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ख़बरों के आगे-पीछे: मतदान के दिन रैली का नया रिवाज, कर्नाटक चुनाव में बुज़ुर्ग नेताओं का ज़ोर व अन्य ख़बरें..

मतदान दिन के रैली के नए रिवाज समेत केंद्रीय मंत्रियों का पार्टी पदाधिकारी की तरह बर्ताव करना, पवार परिवार का झगड़ा, विपक्षी एकता और कर्नाटक चुनाव में बुज़ुर्ग नेताओं के ज़ोर पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
Khabron Ke Aage Peeche

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र की राजनीति में आने के बाद से ही यह नियम बनाया है कि जिस दिन देश में कहीं भी मतदान होगा उस दिन वे ज़रूर कोई रैली या सभा करेंगे। आमतौर पर बड़े राज्यों में कई चरण में मतदान होता है तो वे एक चरण के मतदान के दिन दूसरे चरण वाले इलाके में रैली करते हैं। इसका सीधा मकसद मतदान को प्रभावित करना होता है। इसमें कानूनी तौर पर कुछ भी गलत नही है लेकिन राजनीतिक नैतिकता के लिहाज़ से इसे ठीक नहीं कहा जा सकता। आखिर इसी वजह से तो 48 घंटे पहले प्रचार बंद किया जाता है कि कोई नेता अंतिम समय में अपने भाषण या किसी राजनीतिक गतिविधि से मतदाताओं को प्रभावित न कर सके। बहरहाल, जहां एक चरण में ही मतदान होता है उसमें भी प्रधानमंत्री सभा या रैली करने का कोई न कोई तरीका ज़रूर निकाल लेते हैं। जैसे कर्नाटक में 10 मई को एक चरण में मतदान हुआ था, जिसके लिए आठ मई को प्रचार बंद हो गया। प्रधानमंत्री मोदी ने 10 मई को ही राजस्थान के सिरोही में एक सभा को संबोधित किया। उधर कर्नाटक में मतदान चल रहा था और इधर राजस्थान में प्रधानमंत्री का चुनावी भाषण जिसमें उन्होंने कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार को निशाने पर रखा। सिरोही की सभा से पहले उन्होंने नाथद्वारा के प्रसिद्ध श्रीनाथजी के मंदिर में पूजा-अर्चना की। उनके मंदिर जाने और फिर सभा को संबोधित करने के कार्यक्रम का लगभग सारे टीवी चैनलों पर हमेशा की तरह लाइव प्रसारण हुआ। यह अलग बात है कि कर्नाटक के जनमानस पर इसका कोई असर नहीं हुआ।

कुछ मंत्रियों का काम सिर्फ़ राहुल पर हमला?

कुछ सालों पहले तक केंद्रीय मंत्री अपने पार्टी संगठन के दूसरे नेताओं की तरह राजनीतिक मामलों पर ज़्यादा नहीं बोलते थे और चुनावी सभाओं के अलावा उनके राजनीतिक बयान भी कम सुनने को मिलते थे। लेकिन मौजूदा सरकार में केंद्रीय मंत्री और पार्टी के पदाधिकारी का भेद मिट सा गया है। इसमें भी कुछ केंद्रीय मंत्री ऐसे हैं, जिनका मुख्य काम कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर हमला करना होता है। चाहे वे किसी भी कार्यक्रम में हो, भले ही वह राजनीतिक कार्यक्रम नहीं हो लेकिन वहां भी वे किसी न किसी बहाने राहुल गांधी को खींच लाते हैं और उन पर हमला करते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे उनको इसी काम के लिए मंत्री नियुक्त किया गया है। ऐसे केंद्रीय मंत्रियों में सबसे ऊपर स्मृति ईरानी का नाम है। वो हैं तो महिला एवं बाल विकास मंत्री लेकिन अपने मंत्रालय के बारे शायद ही कभी बोलती हों। संसद में हों या संसद के बाहर वे आमतौर पर राहुल गांधी और उनके परिवार पर ही हमलावर रहती हैं, जिससे लगता है कि उनके मंत्रालय का मुख्य काम राहुल के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी करना ही है। स्मृति ईरानी के अलावा दूसरा ऐसा नाम है विदेश मंत्री एस जयशंकर का। वे चीन के विशेषज्ञ माने जाते हैं, इसलिए वे चीन को लेकर राहुल गांधी के बयानों से बहुत नाराज़ हो जाते हैं और यहां तक राहुल का मज़ाक उड़ाते हैं। पिछले दिनों मेसुरु के किसी कार्यक्रम में बिना किसी संदर्भ के उन्होंने कहा, "मैं राहुल से चीन पर क्लास लेना चाहता था, लेकिन फिर पता चला कि वे खुद चीन के राजदूत से क्लास लेते हैं।" विदेश सेवा के एक दूसरे पूर्व अधिकारी एवं पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह और खेल एवं युवा मामलों के मंत्री अनुराग ठाकुर का भी पसंदीदा काम राहुल गांधी और उनके परिवार का मज़ाक उड़ाना है। इसके अलावा और भी कई केंद्रीय मंत्री हैं जो जब-तब राहुल गांधी के ख़िलाफ़ बयानों के गोले दागते रहते हैं।

