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मात्र दिखावा बनकर रह गए हैं लोकपाल और लोकायुक्त!

लोकपाल को 2019-20 में कुल 1,427 शिकायतें मिलीं, जिसमें से करीब 80 प्रतिशत यानी 1,152 शिकायतें लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर की थीं।
लोकपाल
Image courtesy: The Economic Times

दिल्ली: लोकपाल को 2019-20 में कुल 1,427 शिकायतें मिलीं, जिनमें से 613 राज्य सरकार के अधिकारियों से संबंधित थीं और चार शिकायतें केंद्रीय मंत्रियों तथा संसद सदस्यों के खिलाफ थीं। लोकपाल के अनुसार कुल शिकायतों में से 1,347 का निस्तारण किया गया। 1,152 शिकायतें लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर की थीं।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, लोकपाल को मिलीं 245 शिकायतें केंद्र सरकार के अधिकारियों के विरुद्ध, 200 सार्वजनिक उपक्रमों, वैधानिक इकाइयों, न्यायिक संस्थाओं तथा केंद्र स्तर की स्वायत्त संस्थाओं के खिलाफ, वहीं 135 शिकायतें निजी क्षेत्र के लोगों और संगठनों के विरुद्ध थीं। लोकपाल के आंकड़ों के अनुसार, छह शिकायतें राज्य सरकारों के मंत्रियों और विधानसभा सदस्यों के खिलाफ थीं। इसमें कहा गया कि कुल शिकायतों में से 220 अनुरोध/टिप्पणियां/सुझाव थे। आंकड़ों के मुताबिक कुल 78 शिकायतों को निर्दिष्ट प्रारूप में दाखिल करने की सलाह दी गयी।

गौरतलब है कि लोकपाल सार्वजनिक पदाधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों में जांच करने वाली शीर्ष संस्था है। केंद्र सरकार ने इस साल मार्च में लोकपाल में शिकायत दाखिल करने का एक प्रारूप अधिसूचित किया था। इसके अधिसूचित किये जाने से पहले लोकपाल को किसी भी प्रारूप में मिली सभी शिकायतों की छानबीन की जाती थी। यानी हीलाहवाली का यह आलम रहा कि लोकपाल की नियुक्ति के करीब 11 महीने बाद सरकार ने शिकायत दर्ज कराने को लेकर नियम जारी किए थे।

आपको याद दिला दें कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पिछले साल 23 मार्च को न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष को लोकपाल के प्रमुख के रूप में शपथ दिलाई थी। लोकपाल के आठ सदस्यों को न्यायमूर्ति घोष ने 27 मार्च को पद की शपथ दिलाई थी। हालांकि लोकपाल के सदस्य न्यायमूर्ति अजय कुमार त्रिपाठी का इस साल मई में निधन हो गया। एक अन्य सदस्य न्यायमूर्ति दिलीप बी भोसले ने इस साल जनवरी में पद से इस्तीफा दे दिया था। नियमों के अनुसार, लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम आठ सदस्यों के होने का प्रावधान है।

इतना ही नहीं दैनिक जागरण अखबार में इस साल अगस्त महीने में छपी एक खबर के अनुसार, 'देश को बहुप्रतीक्षित लोकपाल मिले एक वर्ष से ज्यादा हो गया है और लोकपाल के समक्ष शिकायत करने का तय प्रारूप जारी हुए भी करीब छह महीने बीत रहे हैं, लेकिन अभी तक लोकपाल के पास अपनी जांच विंग नहीं है। लोकपाल कानून के मुताबिक निदेशक जांच और निदेशक अभियोजन के पदों पर नियुक्ति नहीं हुई है। ये पद अभी तक खाली हैं।'

