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गिरते टीकाकरण का कारण कम उत्पादन या निजीकरण की नीति?

18 से 44 वर्ष तक आयु के लोगों के टीकाकरण के लिए राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के बीच यह होड़ हो रही है। उनसे अलग-अलग दाम तो लिए ही जा रहे हैं। पर उन्हें आपूर्तियों के एक ही हिस्से में से आपस में होड़ करनी है और इसमें से किसे कितना हिस्सा मिलना है, इसे किसी विधान के जरिए तय नहीं किया गया है। लेकिन, यही तो केंद्र सरकार की नीति है। इससे ज्यादा विचारहीन नीति की तो कल्पना भी करना मुश्किल है। 
कोरोना
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

भारत में टीके का भारी संकट है। आम तौर पर इस तरह की धारणा बनी हुई है कि टीके की कमी इसलिए पैदा हुई है क्योंकि टीके की उत्पादन क्षमता तो धीमी रफ्तार से बढ़ रही है, लेकिन टीके की मांग में तेजी से उछाल आया है। और यह इसलिए हो रहा है क्योंकि टीकाकरण 18 से 44 वर्ष तक के आयु वर्ग के लिए भी खोल दिया गया है। जबकि 45 से अधिक के आयु वर्ग के लिए तो पहले ही खोला जा चुका था। लेकिन, यह धारणा भ्रांतिपूर्ण है। 

इसमें शक नहीं कि अब टीके को ग्रहण करने वाले लोगों की की संख्या बढ़ी है, लेकिन मई के महीने में टीकाकरण की कुल संख्या में हैरान करने वाले तरीके से गिरावट आयी थी। और यह गिरावट सिर्फ इससे पिछले वाले महीने की तुलना में नहीं आयी थी, यह गिरावट देश की टीका उत्पादन क्षमता की तुलना में भी आयी थी। इसलिए आम धारणा के विपरीत, बहुतायत मांग की वजह सिर्फ अतिरिक्त मांग बढ़ने के कारण ही नहीं थी बल्कि आपूर्ति की कमी से भी है। यह पूरी तरह से हैरान कर देेने वाली बात है। और सरकार ने, इस रहस्य से पर्दा उठाने के लिए टीकों के उत्पादन तथा स्टॉक के पूरे आंकड़े दिए ही नहीं हैं।

अप्रैल के महीने में देश में टीकों की उत्पादन क्षमता, 8.5 करोड़ खुराक प्रति माह की थी। इसमें कोवीशील्ड के उत्पादन की क्षमता 6.5 करोड़ खुराक की थी और 2 करोड़ कोवैक्सीन के उत्पादन की। कोवीशील्ड की उत्पादन क्षमता के विस्तार की योजनाओं की जानकारियां तो नहीं दी गयी हैं, बहरहाल कोवैक्सीन की उत्पादक भारत बायोटैक ने जरूर इसका एलान किया है कि उसकी उत्पादन क्षमता मई में बढ़ाकर 3 करोड़ कर दिया जाएगी। इसका मतलब यह हुआ कि मई में टीका उत्पादन की कुल क्षमता कम से कम 9.5 करोड़ खुराक की तो होनी ही चाहिए।

अप्रैल के महीने में टीके की 9 करोड़ खुराकें लगायी गयी थीं, जिसमें महीने का उत्पादन और जमा स्टॉक में की गयी कमी, दोनों शामिल हैं। इसके विपरीत, मई के महीने में टीकाकरण काफी थोड़ा रहा है। मई के ज्यादातर हिस्से में प्रतिदिन लगायी गयी खुराकों का औसत 15 लाख रहा था (द हिंदू, 30 मई), हालांकि 24 मई के बाद से, हर रोज लगाए जा रहे टीकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी। अगर हम मई के आखिरी हफ्ते में लगे टीकों का दैनिक औसत 30 लाख भी मान लें तब भी, इस पूरे महीने के दौरान लगे टीकों की संख्या 5.7 करोड़ ही बैठती है, जो अप्रैल के महीने के मुकाबले टीकों की संख्या में पूरे 3.3 करोड़ की गिरावट को दिखाती है। इतना ही नहीं, मई के महीने में लगाए गए कुल टीके, उत्पादन क्षमता की तुलना में कम से कम 3.8 करोड़ कम जरूर रहे थे।

