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कुशवाहा प्रकरण: बिहार की बदलती सोशियो-पॉलिटिकल तस्वीर

मंडल कमीशन लागू होने के क़रीब 30 साल बाद, क्या अब बिहार में सत्ता संघर्ष अगड़ा बनाम पिछड़ा से शिफ़्ट हो कर पिछड़ा बनाम पिछड़ा में बदल गया है...
Nitish, Upendra

बिहार में उपेंद्र कुशवाहा ने नई पार्टी बना ली है। ऐसे में, मंडल कमीशन लागू होने के 3 दशक बाद, यह सवाल भी उठना लाजिमी है कि क्या अब सत्ता का संघर्ष उन्हीं के बीच होना शुरू हो गया है, जो कभी कंधे से कंधा मिला कर बिहार की सत्ता से अगड़ी जातियों को हटाने के लिए मोर्चा निकालते थे। खुद को कर्पूरी ठाकुर का शिष्य बताने वाले लालू यादव हों या नीतीश कुमार या दिवंगत रामविलास पासवान, इन सभी लोगों की मंडलवादी राजनीति इसी बात के लिए थी कि कैसे बिहार में बहुसंख्यक जाति का राज पूरी हनक के साथ कायम हो। लेकिन, 15 साल के लालू शासन के दौरान ही, नीतीश कुमार या (दिवंगत) राम विलास पासवान के रास्ते अलग होते चले गए। हालांकि, तब इस अलगाव का कारण विशुद्ध निजी पॉलिटिकल महत्वकांक्षा थी न कि किसी प्रकार के सोशल चेंज का असर।

सोशल नहीं पॉलिटिकल गेम 

आज के बिहार में करीब-करीब जाति आधारित कोर वोट के दम पर कई पार्टियां बन चुकी है। चाहे मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी हो, पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी हो, मांझी की हम हो या फिर अब उपेंद्र कुशवाहा की नई पार्टी राष्ट्रीय लोक जनता दल। इन सबकी भी निजी महत्वाकांक्षा है लेकिन 3 दशक के सोशल चेंज का असर भी अब साफ़ दिखने लगा है। हालांकि, मौजूदा कुशवाहा प्रकरण पर सीपीआई-माले (लिबरेशन) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य का मत अलग है। न्यूज़क्लिक के लिए की गई बातचीत में उनका कहना है, “जैसे भाजपा ने महाराष्ट्र में शिंदे गुट के सहारे शिव सेना को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है, ठीक वैसे ही बिहार में भी भाजपा करना चाहती है।” यानी, भट्टाचार्य का मानना है कि उपेंद्र कुशवाहा प्रकरण भी महाराष्ट्र के राजनीतिक प्रकरण की तरह ही है, जहां भाजपा कुशवाहा को हथियार बना कर बिहार की मौजूदा सरकार से लड़ना चाहती है।

भट्टाचार्य सत्ता संघर्ष के लिए पिछड़ा बनाम पिछड़ा की थ्योरी को खारिज करते हुए कहते हैं, “बिहार में इस वक्त एक ऐसी सरकार चल रही है जिसमें सभी जातियों का उचित प्रतिनिधित्व है और सरकार सभी जातियों को साथ ले कर चल रही हैं।” 

लेकिन, इस सबके बीच एक तथ्य यह भी है कि उपेंद्र कुशवाहा पहले भी रालोसपा बनाकर भाजपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ चुके हैं। उसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी का विलय जद(यू) में कर लिया था। लेकिन, मामला वहाँ से बिगड़ना शुरू हुआ जबसे नीतीश कुमार ने यह कहना शुरू किया कि 2025 के चुनाव की कमान तेजस्वी संभालेंगे। जाहिर है, उपेंद्र कुशवाहा ने जिस उम्मीद में अपनी पार्टी का विलय जद(यू) में किया था, वह उम्मीद इस अकेले बयान ने ध्वस्त कर दी। जाहिर है, उपेंद्र कुशवाहा टिकट बांटने वाले हैसियत के नेता हैं, जो एक टिकट के लिए नीतीश कुमार या तेजस्वी यादव के भरोसे नहीं रह सकते थे। फिर, नीतीश कुमार की मुखालफत कर पार्टी से एक टिकट तक लेना कितना कठिन है, यह जार्ज फर्नांडीज से लेकर शरद यादव तक के केस में लोगों ने देखा है। ऐसे में, उपेंद्र कुशवाहा के पास और क्या विकल्प हो सकता था?

जातीय अस्मिता या कुछ और?

