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भारत के विकास को प्रभावित करती कम आमदनी

तीन परिवर्तनकारी क़दम नाटकीय रूप से इस विकट स्थिति को बदल सकते हैं - बशर्ते मोदी सरकार इन क़दमों को उठाने की हिम्मत करे।
Income
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : पीटीआई

एक रेटिंग एजेंसी के ताजा अध्ययन के अनुसार, 2012-2016 में परिवारों की वेतन वृद्धि 8.2 फीसदी से गिरकर 2017-2021 में 5.7 फीसदी रह गई है। यदि गणना करते वक़्त मुद्रास्फीति को ध्यान में रखा जाए तो वास्तव में यह और भी कम होगा यानि लगभग 1 प्रतिशत हो सकती है। वेतन वृद्धि की यह धीमी गति ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में हुई है। ग्रामीण इलाकों में मज़दूरी में महज 2.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह वृद्धि 5.5 प्रतिशत रही है। यदि इसे मौजूदा मुद्रास्फीति के साथ समायोजित किया जाए तो यहां विकास दर नकारात्मक हो जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में, मुद्रास्फीति-समायोजित करने के बाद वेतन वृद्धि कथित तौर पर (-) 3.7 प्रतिशत हो जाती है, जबकि शहरी क्षेत्रों में, यह (-) 1.6 प्रतिशत बैठती है। इसका मतलब है कि 2017-21 के दौरान वास्तविक मजदूरी में गिरावट आई है।

हाल के महीनों में उच्च आर्थिक विकास का जश्न मनाने के बावजूद, घटती आय का मतलब है कि बड़े पैमाने पर लोगों के हाथ में पर्याप्त खरीदने की ताक़त नहीं है। ये परिवार आर्थिक उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, जो सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) का 44-45 प्रतिशत होता है। लगातार कम आय का मतलब है कि कुल मांग में उनका योगदान बहुत कम होने वाला है। बदले में, इसका मतलब है कि किसी भी आर्थिक रिकवरी की संभावना कम है क्योंकि अर्थव्यवस्था में मांग के कमी है। 

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का आहवान कि भारत का कॉरपोरेट क्षेत्र अधिक निवेश (और इस तरह अधिक रोजगार सृजित करने का दवा) करेगा, बहरे कानों पर पड़ने जैसा है क्योंकि कॉर्पोरेट क्षेत्र उन सभी रियायतों और कर कटौती का आनंद उठा रहा है जो मोदी सरकार ने अधिक निवेश किए बिना उनकी झोली में डाली हैं। कॉर्पोरेट अधिक निवेश क्यों करेगा और  खरीदेगा कौन? क्योंकि लोगों के हाथ में खरीदने की शक्ति ही नहीं है।

नियमित वेतन वाली नौकरियों में कमी 

सरकार ने अब उपभोक्ता खर्च सर्वेक्षणों का प्रकाशन बंद कर दिया है जो घरेलू आय का एक आईना होता है। हालांकि, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) तीन बुनियादी प्रकार के श्रमिकों की कमाई का अनुमान पिछले सप्ताह की कार्य स्थिति की याद के आधार बनाते हैं। ये तीन श्रेणियां नियमित वेतनभोगी कर्मचारी, कैजुअल दैनिक वेतन भोगी और स्व-रोजगार वाले व्यक्ति हैं।

इस साल जून में प्रकाशित नवीनतम पीएलएफएस वार्षिक रिपोर्ट अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के समय को कवर करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में, घरों का बड़ा हिस्सा (55 प्रतिशत) स्वरोजगार में जुड़ा है, जो मुख्यतः कृषि में है। इसके बाद कैजुअल श्रम (24 प्रतिशत) पर है, जो अक्सर मौसमी और दैनिक मजदूरी का अनियमित काम होता है। नियमित, वेतनभोगी कर्मचारी ग्रामीण परिवारों का सिर्फ 13 प्रतिशत ही हैं। (नीचे चार्ट देखें)

शहरी क्षेत्रों में, नियमित श्रमिकों में 43 प्रतिशत परिवार शामिल हैं, जबकि में स्वरोजगार 33 प्रतिशत हैं। कैजुअल श्रमिक 13 प्रतिशत हैं।

सभी नौकरियों में आय मामूली है

आइए नीचे दिए गए चार्ट में दिखाए गए इन तीन प्रकार के कामों की औसत कमाई देखते हैं। शहरी नियमित पुरुष श्रमिकों के अलावा, जिन्हें 21,000 रुपये प्रति माह से अधिक मिलता है, श्रमिकों की अन्य श्रेणियों में से कोई भी श्रेणी का मजदूर सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पर्याप्त मजदूरी नहीं कमाता है। इस चार्ट में जो बात चौंकाने वाली है, वह ग्रामीण और शहरी आय, पुरुष और महिला आय, और नियमित वेतनभोगी श्रमिकों और कैजुअल श्रमिकों या यहां तक कि स्वरोजगार करने वालों की आय के बीच की गहरी खाई है।