यही परिघटना सबसे ज्यादा हैरान कर देने वाली है। उस समय जबकि महामारी का प्रकोप जोर पर होने के चलते टीकाकरण की रफ्तार बढऩी चाहिए थी। लेकन लगाए गए टीकों की संख्या इस तरह गिर क्यों अचानक गिरती चली गई? यह दलील तो चलने से रही कि अप्रैल के महीने में टीके के पहले के स्टॉक में से लगाने के लिए भी टीके उपलब्ध थे, जबकि मई में पहले के ऐसे टीके उपलब्ध नहीं थे। मई में लगाए गए टीकों की संख्या तो, इस महीने की उत्पादन क्षमता से भी काफी कम थी। दूसरे शब्दों में अगर यह भी मान लिया जाए कि मई में लगाने के लिए पहले का टीका स्टॉक शून्य ही था, तब भी मई में 9.5 करोड़ टीके तो लगने ही चाहिए थे, यानी अप्रैल में लगाए गए 9 करोड़ टीकों से ज्यादा। अगर हम यह भी मान लें कि कोवैक्सीन की उत्पादन क्षमता में मई में जिस बढ़ोतरी की योजना थी, उसे हासिल नहीं किया जा सका होगा और टीकों की कुल उत्पादन क्षमता अप्रैल वाले, 8.5 करोड़ के स्तर पर ही बनी रही होगी, तब भी मई में लगायी गयीं टीके की 5.7 करोड़ खुराकें तो इससे भी काफी कम ही बैठती हैं।

महामारी के जनता पर पड़ रहे प्रभाव की चिंता करने वाली और पूरी आबादी का जल्दी से जल्दी टीकाकरण करने की जरूरत को पहचानने वाली कोई भी सरकार, इस परिघटना पर बहुत चिंतित रही होती। लेकिन, मोदी सरकार इस संंबंध में पूरी तरह से चुप्पी साधे रही है। यहां तक कि नीति आयोग के विनोद पॉल जैसे इस सरकार के प्रवक्ता भी, जो मौजूदा टीका संकट का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ते रहे हैं, उन्होनें भी मई के महीने में लगाए गए टीकों की संख्या में इस शुद्घ गिरावट पर चुप्पी साध ली है।

जहां सरकार इस मामले में कानफोडू चुप्पी साधे रही है, भारत बायोटैक ने इसके लिए एक तरह का झूठा बहाना पेश करने की कोशिश की है। इसमें यह कहा गया है कि उत्पादन और बाजार में आपूर्ति आने के बीच, करीब चार महीने का अंतराल रहता है। यह बहाना झूठा है क्योंकि उत्पादन की शुरूआत और बाजार में आपूर्ति की शुरूआत के बीच तो ऐसे अंतराल की बात समझ में आती है। लेकिन एक बार जब उत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है, उसके बाद बीच में ऐसा अंतराल नहीं पड़ना चाहिए। बेशक, बीच में अगर उत्पादन में बढ़ोतरी की जाती है, तो उस बढ़ोतरी को बाजार के लिए आपूर्ति में बढ़ोतरी के रूप में सामने आने में भी कुछ समय जरूर लग सकता है। लेकिन, इस दौरान पहले जितना उत्पादन तो बिना किसी रुकावट के चलता ही रहेगा। इसलिए, चूंकि सच्चाई यह है कि  मई के महीने में लगाए गए टीकों की संख्या, अप्रैल की टीकों की उत्पादन क्षमता से भी काफी कम रही थी। इसका मतलब यह हुआ कि उत्पादन और बाजार में आपूर्ति के बीच के अंतराल का इस गिरावट से कुछ लेना-देना ही नहीं है।

कोई भी उत्पादक, अगर उसके पास उत्पादन की क्षमता होगी तो, वे अपनी क्षमता से कम उत्पादन नहीं करेगी जब तक उसकी मंशा या उसके पास कीमत बढ़ाने का मौका न हो। लेकिन, मौजूदा मामले में ऐसी भी कोई संभावना नहीं है क्योंकि उत्पादकों को दी जा रहीं कीमतें, चाहे कितनी ही अनुचित क्यों न हों, पहले ही तय हो चुकी हैं। इसी प्रकार कोई भी फर्म, एक मात्रा में टीका बनाने के बाद, उसे बेचने के बजाए जमा कर के क्यों रखना चाहेगी? इसलिए, हम सुरक्षित तरीके से यह मान सकते हैं कि मई के महीने में वास्तव में टीके की कम से कम 8.5 करोड़ खुराकें बनी होंगी। लेकिन, इससे सवाल यह उठता है कि अगर मई के महीने में टीके की कुल 5.7 करोड़ खुराकें लगायी गयीं, तो टीके की बाकी खुराकें कहां गयीं?

इस सवाल का पूरा जवाब तो देश में टीकों के उत्पादन तथा आपूर्ति के एक समुचित ऑडिट से ही मिल सकता है। और यह ऑडिट सीएजी से कराया जा सकता है जिसकी मांग कुछ राजनीतिक पार्टियों ने की भी है। जब तक यह नहीं किया जाता है, इस सवाल के जवाब के लिए कुछ अनुमान ही लगाए जा सकते हैं। और इस तरह का एक अनुमान, कुछ इस प्रकार है।

