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विधानसभा चुनावों का सबक़: विपक्ष को कारगर नैरेटिव और एकजुटता के साथ बिना देर किए मैदान में उतरना होगा

चुनाव नतीजों के realistic आकलन से साफ है कि इनके आधार पर हैट्रिक आदि की जो भी भविष्यवाणियां की जा रही हैं, वे agenda-driven हैं।
INDIA
फाइल फ़ोटो।

सच तो यह है कि हिंदी पट्टी के इन तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत से 2024 में भाजपा की वहां की लोकसभा सीटों पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है। इन 3 राज्यों में अगर भाजपा सब सीटें जीत जाय- अर्थात वह कांग्रेस को 2019 में इन राज्यों में मिली कुल सीटें छीन ले-तब भी उसे मात्र 3 सीटों का नेट लाभ होगा। क्योंकि  तब तीनों राज्यों में सरकार बनने के बावजूद कांग्रेस को मात्र 3 सीटें ही मिली थीं।

यह भी सम्भव है कि जिस तरह तेलंगाना में कांग्रेस को मिले वोटों ने न सिर्फ शेष 3 राज्यों के मतों में भाजपा को मिली बढ़त को compensate कर दिया, बल्कि कुल मतों में भाजपा उससे पिछड़ गई, वैसे ही 2024 लोकसभा चुनाव में तेलंगाना में कांग्रेस की सम्भावित बढ़त ( जहां पिछली बार भाजपा को 4, कांग्रेस को 3 सीट मिली थी )  शेष 3 राज्यों के  अधिकतम 3 सीटों के loss की भरपाई कर दे। 

बहरहाल, इन नतीजों के बाद संघ-भाजपा नेताओं, उनके बुद्धिजीवियों और गोदी मीडिया द्वारा एक जबरदस्त मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़ दिया गया है। हमेशा की तरह स्वयं मोदी ने ' राज्यों की हैट्रिक को लोकसभा की हैट्रिक की गारंटी ' बताते हुए, इसका सबसे catchy और आक्रामक articulation किया।

नैरेटिव यह बनाया जा रहा है कि मोदी का करिश्मा लोगों के, विशेषकर समूची हिंदी पट्टी की जनता के सर चढ़कर बोल रहा है और अब 2024 में मोदी की पुनर्वापसी को किसी भी हाल में विपक्ष रोक नहीं पायेगा। इस नैरेटिव का उद्देश्य यह है कि विपक्ष को इतना demoralise कर दिया जाय कि वह दबाव में बिखर जाय और लड़ाई के पहले ही हार मान ले। 

विपक्ष को एकजुट होकर आक्रामक राजनीतिक पहल द्वारा इस मनोवैज्ञानिक युद्ध का मुकाबला करना होगा।

बेशक, 3 राज्यों के नतीजे विपक्ष के लिए बड़ा झटका हैं। बहरहाल, भारत जोड़ो यात्रा, कर्नाटक विजय और INDIA गठबंधन की शुरुआती हलचलों से पैदा हुई complacency से मुक्त होकर 2024 के लिए battle- ready होने के लिहाज से शायद ये नतीजे विपक्ष के लिए blessing in disguise साबित हों।

यह तभी हो पायेगा जब विपक्ष बिना demoralise हुए इन नतीजों में छिपे  संदेशों और संकेतों को dispassionate ढंग से पढ़ सके और इनसे जरूरी सबक ले।

देश के मानचित्र में उत्तर-दक्षिण और यहाँ तक कि पूरब-पश्चिम का भी एक भाजपा-गैर भाजपा divide दिखता है, जाहिर है यह अलग अलग क्षेत्रों की विशिष्टताओं और भारत की विविधता की अभिव्यक्ति है। लेकिन इसे अतिरंजित करना और किसी अपरिवर्तनीय सत्य के रूप में पेश करना तथ्यों से मेल नहीं खाता तथा गलत निष्कर्ष तक ले जाएगा। हिंदी क्षेत्र को लेकर अनर्गल बयानबाज़ी नासमझी और आत्मघाती है।

यह सच है कि इस दौर में भाजपा अपने core votes को बढ़ाने में सफल हुई है जो हिंदुत्व-राष्ट्रवाद की नई आक्रामकता, सोशल इंजीनियरिंग व लाभार्थी योजनाओं से बने कथित मोदी करिश्मे का नतीजा है, जिसे गोदी मीडिया और व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ने समाज के एक हिस्से के दिलो-दिमाग में बैठा दिया है।

लेकिन यह मानना कि इसने बहुसंख्य हिन्दू जनता के बीच स्थायी आधार बना लिया है और यह स्थिति अपरिवर्तनीय है, तथ्यात्मक रूप से गलत है और एक defeatist मानसिकता को जन्म देने वाला है।

अगर यह सच होता तो अभी चंद महीने पहले भाजपा के दो मजबूत गढ़ों-दक्षिण के कर्नाटक ही नहीं, उत्तर के हिमाचल प्रदेश- में उसकी सरकारें न उखड़तीं अथवा उनके सबसे मजबूत गढ़ उत्तर प्रदेश में बिखरा होने के बावजूद मुख्य विपक्ष 37% वोट और सौ से ऊपर सीटें जीतने में सफल न होता। हिंदी पट्टी के महत्वपूर्ण राज्य बिहार में जब नीतीश भाजपा के साथ ही थे, विपक्षी महागठबंधन अपने आक्रामक राजनीतिक अभियान के बल पर उन्हें सत्ताच्युत करने के मुहाने तक पहुंच गया था।

