इसलिए वन विभाग का नोटिस देना, खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है।

वन अधिकार अधिनियम- 2006 

वन अधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 3, अनुसूचित जाति-जनजाति या अन्य पारंपरिक वन निवासी समुदाय के सदस्य या सदस्यों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करती है जो रहने के लिए या आजीविका के लिए स्व-खेती के व्यक्तिगत या सामान्य व्यवसाय के तहत वन भूमि में रहते हैं और वनों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, अधिनियम की धारा 4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि वे 'राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के महत्वपूर्ण वन्यजीव आवासों' में रह रहे हैं, तो इन वनवासियों को बेदखली से पहले समुचित रूप से पुनर्वासित करने की आवश्यकता है।

इसके अलावा, जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन पर दिशानिर्देश स्पष्ट रूप से कहते हैं,
"अधिनियम की धारा 4(5) एकदम विशिष्ट है जिसमें स्पष्ट प्रावधान है कि मान्यता और सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने तक, वन में रहने वाले अनुसूचित जनजाति या अन्य पारंपरिक वनाश्रित समुदाय के किसी भी सदस्य को उसके कब्जे वाली वन भूमि से बेदखल या हटाया नहीं जाएगा। यह खंड पूर्ण प्रकृति का है और वनों में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों या अन्य पारंपरिक वन निवासियों को उनके वन अधिकारों के बंदोबस्त के बिना, बेदखल करने की सभी संभावनाओं को खारिज करता है क्योंकि यह खंड "प्रदान करें अन्यथा सहेजें" (सेव एज अदरवाइज) शब्दों के साथ शुरू होता है। बेदखली के खिलाफ इस सुरक्षात्मक खंड के पीछे तर्क, यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी मामले में एक वन निवासी को उसके अधिकारों की मान्यता के बिना बेदखल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वही उसे, उन मामलों में विस्थापन की स्थिति में, उचित मुआवजे का हकदार बनाता है, जहां अधिकारों की मान्यता के बाद भी, किसी वन क्षेत्र को वन्यजीव संरक्षण के लिए अनुल्लंघनीय घोषित किया जाना है या किसी अन्य उद्देश्य के लिए परिवर्तित किया जाना है। किसी भी मामले में, धारा 4(1), पात्र वन निवासियों को उनके वन अधिकारों को पहचानने और निहित करने की शक्ति प्रदान करती है। इसलिए, जब तक अधिनियम के तहत वनाधिकारों की मान्यता और निहित करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक कोई बेदखली नहीं होनी चाहिए।

वे आगे बताते हैं, "अधिनियम की धारा 4(5) के प्रावधानों के मद्देनजर, राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों में भी, उनके दावों की मान्यता और सत्यापन से संबंधित सभी औपचारिकताएं पूरी होने तक, कोई बेदखली और पुनर्वास की अनुमति नहीं है।" इसे सुनिश्चित करना राज्य स्तरीय निगरानी समिति का कर्तव्य है कि इन दिशानिर्देशों का पालन किया जाए।

उत्तराखंड हाई कोर्ट का आदेश 

थिंक एक्ट राइज फाउंडेशन में अर्जुन कसाना बनाम उत्तराखंड राज्य और अन्य 2019 की रिट याचिका (पीआईएल) संख्या 140 (25 मई 2021 का आदेश) में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश के माध्यम से वन गुर्जरों के क़ाफ़िले (कारवां) के उत्तरकाशी जिले के गोविंद पशु विहार राष्ट्रीय उद्यान में बुग्यालों (हिमालयी अल्पाइन घास के मैदान) के अपने ग्रीष्मकालीन घरों में प्रवास करने के अधिकार को बरकरार रखा था। 

रिपोर्ट्स के अनुसार, "वास्तव में, यह कहना घिनौना है कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 राज्य को, अपने लोगों के जीवन को, जानवरों के अस्तित्व से भी नीचे रखने (कम करने) से, रोकता है। प्रत्येक नागरिक को न केवल जीने का अधिकार है, बल्कि सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। अंत में, वन गुर्जरों को बेदखली नोटिस, राज्य की ओर से उन्हें उनकी भूमि से हटाने का प्रयास दिखाता है जो अपने आप में संविधान के अनुच्छेद 21 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन है।

साभार : सबरंग 

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