NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu
image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
विडंबना :  चालीस साल बाद गांव में ज़िंदगी की तलाश
पलायन कर रहे मज़दूरों का एक तबका वह है जो एक से पांच-सात साल पहले ज़िंदगी की तलाश में शहर को आया था, लेकिन 30-40 साल से रहकर शहरों को चमकाने वाले मज़दूर भी ज़िंदगी की तलाश में आज अपने गांव की तरफ देख रहे हैं।
सुनील कुमार
27 May 2020
चालीस साल बाद गांव में ज़िंदगी की तलाश

लॉकडाउन से देश में मज़दूरों की जो हालत है वह हम देख रहे हैं कि किस तरह से अपनी जान-जोखिम में डाल कर हजार-पन्द्रह सौ किलोमीटर युवा ही नहीं बच्चे, बूढ़े, बीमार और गर्भवती महिलाएं पैदल चलने पर विवश हैं। इस जोखिम भरी यात्रा में सरकार की तरफ से उनको लाठी-डंडे और गालियां ही मिल रही हैं। समाज का यह वह तबका है जो एक से पांच-सात साल पहले ज़िंदगी की तलाश में शहर को आया था। सत्तर, अस्सी के दशक से ही मज़दूरों का एक तबका दिल्ली जैसे शहर में ज़िंदगी की तलाश में आ गया था। इस लॉकडाउन में वह मज़दूर सड़कों पर दिखाई तो नहीं दे रहे हैं क्योंकि उन्होंने दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों, कच्ची कलोनियों में अपने लिए 10-20-50 गज में अपने परिवार के लिए एक छत बना रखी है। लेकिन इन मज़दूरों की हालत भी कोई उन मज़दूरों से अलग नहीं है जो सड़क पर चिलचिलाती धूप में चलने को विवश हैं। 30-40 साल से रहकर शहरों को चमकाने वाले मज़दूर ज़िंदगी की तलाश में आज अपने गांव की तरफ देख रहे हैं। ऐसे ही मज़दूर हैं भजनलाल जो 40 साल बाद अपने गांव में जाने को सोच रहे हैं।

आज बुजुर्ग हो चुके भजनलाल 17-18 साल की उम्र में परिवार का भरण-पोषण करने के लिए दिल्ली आ गये। दिल्ली आने से पहले वह पिता से विरासत में मिले सिलाई का काम सीख कर आये थे। भजनलाल के पिता करेराम पीलीभीत जिला के गांव रामपुर नगरिया के थे। करेराम के पास दो बीघा जमीन थी वह गांव में खेती और सिलाई का काम करके अपने परिवार का भरण-पोषण करने की कोशिश करते थे। जब परिवार के भरण-पोषण में दिक्कत होने लगी तो गांव के पास विशनपुर कस्बे में सिलाई का काम करने लगे। उस समय भजनलाल की उम्र 15 साल थी और वह कक्षा 6 में पढ़ते थे साथ ही पिता के साथ दुकान पर काम करने लगे। जब पिता करेराम को लगने लगा कि गांव की कमाई से घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है तो उन्होंने बेटे भजनलाल को पड़ोस के गांव के एक व्यक्ति के साथ दिल्ली कमाने को भेज दिया।

भजनलाल बताते हैं कि वह 17 साल की उम्र में दिल्ली के कोटला मुबारकपुर में आये थे। कम उम्र होने के कारण वह अपने पिता से टेलरिंग के सभी गुण को नहीं सीख पाये, वह सिलाई करना तो जानते थे लेकिन कटिंग नहीं आती थी। वह कोटला मुबारकपुर में ही फैक्ट्री में सिलाई का काम करने लगे और उसी में अंदर रहने लगे। वह गांव से अच्छा कमाई करने लगे और पैसे घर भेजने लगे थे। परिवार खुशहाली से रहने लगा। भजनलाल की अच्छी कमाई को देखते हुए पिता ने उनकी शादी कर दी। शादी के बाद भी भजनलाल दिल्ली के कोटला मुबारकपुर में आकर काम करने लगे। 3-4 साल बाद एक बार ऐसा समय आया कि उनकी फैक्ट्री में काम नहीं था तो वह पटेलनगर में भी काम करने के लिए आये लेकिन यहां भी कुछ समय बाद काम बंद हो गया। उनके पास पैसे भी खत्म होने लगा। उनके रिश्तेदार ने बोला कि अगर हम आज गांव नहीं गये तो कल के लिए किराया नहीं बचेगा तो हमें होटल में बर्तन साफ करने पड़ेंगे तब भजनलाल और उनके रिश्तेदार उसी रात ट्रेन पकड़कर गांव के लिए निकल गये।

