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लॉकडाउन का इस्तेमाल कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार और असहमति को दबाने के लिए किया गया: मानवाधिकार संस्था

मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने मांग की है कि सरकार दिल्ली हिंसा पर पक्षपातपूर्ण कार्रवाई बंद करे। साथ ही संस्था का कहना है कि सरकार शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ आतंकवाद निरोधी, राजद्रोह कानूनों का इस्तेमाल कर रही है।
लॉकडाउन का इस्तेमाल कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार

दिल्ली: मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा है कि भारत सरकार को मुसलमानों के खिलाफ भेदभावपूर्ण नागरिकता नीतियों का शांतिपूर्वक विरोध करने वालों पर दर्ज राजनीतिक रूप से प्रेरित आरोपों को तुरंत वापस लेना चाहिए और उन्हें तुरंत रिहा कर देना चाहिए।

संस्था का कहना है कि पुलिस ने छात्रों, कार्यकर्ताओं और सरकार के अन्य आलोचकों के खिलाफ आतंकवाद निरोधी और राजद्रोह जैसे कठोर कानूनों का इस्तेमाल किया है, लेकिन सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थकों की हिंसा पर कार्रवाई नहीं की है। कुछ मामलों में, कार्यकर्ताओं को जमानत मिलने के बाद पुलिस ने उन पर नए आरोप दर्ज किए ताकि वे हिरासत में ही रहें। कोविड-19 के प्रकोप के दौरान ऐसा करने से उनके समक्ष संक्रमण का खतरा बढ़ गया है क्योंकि भीड़-भाड़ वाली जेलों में पर्याप्त स्वच्छता, साफ-सफाई और चिकित्सा देखभाल का काफी अभाव रहता है।

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारत सरकार ने राष्ट्रव्यापी कोविड-19 लॉकडाउन का इस्तेमाल कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने, असहमति को दबाने और भेदभावपूर्ण नीतियों के खिलाफ संभावित विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए किया है। पुलिस उत्पीड़न के पिछले मामलों को संबोधित करने के बजाय, मालूम पड़ता है कि सरकार अपना पूरा जोर उत्पीड़न के सिलसिला को और खींचने पर लगा रही है।”

गौरतलब है कि दिसंबर 2019 में, भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून लागू किया, जो भारत में पहली बार धर्म को नागरिकता का आधार बनाता है। इसके जवाब में, देश भर में इन आशंकाओं के बीच विरोध प्रदर्शन हुए कि “अवैध प्रवासियों” की पहचान करने के प्रस्तावित राष्ट्रव्यापी सत्यापन प्रक्रिया के साथ मिलकर यह कानून लाखों भारतीय मुसलमानों के नागरिकता अधिकारों को खतरे में डाल सकता है।

मानवाधिकार संस्था द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि 24 फरवरी, 2020 को दिल्ली में विरोध प्रदर्शनों के दौरान हिंसा भड़क उठी। इस हिंसा में कम-से-कम 53 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम थे। पुलिस पर्याप्त कार्रवाई करने में विफल रही और कई मौकों पर इन हमलों में संलिप्त रही। सरकार हिंसा की निष्पक्ष और पारदर्शी जांच करने में विफल रही है।

हालांकि मार्च 2020 में कोविड-19 का प्रसार रोकने के लिए सरकार की लॉकडाउन घोषणा के बाद शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थम गया, मगर तब से सरकार ने छात्र और कार्यकर्ताओं सहित प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया और “अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश को बदनाम करने” का “षड्यंत्र” रचने का आरोप लगाते हुए उन पर राजद्रोह, हत्या और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत आतंकवाद के मुकदमे दर्ज किए हैं।
 
गिरफ्तार किए गए लोगों में छात्र नेता मीरान हैदर, सफूरा ज़रगर, आसिफ इकबाल तन्हा और गुलफिशा फातिमा; कार्यकर्ता शिफा-उर-रहमान और खालिद सैफी; नारीवादी समूह पिंजरा तोड़ की छात्र नेता देवांगना कलिता और नताशा नरवाल, आम आदमी पार्टी के एक स्थानीय नेता ताहिर हुसैन और विपक्षी कांग्रेस पार्टी की स्थानीय नेता इशरत जहां शामिल हैं।
 
संस्था का कहना है कि दंगा करने के आरोप में 10 अप्रैल को गिरफ्तार ज़रगर को तीन दिन बाद जमानत दी गई। लेकिन उसी दिन पुलिस ने उन पर यूएपीए के तहत, और हत्या और राजद्रोह का मामला दर्ज कर दिया। गर्भावस्था की दूसरी तिमाही और एक विशेष चिकित्सीय स्थिति में होने के बावजूद उन्हें इन आरोपों के आधार पर जमानत नहीं दी गई, जबकि यदि वह कोविड-19 संक्रमित होती हैं तो इन दोनों वजहों से उनकी स्थिति जटिल होने का जोखिम बढ़ सकता है।

