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''केकरा केकरा नाम बताऊं इस जग में बड़ा लूटेरवा हो...''

हम अपने उन पुरखों को याद करेंगे जिन्होंने समाज में प्रेम की बात की और ग़लत को ग़लत कहा, जिन्होंने जन की तकलीफ़ों की बात की।
IPTA

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 80वें स्थापना दिवस (25 मई) के अवसर पर इप्टा की विभिन्न इकाइयों ने देशभर में सांस्कृतिक आयोजन किए। इसी कड़ी में इप्टा जेएनयू ने 26 मई को लोक संगीत पर आधारित कार्यक्रम ‘लोक विरासत’ का आयोजन किया जिसमें कबीर, बुल्ले शाह, फ़रीद के कलाम के साथ ही बिदेसिया और इप्टा की अपनी फिल्म ‘धरती के लाल’ में शामिल लोक गीतों की प्रस्तुति दी। प्रस्तुतियों के दौरान भारत में प्रगतिशील सांगीतिक परंपरा और उसमें इप्टा के योगदान पर वरिष्ठ कलाधर्मी और रंग-संगीतज्ञ काजल घोष ने दर्शकों से बातचीत की।

लोक विरासत’ - लोक संगीत पर आधारित इप्टा जेएनयू की प्रस्तुति

वैश्वीकरण और बाज़ार की मार धीरे-धीरे ग्रामीण और लोक परिवेश को भी खा रही है, इसकी लपटें आज देश से देस तक की यात्रा कर चुकी हैं। कबीर हों या बुल्ले शाह, या फिर अन्य मध्यकालीन प्रगतिशीलता के पुरोधा, वे लोक से सीधे जुड़े रहे। उन्होंने लोकधर्मिता को आगे बढ़ाया और देस में व्याप्त रूढ़ियों, ढकोसलों, भेद-भाव को चुनौती दी। उनके बोलों का तकाजा यह था कि अगर वे मौजूदा दौर में रहते तो शायद उन्हें भी फासीवादी सांप्रदायिक ताकतों द्वारा देश और संस्कृति का विरोधी ठहरा दिया जाता। इप्टा जेएनयू ने “लोक विरासत” की प्रस्तुति के लिए अपने इन्हीं प्रगतिशील पुरखों की रचनाओं का चयन किया था। लोक में प्रेम की पैरोकारी करने वाले कबीर के गीत ‘ज़रा हल्के गाड़ी हाँको मोरा राम गाड़ीवाला’ की संगीतमयी प्रस्तुति के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इसके बाद भेद पैदा करने वाले तत्वों से आगाह करने वाले कबीर के ही गीत ‘होशियार रहना रे नगर में चोर आवेगा’, इंसान के इंसान से भेद को नकारती बाबा फ़रीद की रचना ‘वेख फ़रीदा मिट्टी खुल्ली’ व बुल्ले शाह रचित ‘माटी कुदम करेंदी यार’, बिदेसिया पर आधारित राममूर्ति चतुर्वेदी के गीत ‘दिनवा गिनत मोरी घिसली उमरिया’, राजस्थानी लोकगीत ‘कदी आवो नी रसीला म्हारे देस’ और अंत में इप्टा के बैनर तले 1946 में आई फिल्म ‘धरती के लाल’ के लोकगीत ‘केकरा केकरा नाम बताऊं इस जग में बड़ा लूटेरवा हो’ की संगीतमयी प्रस्तुति इप्टा जेएनयू के कलाकारों ने दी।

कार्यक्रम की प्रस्तुति में कोशिश यह रही कि बहुल लोक के गीतों को शामिल किया जाए साथ ही भारत में प्रगतिशील संगीत परंपरा में लोक संगीत के योगदान पर रंग-संगीतज्ञ काजल घोष से बातचीत की जाए। गीतों की प्रस्तुति के बीच काजल दा से मंच संचालक रजनीश साहिल की बातचीत का यह दौर जारी रहा।

कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए रजनीश साहिल ने कहा कि इप्टा के गठन के समय भी फासीवादी सांप्रदायिक राजनीति अपने पैर जमा रही थी, जिसके खिलाफ़ इप्टा ने आवाज़ उठाई और अपनी प्रस्‍तुतियां कीं। आज जब उसी राजनीति द्वारा संस्कृति का हवाला देते हुए हमें बार-बार एक ‘खास गौरवमयी अतीत’ की ओर देखने के लिए कहा जाता है तो हमने भी तय किया है कि हम अतीत की ओर देखेंगे, लेकिन नफरत की नजर से नहीं बल्कि प्रेम की नज़र से। हम अपने उन पुरखों को याद करेंगे जिन्होंने समाज में प्रेम की बात की और ग़लत को ग़लत कहा, जिन्होंने जन की तकलीफ़ों की बात की।

लोक संगीत में प्रगतिशील मूल्यों और प्रतिरोध के बारे में बोलते हुए काजल घोष ने कहा कि ‘संगीत में सुर से पहले लय आती है और लय हमारे जीवन में, हमारे कामों में है। जब एक किसान फसल काटता है, एक कारीगर काम करता है या मछुआरा नाव चलाता है तो उसके काम में एक लय होती है। कोई भी व्यक्ति जब श्रम का काम करता है तो उस काम की एक लय होती है और उस लय पर वह अपने दुख-सुख, सपने गुनगुनाता है। जब यह लय और गुनगुनाहट एक व्यक्ति से निकलकर सामूहिकता में आती है तो वह लोक की धुन हो जाती है। कह सकते हैं कि लोक संगीत श्रम से उपजा संगीत है और इस संगीत के साथ कबीर, बुल्ले शाह आदि को गाना अपने आप में प्रगतिशील और प्रतिरोध का संगीत है क्योंकि इन सभी ने अपने समय में जो चीजें गलत थीं उनका विरोध किया, अपने समय से आगे देखते हुए समानता, भाईचारे और प्रगतिशील मूल्यों की बात की।

अक्सर कहा जाता है कि युवा रील्स की दुनिया में मगन और हताश हो रहा है, वह अपनी जड़ों से दूर हो रहा है, लेकिन इस आयोजन में बतौर श्रोता/दर्शक शामिल होने के लिए निर्धारित समय से पहले ही युवा पहुंचने लगे थे जिससे साबित होता है कि लोक में किसी भी दीवार को ढहा देने की ताकत है। आज जब संकीर्ण राजनीति, पूंजी और तकनीक के गठजोड़ द्वारा तमाम तरह के भेद और वैचारिक अवरोध विश्वविद्यालय परिसर से लेकर आम जन के बीच तक खड़े किए जा रहे हैं तो उन्हे गलाने के लिए लोक कला और लोक संस्कृति का पानी ही इस्तेमाल करना होगा। नफ़रत की दीवारें कितनी ही ऊंची क्यों न हो जाएं, क्रोनि पूंजीवाद कुछ भी क्यों न परोस दे, उसका जवाब हम अपनी लोक विरासत से दे सकते हैं।

यह वही दौर है जब सत्ता के गलियारों से सीधे तौर पर लोकतंत्र पर हमला जारी है और विश्वविद्यालय इसके पहले निशाने पर हैं। उचित और व्यवस्थित जगह न होने के बावजूद भी इप्टा जेएनयू के साथियों ने लगातार कई दिनों तक प्रस्तुति की तैयारी की। वर्षा आनंद, क्षितिज वत्स, रजनीश साहिल, विनोद कोष्टी ने मिलकर गीतों के बोल से लेकर धुन तक को तैयार किया। ढोलक पर रमेश और हारमोनियम पर अनुला की संगत में इन्द्रदीप, मेघा, वर्षा, कृतिका, वर्षा आनंद, क्षितिज वत्स और मनमोहन ने लोक धुनों पर आधारित गीतों की शानदार प्रस्तुति दी। पूरे अभ्यास और प्रस्तुति के दरमियान विनोद कोष्टी व संतोष कुमार ने मिलकर तैयारी से संबंधित पहलुओं व व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी संभाली। कार्यक्रम का पोस्टर रजनीश साहिल ने तैयार किया और प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी सभी साथियों ने मिलकर उठाई।


 

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