गांव जाने के बाद भजनलाल के लिए एक ही विकल्प था कि जो ज़मीन है उसी में खेती करें। भजनलाल ने तरबूज की खेती करना शुरू किया आशा के विपरीत उनको खेती से अच्छा लाभ हुआ। दूसरे साल वह अपने खेती के साथ दूसरे का भी खेत बटाई पर लेकर खेती करने लगे। लेकिन खेती का हाल दूसरे साल वैसा नहीं रहा। खेती की लागत और पैदवार बराबर हो गई लेकिन आशा टूटी नहीं थी। तीसरे साल उन्होंने खेती की लेकिन बाढ़ का पानी उनके सपनों को अपने साथ भी बहाकर ले गया और वह कर्जदार हो गये। किसी तरह की सरकारी मदद नहीं मिली। और कर्ज उतारने के लिए उन्होंने एक बार फिर से दिल्ली का रूख किया लेकिन इस बार वह अकेले नहीं थे, उनके साथ उनका परिवार भी था। इस बार वह कोटला मुबारकपुर की जगह ख्याला में अपने रिश्तेदार के पास पहुंचे। किराये का मकान लिया।

ज़िंदगी चलती रही। कर्ज भी धीरे-धीरे खत्म हो गया। ख्याला में रहते हुए चार-पांच साल हो गए तभी उनको पता चला कि मीराबाग में झुग्गियां डाली जा रही है। किराये के दो पैसे की बचत हो जाए तो उन्होंने भी एक झुग्गी डाल ली। मीराबाग में रहते हुए चार-पांच साल गुजर गये तभी सरकार ने उस बस्ती को तोड़ दिया और उन जैसे रहने वाले सैकड़ों परिवारों को खुले आसमान में जीने को मजबूर कर दिया। तीन बच्चों के पिता भजनलाल परिवार को छत मुहैया कराने के लिए निहाल विहार में किराये पर मकान ले लिया। पन्द्रह साल की कमाई से जो बचत हुई थी उससे दो बेटियों की शादी कर दी और प्रवेश विहार, मुबारकपुर किरारी में 30 गज का प्लाट 1999 में ले लिया। पास में ही शर्ट, पैंट की सिलाई करने लगे जो कि स्थानीय बाजार में ही बेची जाती है, जिसको आप प्रधानमंत्री की भाषा में ‘लोकल को वोकल’ बनाने वाली बात कह सकते हैं।

लॉकडाउन के बाद उनका भी काम बंद हो गया और वह जिन्दा रहने की आशा में गांव जाकर फिर से खेती करना चाहते हैं ताकि भूखा नहीं रहना पड़े। दो माह के लॉकडाउन ने उनकी ज़िंदगी में फाकाकशी जैसे दिन ला दिए हैं। उनकी पत्नी का राममनोहर लोहिया अस्पताल से ईलाज चल रहा था लेकिन कोरोना के कारण वे अस्पताल भी नहीं जा पा रहे हैं, वह चारपाई पर लेटी रहती हैं। लॉकडाउन के डेढ़ महीने बाद उन्होंने किसी तरह बासमती चावल के झोले तैयार करने का काम किया है। भजनलाल बताते हैं कि इस झोला को तैयार करने में जितना श्रम है उस में करीब 5-7 रुपये प्रति झोला मिलना चाहिए लेकिन अभी सभी लोग बैठे हैं और यह काम करना चाहते हैं तो वह दो रुपये ही प्रति झोला दे रहा है। भजनलाल, रफीक के पास पहले काम किया करते थे आज रफीक का पूरा परिवार भी यह झोला सिलने पर मजबूर है।

पूरे दिन काम करने के बाद 100 झोले ही तैयार कर पाते हैं यानी 200 रुपये प्रति दिन का काम कर पा रहे हैं जिसमें सिलाई मशीन का मेंटनेंस और बिजली बिल भी इन्हीं को देना है। मजबूरीवश जो काम मिला है वह भी पन्द्रह दिन में चार-पांच दिन का ही था। लॉकडाउन में काम नहीं मिल पाने और झोले की सिलाई के काम से भजनलाल के तीन परिवार का खर्च नहीं चल पाने के कारण भजनलाल चालीस साल बाद आज झोला उठा कर गांव जाने के बारे सोच रहे हैं।