बिहार के एक क्षेत्रीय दल के नेता न्यूज़क्लिक के लिए अनौपचारिक बातचीत में कहते है कि वन्दोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट को देखना चाहिए। वे दावा करते हैं कि इस कमेटी के अनुसार बिहार में पिछले 30 सालों में जमीन का सबसे ज्यादा हस्तांतरण यादवों और कुर्मी के हाथों हुआ है। तो राजनीति और आर्थिक (जमीन के मामले में भी) जब यही दो जातियां लगातार मजबूत होती गयी है, तो अन्य ओबीसी जातियों के बीच इसे लेकर बेचैनी होगी। और शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि सत्ता में अब अधिक से अधिक हिस्सेदारी के लिए जातीय अस्मिता के नाम पर राजनीतिक दलों का गठन होने लगा है।

इस मसले पर दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज के प्रोफेसर और दलित चिंतक प्रोफेसर रतन लाल ने बात करते हुए कहा, “असली लड़ाई अभी भी बैकवर्ड बनाम फॉरवर्ड ही है। अभी भी संसाधनों के बंटवारे का आंकलन किए जाने की जरूरत है। लोकतंत्र में जातीय अस्मिता के नाम पर पार्टियां बनाती रहती हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन इस बात का असेसमेंट होते रहना चाहिए कि जातीय अस्मिता के आधार पर बनने वाली पार्टियों के एजेंडा में सोशल जस्टिस शामिल है या नहीं।”

बहरहाल, उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार की जोड़ी कभी बिहार की राजनीति में लव-कुश (कोईरी-कुर्मी) की जोड़ी मानी जाती थी। लालू यादव के खिलाफ नीतीश कुमार की मुनादी में इस समीकरण का एक बड़ा योगदान रहा है। लेकिन नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं, जिसकी बिहार की जनसंख्या में तकरीबन 4 से 5 फीसदी की हिस्सेदारी है जबकि उपेंद्र कुशवाहा जिस जाति से आते हैं उसकी हिस्सेदारी 8 से 9 फीसदी है। और निश्चित ही उपेंद्र कुशवाहा यह जानते होंगे कि चुनावी लोकतंत्र में सिर गिने जाते है, तौले नहीं जाते। फिर भी एक समय तक नीतीश कुमार इस समीकरण के निर्विवाद नेता रहे। लेकिन सत्ता के शीर्ष में हिस्सेदारी का विवाद ही था कि एक सीमा के बाद यह समीकरण टूटता चला गया। हालांकि, जातीय अस्मिता या जातीय हिस्सेदारी के आधार पर दल बना कर उपेंद्र कुशवाहा कितना राजनीतिक लाभ ले पाएंगे या 2024 के लोकसभा चुनाव में वे एक बार फिर भाजपा के एजेंडे को मजबूत बनाने का काम करेंगे, इसका जवाब आने वाले समय में पता चलेगा लेकिन 1990 के बरक्स 2023 के बिहार की राजनीतिक तस्वीर इस बात का संकेत है कि अब लड़ाई “अपनों” के बीच ही है।

सांप्रदायिकता का जवाब जाति?

उपेंद्र कुशवाहा प्रकरण और इस बहाने सत्ता के लिए ओबीसी बनाम ओबीसी संघर्ष के मुद्दे पर कांग्रेस प्रवक्ता असितनाथ तिवारी का मानना है कि सांप्रदायिकता और धार्मिक ध्रुवीकरण का जवाब कभी भी जातीय ध्रुवीकरण से नहीं दिया जा सकता है। वे कहते हैं, “कांग्रेस को छोड़ कर, बाकी की राजनीतिक ताकतें भाजपा की सांप्रदायिकता को रोकने के लिए जाति को हथियार बनाने की कोशश कर रही हैं। यह वैसा ही है जैसे आग से आग को बुझाने की कोशिश की जाए। सांप्रदायिकता की आग से जल रहे देश को जातिवाद की आग से बचाया नहीं जा एकता बल्कि और यह जलेगा ही।” असितनाथ का मानना है कि  बिहार में कुछ क्षेत्रीय दल इसी तरह की आग फैलाना चाहते हैं और 90 के दशक का बिहार (जातीय संघर्ष) बनाना चाहते है। वे इस बात से इत्तेफाक रखते है कि इस वक्त बिहार में जो हो रहा है उससे ओबीसी बनाम ओबीसी का टकराव भी बढ़ेगा, लेकिन ऐसा होना बिहार के हित में कभी भी अच्छा नहीं होगा। वे प्रतिप्रश्न करते हुए कहते हैं कि क्या यह अच्छा होगा कि कुशवाहा-कुर्मी को लड़ा दिया जाए या दलित-महादलित को लड़ा दिया जाए?

बहरहाल, बिहार में 90 का दशक जहां इस बात का गवाह रहा कि कैसे सत्ता के संघर्ष में पिछड़ों ने एकजुट हो कर अगड़ों को शिकस्त दी। 90 के बाद से तकरीबन यह साफ़ हो गया कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। इस लिहाज से सत्ता का शीर्ष एक तरह से ओबीसी के लिए पिछले 33 सालों से रिजर्व होता दिखा। लेकिन, अब यह संघर्ष ओबीसी के बीच तक जा पहुंचा है। यह एक ऐसी सच्चाई हैं, जिस पर  राजनीतिक बाध्यता के कारण भले कोई खुल कर कुछ न कहना चाहे, लेकिन मौजूदा बिहार में ऐसा हो रहा है। और सबसे बड़ी बात, भाजपा इस सच को जानती है और बखूबी पिछले कुछ समय से इस फार्म्यूला का इस्तेमाल भी कर रही है। ऐसे में बिहार महागठबंधन के लिए आने वाले चुनावों में ओवैसी फैक्टर, चिराग फैक्टर और अब कुशवाहा फैक्टर, का सामना करना पहले से कहीं बड़ी चुनौती साबित हो सकती है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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