गहलोत की राजनीतिक निशानेबाज़ी किस पर?

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव से छह महीने पहले, पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता वसुंधरा राजे को लेकर जो कहा वह अनायास नहीं है। गहलोत ने कहा कि 2020 में वसुंधरा और भाजपा के कुछ अन्य विधायकों ने उनकी सरकार बचाई थी। इस बयान के दो पहलू हैं। एक तो कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति से जुड़ा है। इस तरह के बयानों से सचिन पायलट को निशाना बनाया जाता है औऱ बार-बार याद दिलाया जाता है कि उन्होंने अपनी ही सरकार को गिराने का प्रयास किया था। इससे आलाकमान के सामने और जनता में भी उनको लेकर निगेटिव मैसेज जाता है। दूसरा पहलू भाजपा की अंदरुनी राजनीति से जुड़ा है। अब तक जो बात सूत्रों के हवाले से या राजनीतिक साज़िश के रूप में कही जाती थी उस पर मुख्यमंत्री ने मुहर लगाई है। इस बयान को दो तरह से देखा जा रहा है। एक नज़रिया तो यह है कि गहलोत को पता है कि अगर उनको कोई चुनौती दे सकता है तो वह वसुंधरा हैं। इसलिए पहले उन्होंने वसुंधरा को भाजपा आलाकमान की नज़र में संदिग्ध बनाने का प्रयास किया है ताकि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उनके हाथ में कमान न दे। वैसे भी आलाकमान पहले से ही वसुंधरा को लेकर सहज नहीं है। इस बयान की दूसरी व्याख्या हो रही है कि इससे वसुंधरा की ताकत बढ़ेगी। दो तरह से उनकी ताकत बढ़ने की बात हो रही है। पहला मैसेज तो यह है कि गहलोत उनको रास्ते से हटाना चाहते हैं, इसलिए बदनाम कर रहे हैं और दूसरा मैसेज यह है कि अगर भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा को कमान नहीं सौंपी तो वे कांग्रेस के साथ मिल कर भाजपा की राह मुश्किल करेंगी। कांग्रेस या गहलोत से उनकी करीबी का मैसेज उनकी ताकत बढ़वाएगा। इसे जैसे को तैसे वाली राजनीति भी कह सकते हैं। आखिर पिछले दिनों कई मौकों पर प्रधानमंत्री मोदी भी तो गहलोत की तारीफ कर चुके हैं।

ऐसे कैसे कायम होगी विपक्षी एकता?

एक तरफ जहां कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व विपक्षी एकता की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ राज्यों में उसके कुछ नेता अपने शीर्ष नेतृत्व के इरादों की हवा निकालने में जुटे हुए हैं। ऐसे राज्यों में दिल्ली, महाराष्ट्र और तेलंगाना का नाम खासतौर से लिया जा सकता है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस के नेता सहयोगी अथवा संभावित सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ आक्रामक और अपमानजनक बयानबाज़ी कर रहे हैं, जो केंद्रीय संगठन की राजनीति से अलग है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जब सीबीआई का समन मिला तो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने उन्हें फोन करके समर्थन जताया लेकिन कांग्रेस के स्थानीय नेता केजरीवाल और उनकी पार्टी पर लगातार हमले कर रहे हैं। पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने उपराज्यपाल को चिट्ठी लिख कर कहा है कि केजरीवाल ने अपने बंगले की साज सज्जा पर 45 करोड़ नहीं, बल्कि 171 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। उपराज्यपाल ने इस चिट्ठी को जांच के लिए मुख्य सचिव के पास भेजा है। इसी तरह पूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने फीडबैक यूनिट के ज़रिए नेताओं की जासूसी कराने के मामले में केजरीवाल पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की मांग की है। दिल्ली की तरह ही तेलंगाना में कांग्रेस, सत्तारूढ़ दल भारत राष्ट्र समिति के ख़िलाफ़ हमलावर है। कर्नाटक चुनाव के बीच प्रियंका गांधी वाड्रा ने तेलंगाना जाकर एक बड़ी रैली की थी, जिसमें उन्होंने राज्य सरकार को जम कर निशाना बनाया। प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी भी लगातार के. चंद्रशेखर राव और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ हमलावर हैं। प्रियंका ने तेलंगाना के गठन का श्रेय सोनिया गांधी को दिया और कांग्रेस के लिए समर्थन मांगा। इससे लग रहा है कि कांग्रेस राज्य में या तो तालमेल नहीं करेगी और अगर करेगी तो कम सीटों पर राज़ी नहीं होगी। उधर महाराष्ट्र में जहां कांग्रेस का शिवसेना और एनसीपी के साथ पहले गठबंधन जारी है, वहां भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने हाल ही में एनसीपी को भाजपा की बी टीम करार दिया है।