कलिता और नरवाल को दंगा करने के आरोप में गिरफ्तारी के बाद जमानत मिल गई। कलिता के मामले में, मजिस्ट्रेट ने कहा कि पुलिस हिंसा में उनकी भूमिका साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं दे पाई। लेकिन दिल्ली पुलिस ने तुरंत उन पर अन्य आरोपों के साथ राजद्रोह, हत्या और यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया और अभी वे जेल में बंद हैं।

गौरतलब है कि 24 फरवरी को दिल्ली में स्थानीय बीजेपी नेता कपिल मिश्रा की इस मांग के तुरंत बाद हिंसा भड़क उठी कि पुलिस प्रदर्शनकारियों को फ़ौरन सड़क से हटाए। भाजपा नेताओं द्वारा प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा की खुली वकालत करने, सरकार की आलोचना करने वाले किसी भी व्यक्ति को देश विरोधी बताने के साथ हफ्तों से तनाव की स्थिति बन रही थी।

मानवाधिकार संस्था का कहना है कि अब अनेक कार्यकर्ता इस बात को लेकर आशंकित हैं कि पुलिस ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के उन इलाकों के मुस्लिम निवासियों को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार किया है जहां फरवरी में हिंसा हुई थी, कुछ गिरफ्तार लोगों में हमलों के शिकार भी हैं जबकि पुलिस भीड़ के हमलों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल हुई है।

हालांकि दिल्ली पुलिस ने इन आरोपों से इनकार करते हुए कहा है कि दोनों समुदायों से “लगभग एक सामान संख्या में” लोगों को गिरफ्तार किया गया है, लेकिन उन्होंने गिरफ्तारी के बारे में तफ़सील से नहीं बताया है। यहां तक कि सरकार ने विरोधाभासी जानकारी दी है।

मार्च में, गृह मंत्री अमित शाह ने संसद को बताया कि हिंसा एक “सुनियोजित साजिश” थी और पुलिस ने 700 से अधिक मामले दर्ज किए और 2,647 लोगों को हिरासत में लिया। इसके एक दिन बाद दिल्ली पुलिस ने मीडिया को बताया कि 200 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। एक महीने बाद, सूचना के अधिकार के तहत डाले गए आवेदन के जवाब में, दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि 48 लोगों को गिरफ्तार किया गया। मई में, पुलिस प्रवक्ता ने कहा कि 750 से अधिक मामलों में 1,300 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया है।

कई मामलों में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस ने अपराध संहिता के तहत स्थापित प्रक्रियाओं (जैसे गिरफ्तारी वारंट प्रस्तुत करना, गिरफ्तारी के बारे में व्यक्ति के परिवार को सूचित करना और उन्हें आधिकारिक पुलिस केस- प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति प्रदान करना या यह सुनिश्चित करना कि पूछताछ समेत अन्य मौकों पर भी गिरफ्तार लोगों की पहुंच वकीलों तक हो) का पालन नहीं किया।

प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक एक वकील ने बताया कि उसके 45 वर्षीय मुवक्किल पर भीड़ में शामिल होकर दुकान में लूटपाट और आगजनी का आरोप लगाया गया। 2 अप्रैल को जब उनके मुवक्किल और उनकी पत्नी घर पर नहीं थे, कई पुलिसकर्मियों ने उनके घर में जबरन घुस कर तलाशी ली और उनके छोटे बेटे को उठाकर पुलिस स्टेशन ले गए। उनके बेटे को तभी रिहा किया गया, जब उन्होंने खुद को पुलिस के सामने पेश किया। पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया लेकिन उन्हें या उनकी पत्नी को आरोप के बारे में नहीं बताया। दस दिनों के बाद उनकी पत्नी को प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति दी गई। दो माह बाद जमानत मिलने तक वह अपने वकील से मुलाकात या बातचीत नहीं कर पाए।

इसी तरह फ़रवरी की दिल्ली हिंसा के दौरान गोली से घायल एक 35 वर्षीय व्यक्ति के वकील ने बताया कि उनके मुवक्किल को बिना वारंट के 7 अप्रैल को हिरासत में लिया गया। उनके परिवार के लोगों ने उनके ठिकाने का पता लगाने के लिए तीन थानों का चक्कर लगाया लेकिन उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गई। अंत में जाकर परिजनों को बताया गया कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन उन्हें प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति नहीं दी गई। उनके वकील को अपने मुवक्किल के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए अदालत में आवेदन देना पड़ा और तब पता चला कि उन पर हत्या का आरोप लगाया गया है। वह अभी जेल में बंद हैं।

कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से गिरफ्तार लोगों की वकीलों या परिवार के सदस्यों तक कोई पहुंच नहीं है। दंगा और आगजनी के आरोप में एक 21 वर्षीय व्यक्ति को 7 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया। उनकी वकील ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि वह अब तक अपने मुवक्किल से नहीं मिल पाई हैं: “लॉकडाउन की शुरुआत में, अदालत के रिकार्ड्स तक पहुंच बहुत बड़ी चुनौती थी। आम तौर पर, गिरफ्तार लोगों को किसी वकील की उपस्थिति के बिना ही न्यायिक हिरासत में भेजा जा रहा था। मेरा अपने मुवक्किल से कोई संपर्क नहीं है। सामान्य परिस्थितियों में, उन्हें हर 14 दिनों पर अदालत में पेश किया जाता और मैं उनके स्वास्थ्य की जांच करती, उनके साथ बातचीत करती, अगर उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत होती तो आवेदन डालती, लेकिन अभी मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर सकती।”

गौरतलब है कि देश भर में, विशेष रूप से भाजपा शासित राज्यों में कार्यकर्ताओं और छात्रों को नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए निशाना बनाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र फरहान जुबेरी को राजद्रोह, दंगा करने और हत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार किया गया। डॉ. कफील खान को पहले विरोध प्रदर्शनों के दौरान समूहों के बीच वैमनस्य बढ़ाने वाले भाषण के लिए गिरफ्तार किया गया, लेकिन 11 फरवरी को जमानत मिलने के बाद, उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत आरोपित किया गया और उन्हें हिरासत में ही रखा गया।

असम में, पुलिस ने कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया, जिनमें से कुछ पर राजद्रोह के साथ-साथ यूएपीए के तहत भी मामले दर्ज किए गए। जनवरी में, दिल्ली पुलिस ने एक विश्वविद्यालय छात्र शरजील इमाम पर राजद्रोह का आरोप लगाया और अभी वह जेल में बंद हैं। फरवरी में, अमूल्य लीओना नोरोन्हा को कर्नाटक में एक प्रदर्शन के दौरान पाकिस्तान और भारत की एकता का नारा लगाने के लिए राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया, लेकिन तीन महीने से अधिक समय तक हिरासत में रहने के बाद उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया क्योंकि पुलिस 90 दिनों की निर्दिष्ट समय सीमा के भीतर आरोपपत्र दायर नहीं कर पाई।

ह्यूमन राइट्स वॉच ने पहले भी अपनी रिपोर्ट में यह जिक्र किया है कि आम तौर पर शांतिपूर्ण रहे विरोध प्रदर्शनों पर सरकार ने पक्षपातपूर्ण कार्रवाई किया। अनेक मामलों में, जब प्रदर्शनकारियों पर भाजपा से जुड़े समूहों ने हमला किया, तो पुलिस ने हस्तक्षेप नहीं किया।

सरकार ने उन भाजपा नेताओं के खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं की जिन्होंने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा भड़काई, उन्हें “गोली मारने” का आह्वान किया। फरवरी में हुई हिंसा से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने हिंसा के लिए उकसाने वाले भाजपा नेताओं के खिलाफ मामला दर्ज नहीं करने के पुलिस के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इससे गलत संदेश गया और उन्हें बेख़ौफ़ होकर काम करने दिया गया। तब सरकारी वकील ने यह दलील दी कि भाजपा नेताओं के खिलाफ पुलिस शिकायत दर्ज करने के लिए अभी स्थिति “अनुकूल” नहीं है।

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने और शांतिपूर्ण सभा के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। सरकार को औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून को निरस्त करने के साथ-साथ यूएपीए को निरस्त करना चाहिए या उसमें व्यापक संशोधन करना चाहिए जिससे कि इन कानूनों के तहत किए जाने वाले उत्पीड़नों को समाप्त किया जा सके।

गांगुली ने कहा, “भेदभावपूर्ण सरकारी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत करने वालों को गिरफ्तार करने के बजाय, सरकार को उनकी जायज आशंकाओं और शिकायतों को सुनना चाहिए। सरकार ने बार-बार कहा है कि भारत में अल्पसंख्यकों को डरने की कोई जरूरत नहीं है, सरकार को अपनी इस बात पर खरा उतरना चाहिए।”

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