आपको ध्यान होगा देश में राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार मिटाने और केंद्र में लोकपाल के गठन की मांग के लिए हुए विभिन्न आंदोलनों के क्रम में 2011 का जंतर मंतर और फिर रामलीला मैदान का अन्ना हजारे आंदोलन सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहा था। एक लंबे हाहाकारी आंदोलन, कैंडल, जुलूस, टोपी, तख्ती और तत्कालीन यूपीए सरकार की विदाई के बावजूद देश में लोकपाल हो या राज्यों में लोकायुक्त- उन्हें लेकर शासन व्यवस्था अब भी नकार मुद्रा से बाहर नहीं निकली है, जबकि इस पूरे आंदोलन को एक दशक बीतने को है।

ऐसे में इस आंदोलन से आखिर क्या हासिल हुआ, ये सवाल लगातार गहरा होता जा रहा है। आपको यह भी बता दें कि बीते 16 सितंबर को गोवा के लोकायुक्त के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जस्टिस प्रफुल्ल कुमार मिश्रा (सेवानिवृत्त) ने राज्य सरकार के व्यवहार पर असंतुष्टि जताते हुए कहा कि लोकायुक्त के रूप में उनके करीब साढ़े चार साल के कार्यकाल के दौरान लोक अधिकारियों के खिलाफ उन्होंने जो 21 रिपोर्टें सौंपी राज्य सरकार ने उनमें से किसी एक पर भी कार्रवाई नहीं की।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस मिश्रा ने कहा, ‘यदि आप मुझसे एक वाक्य में गोवा में लोकायुक्त के रूप में इन शिकायतों से निपटने का मेरा अनुभव पूछते हैं तो मैं कहूंगा कि उन्हें लोकायुक्त की संस्था को खत्म कर देना चाहिए।’ उन्होंने कहा, ‘जनता के पैसे को बिना किसी काम के खर्च क्यों किया जाना चाहिए? यदि लोकायुक्त अधिनियम को इस तरह की ताकत के साथ कूड़ेदान में डाला जा रहा है, तो लोकायुक्त को समाप्त करना बेहतर है।’

73 वर्षीय मिश्रा ने 18 मार्च, 2016 से 16 सितंबर, 2020 तक गोवा के लोकायुक्त के पद पर काम किया। उन्होंने जिन लोक अधिकारियों के खिलाफ उन्होंने कार्रवाई की सिफारिश की उनमें पूर्व मुख्यमंत्री से लेकर मौजूदा विधायक तक शामिल हैं।

लगभग ऐसा ही देश के हर राज्य में हैं। केंद्र समेत 20 से अधिक राज्यों में लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति तो कर दी है यह लेकिन उनकी सिफारिशों को नजरंदाज कर दिया जाता है।

इसे लेकर काम करने वाले सोशल एक्टिविस्टों का आरोप है कि जानबूझकर लोकपाल से जुड़े न्यायक्षेत्र और अन्य जरूरतों और कानूनी विसंगतियों को उलझा कर रखा गया है। सबसे बड़ा विवाद तो लोकपाल और सदस्यों के चयन से ही जुड़ा है। चयन समिति में सरकारी प्रतिनिधियों का बहुमत है, जो नहीं होना चाहिए था। मशहूर एक्टिविस्ट अंजलि भारद्वाज के द वायर में प्रकाशित एक बयान के मुताबिक 'चयन समिति में सरकारी प्रतिनिधियों का बहुमत नहीं होना चाहिए था लेकिन आखिरकार वही हुआ। क्या लोकपाल उस सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की छानबीन कर पाएगा जिसने नियुक्तियां की हैं?'

इसका परिणाम यह हो रहा है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार में इजाफा हो रहा है। ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल की जनवरी में जारी करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में भारत 180 देशों की सूची में 80वें नंबर पर आया था। अगर पिछले पांच साल में इस सूचकांक के लिहाज से भारत का प्रदर्शन देखें, तो उसमें गिरावट ही आई है।

ऐसे में यही लगता है कि लोकपाल और लोकायुक्त मात्र दिखावा बनकर रह गए हैं।

(समाचार एजेंसी भाषा के इनपुट के साथ)

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