सबसे बुज़ुर्ग नेताओं ने सबसे ज़्यादा प्रचार किया

कर्नाटक विधानसभा चुनाव का नतीजा आ चुका है। कांग्रेस ने कर्नाटक में बड़ी जीत हासिल की लेकिन इस चुनाव में एक दिलचस्प बात यह भी रही कि जब देश की सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी 75 साल से ज़्यादा उम्र के अपने नेताओं को राजनीति से संन्यास दिला रही है तो वहीं इस सूबे में 80 साल से ऊपर के नेताओं ने सबसे ज़्यादा चुनाव प्रचार करने का रिकॉर्ड बनाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो खूब रैलियां की ही, लेकिन सबसे ज़्यादा उम्र के बुज़ुर्ग नेताओं ने सबसे ज़्यादा रैलियां कीं। कांग्रेस की ओर से मल्लिकार्जुन खरगे, भाजपा की ओर से बीएस येदियुरप्पा और जनता दल(एस) की ओर से एचडी देवगौड़ा ने सबसे ज़्यादा चुनावी रैलियां कीं। बीएस येदियुरप्पा की उम्र 80 साल है और दो साल पहले भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था लेकिन उन्होंने इस बार कर्नाटक में 80 चुनावी सभाओं को संबोधित किया। लिंगायत समुदाय के असर वाले इलाकों में उनके लगातार दौरे हुए और हज़ारों लोगों से उन्होंने निजी तौर पर संपर्क किया। इसी तरह 80 साल के कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने 85 सभाएं कीं। कांग्रेस अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने पूरे प्रदेश में रैलियां और जन संपर्क किया। इसी तरह जनता दल(एस) के संस्थापक और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की उम्र 90 साल हो गई है और उनकी सेहत भी ठीक नहीं है लेकिन अपनी पार्टी के असर वाले क्षेत्रों खास कर पुराने मैसुरू इलाके में उन्होंने कई जनसभाएं की और रोड-शो भी किए।

अगले चुनाव में भाजपा ‘75’ उम्र सीमा का क्या करेगी?

यह लाख टके का सवाल है कि क्या भाजपा अगले लोकसभा चुनाव में टिकट देने के लिए 75 साल की अधिकतम उम्र सीमा के 'अघोषित नियम' पर अमल करेगी या इसमें कुछ लचीलापन लाया जाएगा? भाजपा के 70 साल से ज़्यादा उम्र के कई बड़े नेता इस नियम पर नज़र रखे हुए हैं। उन्हें लग रहा है कि अगर इस नियम पर अमल हुआ तो उनका टिकट कट जाएगा। इसलिए इस उम्र के कई नेता अभी से अपनी पोजिशनिंग करने में लग गए है। छत्तीसगढ़ में पार्टी के दिग्गज आदिवासी नेता नंदकुमार साय के पार्टी छोड़ने का एक बड़ा कारण यह भी है कि उनकी उम्र 77 साल हो गई है और उनको लग रहा है कि अगले चुनाव में लड़ने का मौका नही मिलेगा। पार्टी उनके परिवार के किसी सदस्य को टिकट देगी, इसमें भी संशय है। भाजपा के 303 लोकसभा सदस्यों में कई ऐसे हैं, जो अगले साल चुनाव तक 70 साल से ऊपर और 75 के करीब होंगे। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 73 वर्ष से ऊपर के हो जाएंगे और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह 73 के करीब पहुंच जाएंगे। बिहार में रमा देवी 75 साल की हो गई हैं तो राधामोहन सिंह अगले साल 75 के हो जाएंगे। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे भी 70 साल से ऊपर के हैं। झारखंड में पशुपति नाथ सिंह से लेकर उत्तर प्रदेश में रिटायर्ड जनरल वीके सिंह भी अब 75 के लपेटे में पहुंचे हुए हैं। भाजपा के लिए इन नेताओं का विकल्प खोजना आसान नहीं होगा।