टीका उत्पादकों का जो आधा उत्पाद, राज्य सरकारों तथा निजी अस्पतालों के लिए रखा गया था, उसका बड़ा हिस्सा वास्तव में निजी अस्पतालों को ही बेच दिया गया हो, क्योंकि निजी अस्पतालों से टीके के लिए वसूल किया जा रहा दाम, राज्य सरकारों से मिलने वाले टीके के दाम से कहीं ज्यादा है। इसलिए, निजी अस्पतालों को राज्य सरकारों के हिस्से की कीमत पर ज्यादा टीका मिल रहा हो और इन अस्पतालों में वो लोग टीका लगवाने के लिए मजबूर  होंगे जिन्हें सरकारी टीका केंद्रों से निरशा हाथ लगी हो। लेकिन, टीका लगाए जाने के आंकड़ों में, निजी अस्पतालों द्वारा लगाए जा रहे टीके शायद इसलिए पूरी तरह से प्रतिबिंबित ही नहीं हो रहे हों कि उनके मामले में टीकाकरण की रिपोर्टिंग बहुत अच्छी न रही हो। इसलिए, ऐसा लगता है कि टीके कम लग रहे हैं। दूसरे शब्दों में, लापता टीकों में कम से कम एक हिस्सा ऐसे टीकों का हो सकता है, जो इस तरह से निजी अस्पतालों में पहुंचा कर लगा भी दिए गए, लेकिन जिनकी संख्या लगाए गए टीकों में नहीं जुड़ पायी है।

बेशक, पूरे के पूरे लापता टीकों की यही वजह नहीं हो सकती है। फिर भी उसके एक हिस्से की तो यह वजह हो ही सकती है। बहरहाल, इसके निहितार्थ गंभीर हैं। इसका अर्थ यह है कि टीकाकरण के कार्यक्रम का बड़े पैमाने पर निजीकरण कर दिया गया है और लोगों को टीके की भारी कीमत अदा करनी पड़ रही है क्योंकि केंद्र सरकार ने ऐसी नीति अपनाई है जो व्यावहारिक मानों में लोगों को टीकाकरण के किसी भी सरकारी स्रोत से काट देती है।

याद रहे कि कुल टीका उत्पादन में से आधा, केंद्र सरकार के ही हिस्से में आना था, जिसका उपयोग 45 वर्ष से अधिक आयु के लोगों के टीकाकरण में होना था। शेष आबादी यानी 18 से 44 वर्ष तक आयु के लोगों के टीकाकरण के लिए ही राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के बीच यह होड़ हो रही है। आबादी के इस हिस्से के लिए, कोवीशील्ड की एक खुराक राज्य सरकारों को 400 रु की बेची जा रही है और निजी अस्पतालों को 600 रु की। और कोवैक्सीन की एक खुराक राज्य सरकारों को 600 रु0 की दी जा रही है और निजी अस्पतालों को 1200 रु की। अब इसे किस तर्क से समझा जा सकता है कि राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों के लिए अलग-अलग दाम तो लिए ही जा रहे हैं, पर उन्हें आपूर्तियों के एक ही हिस्से में से आपस में होड़ करनी है और इसमें से किसे कितना हिस्सा मिलना है, इसे किसी विधान के जरिए तय भी नहीं किया गया है। लेकिन, यही तो केंद्र सरकार की नीति है। इससे ज्यादा विचारहीन नीति की तो कल्पना भी करना मुश्किल है। फिर भी हम इसी नीति के लागू किए जाने को देख रहे हैं, जिसमें कम दाम देने वाले खरीददार का हिस्सा काटा जा रहा है और आपूर्तियों को ज्यादा दाम देने वाले की ओर धकेला जाना, इस  नीति का स्वाभाविक नतीजा है। जनता को सरकार की इस विचारहीनता के कुपरिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।

बहरहाल, टीकों का इस तरह निजी अस्पतालों की बढ़ती सप्लाइ, लापता टीकों की पूरी कहानी नहीं बताती है। हो सकता है कि दोनों संबंधित फर्मों की उत्पादन क्षमता, वास्तविकता से बढ़-चढक़र बतायी जा रही हो। और अगर ऐसा है तो अनिवार्य लाइसेंसिंग के जरिए, टीकों की वास्तविक उत्पादन क्षमता को बढ़ाना और भी जरूरी हो जाता है। नीति आयोग द्वारा जारी किए गए प्रेस नोट की एक खासतौर पर ध्यान खींचने वाली विशेषता यह है कि इसमें, अनिवार्य लाइसेंसिंग का सहारा लेने की जरूरत से ही इंकार किया गया है। पुन: यह भी किसी भी तर्क से समझ पाना मुश्किल है कि जो सरकार दुनिया भर में कोविड-19 के टीकों पर पेटेंट अधिकार निलंबित कराने के पक्ष में है, वो कैसे अनिवार्य लाइसेंसिंग के उपाय की जरूरत को इस तरह एक सिरे से नकार दे रही है। पेटेंट अधिकारों के निलंबन की वार्ताओं में काफी समय लगता है। और इस बीच, इस तरह के निलंबन की मांग में जिस तर्क का प्रयोग किया जा रहा है, उसी का सहारा लेकर देश में टीका उत्पादन के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का सहारा लिया जा सकता है। लेकिन, मोदी सरकार से नीतियों में सुंसगतता की उम्मीद कैसे ही की जा सकती है।

(लेखक प्रख्यात अर्थशास्त्री और राजीतिक विश्लेषक हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

The Mystery of Missing Vaccines

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