भजनलाल चाहते हैं कि उनका 22 साल का बेटा रामपाल भी उनके साथ गांव चले और गांव से 40 किलोमीटर दूर बरेली में कुछ काम कर लेगा। दिल्ली में पले बढ़े बेटे रामपाल को गांव जाने की इच्छा नहीं है। रामपाल कहते हैं कि अगर परिवार से दूर रहकर काम ही करना है तो 40 किलोमीटर दूर रहें या 400 किलोमीटर दूर रहे बात बराबर ही है। रामपाल गांव नहीं जाना चाहते वह दिल्ली में ही रहकर कुछ कमाना चाहते हैं। रामपाल को फरवरी माह से सर्वे का काम दिल्ली में मिला था जिसके लिए टू-व्हीलर और मोबाइल की जरूरत थी।

रामपाल ने जरूरत को देखते हुए मोबाइल और टू-व्हीलर किश्त पर ले लिया। टू-व्हीलर का 4000 रुपये प्रति माह और मोबाइल का 2000 रुपये प्रति माह किश्त चुकाना है। अब मां-पिता को डर लग रहा है कि किश्त जमा नहीं हुआ तो कम्पनी वाले मोबाइल और गाड़ी लेकर चले जायेंगे और उनका दिया हुआ पैसा भी डूब जायेगा। बातचीत में उनकी मां इस बात को हर बार दोहरा रही थी। सरकार तो लॉकडाउन के बाद घोषणा कर चुकी है कि तीन माह ईएमआई नहीं देना है। 21 मई को रिजर्व बैंक ने इस अवधि को और तीन माह के लिए बढ़ा दिया। लेकिन यह रामपाल के साथ नहीं हुआ जब रामपाल अपने टू-व्हीलर का मार्च का ईएमआई नहीं चुका पाया और उसके खाते का बैलेंस कम है तो उसके कर्जदाता बैंक एचडीएफसी से मैसेज आ गया कि अपने खाते में बैलेंस पूरा करें।

हम देखते हैं कि सरकार की घोषणाएं और हकीकत में काफी अंतर है। प्रधानमंत्री एक तरफ ‘लोकल को वोकल’ बनाने की बात करते हैं लेकिन लॉकडाउन में सबसे ज्यादा मार लोकल माल बनाने वाली ही कम्पनियों पर ही पड़ी है। लोकल माल बनाने वाले रफीक जैसे लाखों करोड़ों मालिक हैं जो एक-दो परिवारों को रोजगार देते थे लेकिन उनको कोई सरकारी मदद नहीं मिल पाती और लॉकडाउन ने उनको भी मालिक से मज़दूर की श्रेणी में डाल दिया है जिनको ‘20 लाख करोड़’ के पैकेज से 20 रुपये भी नहीं मिलने वाला है।

ऐसी स्थिति भजनलाल या रफीक की ही नहीं है, इससे भी बुरे हालत में दिहाड़ी मज़दूर हैं। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग (सीएसडीएस) और अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने 2019 में भारत के शहरों का एक अध्ययन कर बताया था कि भारत के बड़े शहरों में 29 प्रतिशत आबादी दिहाड़ी मज़दूरों की है। दिहाड़ी मज़दूरों के अलावा स्व रोजगार वाले मज़दूर हैं जो ई-रिक्शा, ऑटो, टैक्सी, रेहड़ी पटरी और साप्ताहिक बाजार लगाते हैं।

ऐसे ही मज़दूर सुलेमान हैं जो 23 साल पहले बुलंदशहर से दिल्ली आए थे और सबसे पहले कपड़े पर कढ़ाई का काम किया। तीन साल से वह ई-रिक्शा चलाते हैं। दो माह बाद सुलेमान 21 मई को ई-रिक्शा चलाने के लिए निकले थे, सरकार के नई गाइडलाइन के अनुसार एक ही सवारी बैठा सकते हैं। सुलेमान बताते हैं कि एक सवारी को बैठाने से रिक्शा के मेटेंनेंस का खर्च भी नहीं आ सकता। वह मुबारकपुर से नांगलोई मेट्रो तक तीन चक्कर लगाकर 120 रुपये कमा पाये जिसमें से 100 रुपये ई-रिक्शा के पार्किंग और बैट्री चार्ज शुल्क में देना पड़ा। नांगलोई से लौटते समय शाम के 7 से अधिक हो गया था तो पुलिस वाले के डंडे खाने पड़े। सुलेमान उसके बाद ई-रिक्शा पार्किंग से बाहर नहीं निकाले और बिना आय के 40 रू. रोज उनको पार्किंग शुल्क देना पड़ता है। वह कहते हैं कि ईद के बाद यही स्थिति रही तो वह गांव चले जायेंगे।

