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केरल स्थानीय निकाय चुनाव : यूडीएफ़-भाजपा साथ-साथ

वैसे कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के ख़िलाफ़ व्यापक मोर्चा बनाने या उसे चुनौती देने में विफल रही है, लेकिन केरल के स्थानीय निकाय चुनावों में वह वाम मोर्चे के ख़िलाफ़ भगवा पार्टी के साथ गठबंधन बना रही है।
चुनाव
Image Courtesy: The Leaflet

केरल में स्थानीय निकाय के चुनावों की सरगर्मी चल रही हैं और राज्य विधानसभा के चुनाव भी चार महीने बाद होने हैं। इस पृष्ठभूमि में, स्थानीय निकाय चुनावों को भारत में एकमात्र वामपंथी राज्य सरकार के सत्ता में बने रहने को सुनिश्चित करने के राजनीतिक संघर्ष के रूप में देखा जा रहा है जिसने वर्षों से एक मजबूत धर्मनिरपेक्ष रुख अपनाया है।

केरल का राजनीतिक परिदृश्य 2019 के लोकसभा चुनाव से बिल्कुल भिन्न है। विधानसभा उप-चुनाव के परिणामों से माकपा की स्थिति मज़बूत हुई है जिससे यह विश्वास पैदा हुआ है कि आम चुनाव के समय जनता की राय काफी अस्थायी थी।

मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने कांग्रेस को भाजपा के विकल्प के रूप में मान लिया था, इसलिए लोकसभा चुनावों में वाम दलों को बड़ा झटका लगा था। हालांकि, आम लोगों के बाद के अनुभवों ने इस बात का एहसास दिलाया कि कॉंग्रेस को समर्थन कर उन्होने धोखा खाया है। कांग्रेस के  प्रमुख नेता कपिल सिब्बल ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि लोग कांग्रेस को भाजपा के विश्वसनीय विकल्प के रूप में नहीं देखते हैं। पार्टी नेतृत्व में अन्य प्रमुख नेताओं की राय भी कुछ ऐसी ही है।

हाल ही में, जब से धर्मनिरपेक्षता और संविधान सवालों के घेरे में आए हैं, कांग्रेस किसी भी कार्यवाही में बुरी तरह से विफल रही है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के काम को सरकारी कार्यक्रम में तब्दील करने के सरकार के फैसले पर प्रतिक्रिया देने की जहमत तक कांग्रेस ने नहीं उठाई। इसके अलावा, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने खुले तौर पर इसका समर्थन किया है। कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष रुख लेने और राजनीतिक लाभ के लिए भाजपा द्वारा आस्था का दुरुपयोग करके धार्मिक राज्य में तब्दील करने की यात्रा को पहचानने में विफल रही है।

कॉंग्रेस पार्टी ने उस वक़्त भी सही दृष्टिकोण अपनाने की हिम्मत नहीं की जब केंद्र सरकार ने जम्मू और कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त कर दिया था। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद, जो राज्यसभा में राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे ने कश्मीर दौरा करने की जहमत तक नहीं उठाई और जब सीताराम येचुरी सुप्रीम कोर्ट की अनुमति से जम्मू और कश्मीर का दौरा करने गए तभी इन सबने भी कश्मीर का दौरा करने का प्रयास किया था। अब कांग्रेस भाजपा की धमकियों की फिक्र कर रही है और लोकतंत्र की रक्षा के लिए राज्य में विपक्षी दलों के व्यापक गठबंधन का साथ देने के बजाय खुद को उससे बाहर कर लिया है।

सनद रहे, वामपंथ इस लड़ाई में सबसे आगे रहा है, जब भी धर्मनिरपेक्षता को चुनौती मिली वामपंथ ने जोरदार प्रतिरोध किया है। केरल राज्य, धर्म के आधार पर नागरिकता निर्धारित करने वाले कानून को चुनौती देने के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का रुख करने वाला पहला राज्य है।  एलडीएफ सरकार के इस तरह के साहसिक कदम उठाने के बाद, कुछ अन्य राज्यों ने भी उसी रास्ते का अनुसरण किया है। एलडीएफ सरकार ने भी कड़ा रुख अपनाया है कि राज्य में असंवैधानिक कानून को लागू नहीं किया जाएगा। इन फैसलों के माध्यम से, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन को एक मजबूत प्रोत्साहन दिया। यहां भी, कांग्रेस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने ता उसका हिस्सा बनने में विफल रही है।

कई राज्यों में, जो लोग भाजपा के सांप्रदायिक रुख का विरोध कर रहे थे, उन्होंने कांग्रेस को एक विकल्प के रूप में देखा और उसका समर्थन किया। लेकिन कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष रुख अपनाने वाले लोगों को धोखा दिया है।

कमलनाथ, जिन्होंने मध्य प्रदेश में बीजेपी से सत्ता छीनी थी, उन्हे कांग्रेस के ही एक वर्ग द्वारा जिसका नेतृत्व ज्योतिरादित्य सिंधिया (जो बाद में बीजेपी में शामिल हुए) कर रहे थे ने सत्ता से उखाड़ फेंका, जबकि सिंधिया राहुल ब्रिगेड के एक प्रमुख सदस्य और लोकसभा में कांग्रेस के उप-नेता थे। गुजरात और मणिपुर में हुए उपचुनाव के दौरान भी कांग्रेस के विधायकों को भाजपा में जाते देखा गया हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में तो कांग्रेस पार्टी ही भाजपा में तब्दील हो गई है। इस कड़ी में उनका त्रिपुरा में वाम सरकार को हराने का पहला प्रयास सफल रहा जब भाजपा ने विधानसभा में कांग्रेस विधायकों की सीटें हासिल कीं थी।

ऐसे में लोग कांग्रेस पर कैसे भरोसा कर सकते हैं जिनके नेता या प्रतिनिधि किसी भी समय भाजपा में शामिल होने के लिए तैयार रहते हैं? बिहार में चुनाव परिणाम से पता चल गया कि कॉंग्रेस की नीति में सांप्रदायिकता और भटकाव घुल गया है। एनडीए के खिलाफ बने महागठबंधन में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी थी। राज्य में एनडीए के खिलाफ मजबूत भावना होने के बावजूद, लोग कांग्रेस पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं हुए। यही वह मुख्य कारण है कि वहां की जदयु-भाजपा सरकार जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता में बने रहने में सफल रही। राष्ट्रीय जनता दल नेतृत्व ने बिहार चुनाव के प्रति राहुल गांधी द्वारा दिखाई गई आपराधिक उदासीनता की सार्वजनिक रूप से आलोचना की है, ये वे साहब हैं जिन्हे 2019 के महत्वपूर्ण चुनाव में वायनाड से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में केरल की जनता ने जिताया था।

कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता और संविधान की रक्षा करने और लोगों के अहम महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने में विफल रही है। भाजपा भी कांग्रेस की ही आर्थिक नीतियों का अनुसरण कर रही है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बड़े किसान आंदोलन के समय कांग्रेस विफल रही है। जबकि कांग्रेस के घोषणापत्र में कृषि कानून सुधारों का वादा किया गया था, जब केंद्र ने विवादास्पद कृषि कानूनों को पारित किया तो पार्टी ने लोकसभा में इस पर मतदान की मांग करने की भी जहमत नहीं उठाई। राज्यसभा में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम सहित वाम दलों और अन्य दलों ने मतदान की मांग की, लेकिन सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने प्रमुख भूमिका निभाने से इनकार कर दिया।

इससे पहले जब दूसरी यूपीए सरकार सत्ता में आई थी, तब भी किसान आत्महत्याएं रोज बढ़ रही थीं। यही कारण है कि किसान, जिन्होने कांग्रेस की नीतियों का रस चखा है, वे कांग्रेस पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है।

बिहार की हाल की घटनाओं से अब लोगों को उम्मीद है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प संभव है। बिहार में वामपंथ का उदय और उसकी प्रभावी जीत सांप्रदायिकता और आर्थिक नीतियों के खिलाफ वामपंथ की निरंतर लड़ाई का परिणाम है। देशव्यापी आंदोलन, जो अब महाराष्ट्र, राजस्थान और कई अन्य राज्यों में तेज हो गया है, भी किसान संगठनों के व्यापक गठबंधन का परिणाम है। वामपंथी किसान आंदोलन इसमें अग्रणी भूमिका निभा रहा है। राष्ट्रीय आम हड़ताल  (जो 26 नवंबर को हुई थी) और जिसमें करीब 25 करोड़ से अधिक मजदूरों ने भाग लिया था, ने  भी मजदूरों की एकता, आशा और विश्वास को मजबूत करने में मदद की है।

केरल में स्थानीय निकाय के चुनावों का एक विशेष महत्व है, क्योंकि केरल राज्य वामपंथी राजनीति का मुख्य गढ़ है, जो पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक प्रतिरोध को बढ़ावा देता है। कांग्रेस, राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का जवाब बनने में विफल रही है, जबकि केरल में वामपंथियों को हराने के लिए वह उस के साथ हाथ मिला रही है।

(लेखक केरल से राज्यसभा के सांसद रह चुके हैं और सीपीआईएम के सदस्य हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। यह लेख पहली बार देशाभिमानी में प्रकाशित हुआ था।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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