शिवसेना पवार के साथ

एनसीपी को टूटने से बचाने और अजित पवार की राजनीतिक हैसियत कम करने के शरद पवार के अभियान में शिवसेना के नेता लगातार शरद पवार के साथ हैं और अजित पवार को निशाना बनाते रहे हैं। शिवसेना के सांसद संजय राउत के साथ तो अजित पवार की जुबानी जंग भी हुई। अब एक बार फिर शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट के मुखपत्र 'सामना’ में पवार परिवार के झगड़े को लेकर टिप्पणी की गई है। एक तरह से सामना ने स्पष्ट कर दिया है कि अजित पवार कुछ भी कहे, वे शरद पवार के राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं हैं। यही बात पवार सीनियर साबित करना चाहते है। सामना में छपे इस लेख का पूरा मकसद यह बताना है कि अजित पवार उत्तराधिकारी नहीं हैं और वे इतने सक्षम नहीं हैं कि पार्टी को आगे ले जा सकें। इसके बाद पवार की राजनीति का दूसरा चरण शुरू होगा। वे अब अपना उत्तराधिकारी तैयार करेंगे, जो सबको पता है कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले होंगी। पवार ने अपने इस्तीफ़े के दांव और बाहरी पार्टियो का समर्थन जुटा कर अपनी कमान मजबूत की और साथ ही अजित पवार को भाजपा का करीबी भी साबित कर दिया है। सो, दूसरी पार्टियों के नेता भी सुप्रिया सुले को शरद पवार का उत्तराधिकारी स्वीकार करने को तैयार हैं।

गलत ट्रैक पर चल रहे हैं अजित पवार?

एनसीपी में पिछले दिनों जो घटनाक्रम घटा उसमें एक बात खासतौर पर यह भी उभर कर आई कि अजित पवार वही गलती कर रहे हैं जो गलती राज ठाकरे और शिवपाल यादव कर चुके हैं। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि अजित पवार इन दोनों नेताओं के मुकाबले ज़्यादा होशियार हैं और अपनी गलतियों से भी उन्होंने कुछ न कुछ फायदा उठाया है लेकिन साथ ही वे अपने आप को राजनीतिक रूप से लगातार कमज़ोर भी करते गए हैं। अब तो स्थिति यह हो गई है कि एनसीपी की राजनीति में वे हाशिए पर रहेंगे या अगर बाहर निकलेंगे तो राज ठाकरे और शिवपाल यादव की गति को प्राप्त होंगे। दरअसल वे यह भूल गए कि पार्टियों के संस्थापक नेता अपने बेटे या बेटी को ही उत्तराधिकार सौंपते हैं। नेता का भाई या भतीजा चाहे जितना काबिल हो पर नेता का उत्तराधिकारी बेटा या बेटी ही बनेगा। प्रकाश सिंह बादल ने अंतत: सुखबीर को ही उत्तराधिकारी बनाया भतीजे मनप्रीत को नहीं या बाल ठाकरे ने उद्धव ठाकरे को उत्तराधिकारी बनाया भतीजे राज ठाकरे को नहीं या मुलायम सिंह यादव ने तमाम ड्रामेबाज़ी के बाद बेटे अखिलेश यादव को ही कमान सौंपी, भाई शिवपाल को नहीं। उसी तरह यह तय मानना चाहिए कि शरद पवार अपनी बेटी सुप्रिया सुले को ही उत्तराधिकारी बनाएंगे, अजित पवार को नहीं। अगर इस स्थिति को स्वीकार करके अजित पवार राजनीति करेंगे तो उनकी अजित दादा वाली हैसियत बनी रहेगी, अन्यथा पार्टी से बाहर होकर वे राज ठाकरे बनेंगे या वापसी करके शिवपाल यादव वाली हैसियत प्राप्त करेंगे। सफल तभी हो सकते हैं, जब वे शरद पवार को परास्त करने की स्थिति में हो।

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