ताजा चुनाव के नतीजे भी गवाह हैं कि first-past-the-post सिस्टम में सीटों में बड़ा अंतर दिखने के बावजूद मुख्य विपक्ष के मत प्रतिशत में गिरावट नहीं है और वह तीनों ही राज्यों में 40% के आसपास बना हुआ है। राजस्थान में गहलोत और सचिन पायलट की लगभग पूरे कार्यकाल भर चली खींचतान के बावजूद कांग्रेस भाजपा से महज 2% पीछे है। वही कहानी छत्तीसगढ़ की है। वहां भी 4% का फर्क है।

मध्यप्रदेश में बेशक यह फर्क 8% का है, लेकिन वहां भी कांग्रेस को 40% मत मिले हैं।

दरअसल इन चुनावों में कांग्रेस की जो हार हुई है, उसका श्रेय भाजपा से अधिक कांग्रेस को मिलना चाहिए। यह साफ है कि शीर्ष कांग्रेस नेता राहुल गांधी जाति जनगणना और ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को कॉन्विनसिंग नहीं बना सके। छत्तीसगढ़ और राजस्थान के उनके ओबीसी मुख्यमंत्री भी ओबीसी dominated सीटों पर बढ़त नहीं बना सके। इन दोनों राज्यों में और  मध्यप्रदेश में जहां भाजपा के ओबीसी मुख्यमंत्री थे, भाजपा ओबीसी के बीच कांग्रेस पर भारी पड़ी।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस जीत के प्रति इतनी आश्वस्त थी कि आदिवासियों के लगातार चल रहे आंदोलनों तथा लोकतान्त्रिक ताकतों के साथ कोई bridge बनाने की उसने जरूरत ही नहीं महसूस की।

नतीजतन, आदिवासी बहुल सीटों पर, जहां उसे पिछली बार भारी समर्थन मिला था, इस बार वह बुरी तरह भाजपा से पिछड़ गयी।

नरम हिंदुत्व की रणनीति पर अमल करती बघेल सरकार ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के सवालों पर चुप्पी साधे रही। अचरज नहीं, अगर इसने अल्पसंख्यकों के मतदान को प्रभावित किया हो।

मध्य प्रदेश में तो कमलनाथ भाजपा के खिलाफ कोई काउंटर political नैरेटिव सेट ही नहीं कर पाए। उल्टे हिन्दूराष्ट्र के पैरोकार बागेश्वर धाम के चरणों मे बैठकर, राम मंदिर निर्माण का श्रेय लेते हुए भाजपा के हिंदुत्व से प्रतिस्पर्धा में उतरकर उन्होंने उसके  नैरेटिव को ही मजबूत किया।

वे इस उम्मीद में थे कि 19 साल के शिवराज शासन से ऊबे लोग खुद-ब-खुद उनकी झोली में आ जाएंगे। लेकिन एक वैकल्पिक पोलिटिकल offensive के अभाव में कांग्रेस की गारंटियां भाजपा की लाडली बहना जैसी आकर्षक योजनाओं के आगे ढेर हो गईं।

राजस्थान में कांग्रेस का केवल 2% मत से पिछड़ना यह दिखाता है कि सरकार द्वारा लायी गयी शहरी रोजगार गारंटी और स्वास्थ्य के क्षेत्र में चिरंजीवी जैसी बुनियादी महत्व की योजनाओं को जनता का समर्थन मिला। लेकिन भारी बेरोजगारी, लगातार पेपर लीक जैसे मामलों के कारण नई पीढ़ी की नाराजगी, शीर्ष नेताओं की लड़ाई से उनके सामाजिक आधार का विभाजन- गुज्जर समुदाय का पूरी तरह खिलाफ हो जाना, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण आदि की कारगर काट न कर पाना गहलोत सरकार पर भारी पड़ा।

तीनों ही राज्यों में रही सही कसर विपक्ष के बिखराव ने पूरी कर दी। न सिर्फ भाजपा विरोधी मत विभाजित हो गए, बल्कि कई जगह पर लगता है छोटे दलों के समर्थक कांग्रेस के रुख से नाराज होकर भाजपा के पक्ष में चले गए।

जाहिर है आज विपक्ष की चुनौती बेहद बढ़ गयी है। सारे शिकवे-शिकायतें, पूर्वाग्रह-संकीर्ण हित भूलकर सम्पूर्ण विपक्ष को तत्काल पूरी तरह एकजुट होना होगा, तथा अधिकतम सम्भव क्षेत्रों में सीट शेयरिंग  को यथाशीघ्र सील करना होगा। उससे बढ़कर यह कि विधानसभा चुनावों के विपक्ष के नैरेटिव की कमजोरियों से सबक लेते हुए INDIA गठबंधन को अब बिना कोई विलम्ब किये convincing, कारगर नैरेटिव के साथ सामने आना होगा और राष्ट्रव्यापी जन-अभियान में उतरना होगा। राम-मंदिर उद्घाटन के तुरंत बाद चुनावों की घोषणा की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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