ग्रामीण क्षेत्रों में, कमाई करने वालों की सबसे बड़ी श्रेणी स्वरोजगार से जुड़े हैं, जो ज्यादातर किसान हैं। इस काम में कमाने वाले पुरुष को 10,228 रुपये प्रति माह मिलता है, जबकि महिला को आधे से भी कम ( यानि 4,561 रुपये) मिलता है। दिहाड़ी मजदूरी पर काम करने वाले और काम करने की बहुत कठिन परिस्थितियों का सामना करने वाले कैजुअल मज़दूरों  को सबसे कम वेतन मिलता है। शहरी क्षेत्रों में भी, एक पुरुष कैजुअल वर्कर सिर्फ 10,058 रुपये प्रति माह कमाता है, जबकि महिला वर्कर सिर्फ 6,608 रुपए कमा पाती है। शहरी इलाकों में, पुरुषों की कमाई 12,360 रुपये और महिलाओं की 8,145 रुपये है, जो थोड़ी बेहतर है। कैजुअल श्रमिकों का मासिक वेतन, पीएलएफएस द्वारा एकत्र किए गए दैनिक आय के आंकड़ों से अनुमानित हैं। वास्तव में, ऐसे दिन भी होंगे जब उन्हे कोई काम नहीं मिलता होगा।

इस पूरे मामले को देखें तो महिला श्रमिकों की कमाई बेहद कम है - चाहे ग्रामीण हो या शहरी, चाहे कैजुअल हो या नियमित या यहां तक ​​कि स्वरोजगार में भी महिला की आय कम है- यह काम में महिलाओं की कम भागीदारी दर के कारणों में से एक लगता है। इस तरह की मजदूरी, और रोजगार में अन्य सभी कठिनाइयों के साथ, उनपर घर का काम करने का भी दोहरा बोझ भी शामिल है, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलाओं को काम करने से सक्रिय रूप से हतोत्साहित किया जाता है।

सरकार क्या कर सकती है?

यदि इस भयानक हालात से उभरना है तो सरकार को तीन परिवर्तनकारी कदम उठाने की जरूरत है और सरकार मेहनतकश लोगों के संघर्षरत परिवारों को कुछ राहत की पेशकश कर सकती है। वे तीन कदम य़े हैं:

1. अकुशल औद्योगिक श्रमिकों और संस्थानों के कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन बढ़ाकर 26,000 रुपये प्रति माह और मुद्रास्फीति से जुड़ा महंगाई भत्ता (डीए) दें।  अन्य श्रेणियों जैसे अर्ध-कुशल और कुशल श्रमिकों या लिपिक और अन्य कर्मचारियों के लिए मजदूरी में तदनुसार वृद्धि करने की जरूरत होगी। इसका मतलब न केवल केंद्र सरकार के कर्मचारियों/स्टाफ के लिए केंद्रीय अधिसूचना बल्कि राज्य स्तरीय अधिसूचनाएं भी शामिल होंगी। यह सभी 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 26,000 रुपये की मांग, तीन-इकाई परिवार के लिए 2300 किलो कैलोरी के बराबर भोजन के स्वीकृत फॉर्मूले और कपड़ों, किराए आदि के लिए अतिरिक्त खर्च और रप्तकोस ब्रेट के 1991 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आधारित है जो बच्चों की शिक्षा और परिवार के अन्य खर्चों के लिए अतिरिक्त 25 प्रतिशत बढ़ोतरी का निर्देश देता है। 

2. कृषि श्रमिकों के लिए एक व्यापक कानून बनाएं जिसमें उचित न्यूनतम मजदूरी और अन्य लाभ शामिल हों। यह बात स्तब्ध करने वाली है कि आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर अमृत काल मनाया जा रहा है, यदपि भारत के सबसे बड़े आर्थिक वर्ग यानि खेतिहर मजदूरों के कल्याण के लिए कोई व्यापक कानून नहीं है। उनके वेतन में वृद्धि, तुरंत लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ा देगी जिससे पूरी अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। इस मांग को, देश की अधिकांश किसान और कृषि-मजदूर यूनियनों का समर्थन हासिल है।

3. कृषि उत्पादों की विभिन्न फसलों के लिए किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने वाला कानून लाना जरूरी है। इस एमएसपी की गणना उत्पादन की व्यापक लागत (यानि जिसे सी2 के रूप में जान जाता है) जो 150 प्रतिशत है, और जिसकी सिफ़ारिश लगभग बीस साल पहले एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने की थी। इस मांग को अधिकांश किसान संगठनों का भी समर्थन हासिल है।

यदि एक बार उक्त कदम उठा लिए जाते हैं तो देश वास्तव में एक महाशक्ति बनने की राह पर चल सकता है और कुपोषण, बेरोजगारी, बीमारी और शिक्षा की कमी के मुद्दों से निपट सकता है। इसके लिए, मोदी सरकार को अमीरों की मदद करने और उन्हें अधिक निवेश करने या रोजगार पैदा करने के लिए राजी करने की अपनी वर्तमान नीतियों को त्यागना होगा।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Low Incomes Haunt India’s Growth

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