बहुत से ऐसे भी मज़दूर हैं जो पूरी तरह से गांव से उजड़ कर शहर में आकर बसे हैं लेकिन इस लॉकडाउन में उनको यह नहीं सूझ रहा है कि आगे वह क्या करें? ऐसे ही पूनम देवी रोहतास (बिहार) की रहने वाली हैं। 20 साल से दिल्ली में हैं और साप्ताहिक बाजारों में कपड़ें की दुकानें लगाती हैं। लॉकडाउन में साप्ताहिक बाजार बंद हैं। वह कहती हैं कि कुछ भी हो जाये हमें तो दिल्ली में ही रहना पड़ेगा क्योंकि हमारे पास गांव जाने का कुछ है ही नहीं। आज भारत के लगभग 40-45 करोड़ जनता बेबक नज़र आ रही है।

Migrant workers
Lockdown
unemployment
Rural india
migrants
migration
Daily Wage Workers

Trending

मोदी राज में सूचना-पारदर्शिता पर तीखा हमला ः अंजलि भारद्वाज
आइए, बंगाल के चुनाव से पहले बंगाल की चुनावी ज़मीन के बारे में जानते हैं!
एक बेटी की रुदाली
बंगाल ब्रिगेड रैली, रसोई गैस के बढ़ते दाम और अन्य
उत्तराखंड: गैरसैंण विधानसभा का घेराव करने पहुंचे घाट आंदोलनकारियों पर पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज
रसोई गैस के फिर बढ़े दाम, ‘उज्ज्वला’ से मिले महिलाओं के सम्मान का अब क्या होगा?

Related Stories

मांगने आए रोज़गार, मिली पुलिस की लाठी–पानी की बौछार
अनिल अंशुमन
मांगने आए रोज़गार, मिली पुलिस की लाठी–पानी की बौछार
01 March 2021
आज 19 लाख रोजगार देने की घोषणा को पूरा करने तथा शिक्षा व स्वास्थ्य की बेहतरी की मांग को लेकर बिहार विधान सभा मार्च के लिए प्रदेश के विभिन्न इलाकों
Abhisar Sharma
न्यूज़क्लिक टीम
न नौकरी की बात, न किसान की! सिर्फ मन की बात!
28 February 2021
आधे युवा बेरोज़गार
न्यूज़क्लिक टीम
आधे युवा बेरोज़गार
27 February 2021

Pagination

  • Next page ››

बाकी खबरें

  • Writers' Building
    अजय कुमार
    आइए, बंगाल के चुनाव से पहले बंगाल की चुनावी ज़मीन के बारे में जानते हैं!
    02 Mar 2021
    हार जीत के अलावा थोड़ा इस पहलू पर नजर डालते हैं कि चुनाव के लिहाज से पश्चिम बंगाल की पृष्ठभूमि क्या है?
  • एक बेटी की रुदाली
    न्यूज़क्लिक टीम
    एक बेटी की रुदाली
    02 Mar 2021
    उत्तर प्रदेश में एक और सनसनीखेज मामला सामने आया हैI एक लड़की के रुदाली का वीडियो. मुद्दा यह है कि उसके पिता की हत्या कर दी गई और वह भी उस शख्स द्वारा जिसने आज से करीब ढाई साल पहले उसकी बेटी के साथ…
  • ईरान की तरफ़ से इन प्रतिबंधों के हटाये जाने तक अमेरिका के साथ बातचीत का प्रस्ताव खारिज।
    एम. के. भद्रकुमार
    ईरान ने परमाणु मुद्दे पर अमेरिकी फ़रेब को किया ख़ारिज
    02 Mar 2021
    जो बाइडेन के लिए यह तय कर पाना मुश्किल होता जा रहा है कि ईरान पर लगे प्रतिबंधों में से कुछ प्रतिबंधों के हटाये जाने को लेकर उन्हें दरअसल क्या करना चाहिए। 
  • अंजली भारद्वाज
    न्यूज़क्लिक टीम
    मोदी राज में सूचना-पारदर्शिता पर तीखा हमला ः अंजलि भारद्वाज
    02 Mar 2021
    वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने एंटी करप्शन अंतर्राष्ट्रीय  पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज से की बेबाक बातचीत। अंजलि ने बताया कि एक तरफ जहां आम भारतीय नागरिक जानकारी हासिल करने औऱ…
  • ख़ालिदा ज़रार
    पीपल्स डिस्पैच
    मशहूर फ़िलिस्तीनी नेता व कार्यकर्ता ख़ालिदा ज़रार को एक इज़रायली सैन्य अदालत ने 2 साल की सज़ा सुनाई
    02 Mar 2021
    पीएफ़एलपी के प्रमुख सदस्य जरार को अक्टूबर 2019 से अवैध इज़रायली प्रशासनिक हिरासत में होने के कारण अब आठ महीने की जेल की सज़ा काटनी होगी।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें