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पश्चिम बंगाल में मनरेगा का क्रियान्वयन खराब, केंद्र के रवैये पर भी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उठाए सवाल

मनरेगा जॉब कार्ड दिए जाने में पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस समर्थकों को ही प्रायः वरीयता दी जाती है। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने यह भी शिकायत की है कि केंद्र सरकार भी इस योजना के कार्यान्वयन को लेकर गंभीर नहीं है, यह बात इसके कोष के आवंटन के तरीकों से बार-बार झलकी है। 
MGNREGA
Image Courtesy: The India Forum

कोलकाता: अनुमानित 10 लाख प्रवासी कामगारों में से लगभग 70 फीसदी जो कोविड-19 महामारी की दो लहरों के दौरान पश्चिम बंगाल लौटे थे, वे लोग यहां काम न मिलने की वजह अपने-अपने गृह राज्यों को लौट गए हैं।

प्रवासी श्रमिक जो वापस चले गए हैं और जो रुके हुए हैं, उन्हें उम्मीद थी कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 (MGNREGA) के तहत 100 दिन की ग्रामीण रोजगार योजना में काम मिल जाएगा।

इससे पहले, कोविड-19 महामारी में आई तेजी के दौरान, ये प्रवासी श्रमिक संकट में अपने प्रियजनों के साथ रहने के लिए अपने-अपने घर लौट आए थे। उन्हें आशा थी कि यहां मनरेगा योजना के तहत जॉब कार्ड मिल जाएगा। लेकिन, इन श्रमिकों के साथ मनरेगा के संदर्भ में रोजाना स्तर पर जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं और ट्रेड यूनियन नेताओं ने बताया कि इन श्रमिकों को "अपने गृह राज्यों में जीवनयापन करना" एक मुश्किल कदम साबित हुआ।

पश्चिम बंगाल में भी, यह बताया गया है कि इस योजना के कार्यान्वयन के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। पश्चिम बंग खेत मेजर समिति (पीबीकेएमएस) की राज्य समिति की सदस्य अनुराधा तलवार ने न्यूज़क्लिक को बताया कि काम की काफी मांग पूरी नहीं की जा सकी थी, और पश्चिम बंगाल के 23 जिलों में से कुछ ही जिलों में मनरेगा योजना के कार्यान्वयन को संतोषजनक कहा जा सकता है। 

पीबीकेएमएस करीब एक दर्जन जिलों में सक्रिय है। तलवार ने इस संदर्भ में पिछड़े जिले पुरुलिया का जिक्र किया, जहां निष्पादन का ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा था। 

तलवार के अनुसार, योजना का अपेक्षित प्रभाव न पड़ने के कई कारण हैं। "बाजार दरों" के मुकाबले मनरेगा की मजदूरी दर कम है, जो कटाई के दौरान स्पष्ट होता है। उन्होंने सत्ताधारी पार्टी (तृणमूल कांग्रेस) के कार्यकर्ताओं की 'दादागिरी' की ओर इशारा किया, जिनके प्रति अधिकारी अक्सर सहयोगी हो जाते हैं। नतीजा यह होता है कि जब जॉब कार्ड जारी किए जाते हैं तो वे अक्सर सत्ताधारी पार्टी के पसंदीदा समर्थकों को ही उपकृत करते हैं। 

तलवार ने यह खुलासा किया कि, “मनरेगा के तहत एक मजदूर को एक निश्चित अवधि में 14 दिनों के लिए काम मिल सकता है। अब क्षेत्र का एक तृणमूल कांग्रेस का नेता उस कामगार से कहेगा: देखो, आपके लिए, हमने इस बार छह दिन का काम दिलाया है। इसलिए, जब आपकी 14 दिनों की मजदूरी का पैसा आपके बैंक खाते में जमा हो जाए और जब आप बैंक से उस पैसे को निकालें तो उसमें से आठ दिनों की दिहाड़ी का पैसा आपको हमें देना होगा।" ऐसे आरोप हमें प्रायः सुनने को मिल जाते हैं। 

तलवार ने जो कुछ कहा, उसका पश्चिम बंगा किसान कांग्रेस (पीबीकेसी) के अध्यक्ष तपन दास ने भी समर्थन करते हुए न्यूज़क्लिक को बताया कि बड़े पैमाने पर अंगूठे के निशान में जालसाजी की जाती है और बिचौलियों का अभी भी बोलबाला है। दास ने कुछ अलग संदर्भ में, धान-खरीद केंद्रों का उदाहरण दिया, जहां बिचौलिए नियमित रूप से कतार में अपना रास्ता बनाते हैं और किसान अपना धान बेचने के लिए अपनी बारी का इंतजार ही करते रहते हैं। पीबीकेसी प्रमुख ने कहा कि इसके बारे में की जाने वाली शिकायतें एवं सुधारात्मक कार्रवाई की अपीलें सक्षम अधिकारियों की तरफ से अनसुनी कर दी जाती हैं।

सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के नदिया और मुर्शिदाबाद जिला महासचिव शेख मोहम्मद सादी और अब्दुल मन्नान ने कहा कि उन्हें राज्य के कई हजारों प्रवासी कामगारों को पांच-छह जिलों में मनरेगा जॉब कार्ड प्रखंड विकास अधिकारियों से जारी कराने में काफी मुश्किलें आई थीं। वे आगे कहते हैं, "प्रवासी श्रमिकों के रूप में जितना कमा रहे थे, उससे बहुत कम हमारे राज्य में कमाएंगे।”

सीटू द्वारा गठित पश्चिम बंगाल प्रवासी श्रमिक संघ के क्रमशः अध्यक्ष और महासचिव सादी एवं मन्नान ने न्यूज़क्लिक को बताया कि पंचायत प्रणाली अप्रभावी थी, और राज्य सरकार के कौशल विकास के प्रयास उल्लेखनीय नहीं थे।

“ऐसे में प्रवासी श्रमिक कैसे आश्वस्त महसूस कर सकते हैं कि उनका वापस आना सार्थक होगा? वे तो मुफ्त राशन की व्यवस्था के कारण ही जीवित रह सके थे।" 

न्यूज़क्लिक ने सामाजिक कार्यकर्ताओं के विचार जानना चाहे कि क्या सरजमीनी हालात इस योजना के प्रति केंद्र की गंभीरता को दर्शाता है, नरेगा संघर्ष मोर्चा (एनएसएम) से जुड़े देबमाल्या नंदी ने कहा कि 6.5 करोड़ घरों की देखभाल के लिए हरेक घर-बार को 65 से 70 दिनों का काम सुनिश्चित करने के लिए नई दिल्ली को इस साल के बजट में कम से कम 1.2 से 1.3 लाख करोड़ रुपये मुहैया कराने चाहिए थे। हाल ही में 10,000 करोड़ रुपये की देने की प्रतिबद्धता के साथ, इस मद में आवंटन 83,000 करोड़ रुपये तक किया जाना है, जिसमें अभी भी कम से कम 40,000 करोड़ रुपये कम है। इसमें 22 नवंबर तक 6,078 करोड़ रुपये बकाए मजदूरी शामिल नहीं है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव डालने के संदर्भ में रोजगार योजना के लिए, केंद्र सरकार को दिसंबर-मार्च के लिए अनुपूरक आवंटन और लंबित मजदूरी का भुगतान एक बार में करना चाहिए।

नंदी ने माना कि मनरेगा में लीकेज और व्यवस्थित भ्रष्टाचार है, फिर भी कुछ राज्यों का रिकॉर्ड काफी अच्छा है- उदाहरण के लिए, राजस्थान, झारखंड और बिहार का। नंदी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि उन राज्यों की सफलता का श्रेय एक प्रभावी सोशल ऑडिटिंग को दिया जा सकता है।

पश्चिम बंगाल में, जॉब कार्डधारकों की संख्या प्रभावशाली प्रतीत हो सकती है। फिर भी, योजना की प्रगति पर नज़र रखने वाले लोगों ने पाया कि यहां भाई-भतीजावाद, सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं का वर्चस्व, कदाचार और सामाजिक ऑडिट न होना राज्य में मनरेगा के क्रियान्वयन को बुरी तरह प्रभावित किया है। 

मजदूर किसान शक्ति संगठन के नेता निखिल डे ने सुझाव दिया कि 2021-22 के लिए बजटीय आवंटन को घटाकर 73,000 करोड़ रुपये किए जाने और हाल ही में 2020-21 के संशोधित व्यय अनुमान 1,11,500 करोड़ रुपये में से तदर्थ आधार पर 10,000 करोड़ रुपये जारी करने का निर्णय लिया जाना ही केंद्र के रुख का खुलासा कर देता है। यह ऐसा समय है,जब लंबित मजदूरी का भुगतान करने के लिए एक बड़ी राशि की आवश्यकता है। रोजगार की स्थिति में अभी भी सुधार के स्पष्ट संकेत नहीं दिख रही है, और मुद्रास्फीति का दबाव ग्रामीण लोगों की जीवन स्थितियों को प्रभावित कर रहा है, जो इन सबसे राहत पाने के लिए मनरेगा की ओर उम्मीद से देखते हैं। 

डे ने न्यूज़क्लिक को बताया, "वे इस योजना को पसंद नहीं करते, नई दिल्ली के इस रवैये का वर्णन करने का इससे अलावा कोई दूसरा तरीका नहीं है।" 

दि हिंदू अंग्रेजी अखबार के 27 नवंबर 2021 के एक संपादकीय में कहा गया है: "पिछले वर्षों में इस योजना के लिए बजट निर्धारण करने के लिए मूल बजट अनुमान से मामूली वृद्धि करना एक दोषपूर्ण तरीका है। यदि ऐसा कुछ करना भी हो, तो परिव्यय को प्रत्येक वर्ष योजना के लिए व्यय के संशोधित/वास्तविक अनुमान से जोड़ा जाना चाहिए..." 

हाल के दिनों में कई राज्यों में जन संगठनों के संगठनों ने, जो ग्रामीण रोजगार योजना पर निर्भर लोगों के हितों की रक्षा के लिए काम करते हैं, कुछ मांगों को लेकर मुख्यमंत्रियों से हस्तक्षेप करने की मांग की है। ये मांगें पहले से लंबित अनुरोधों के अतिरिक्त हैं। 

इन संगठनों में आंध्र प्रदेश में ह्यूमैन राइट फोरम, तेलंगाना में दलित बहुजन मोर्चा, छत्तीसगढ़ में एनएसएम तथा आदिवासी अधिकार समिति, पश्चिम बंगाल में पीबीकेएमएस एवं श्रमजीवी महिला समिति, और बिहार में जन जागरण शक्ति संगठन एवं कोसी नव निर्माण मंच शामिल हैं। 

तेलंगाना संगठन ने फील्ड सहायकों की बिना शर्त बहाली की मांग की है। छत्तीसगढ़ इकाइयों ने वेतन भुगतान में देरी के लिए मुआवजे की मांग की है। पश्चिम बंगाल इकाइयों की मांग दर की अनुसूची के युक्तिकरण को देखने के लिए है कि श्रमिकों को खेत में आठ घंटे के श्रम के बाद मजदूरी का भुगतान किया जाता है और 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना में निर्धारित मानदंडों के आधार पर पहचाने गए कमजोर ग्रामीण परिवारों के लिए श्रेणी बी कार्यों को प्राथमिकता दी जाती है।

एनएसएम ने बताया है कि "श्रमिकों की जाति श्रेणियों के आधार पर कोष को तीन भागों में बांटने के आदेश का औचित्य स्पष्ट नहीं है और इससे श्रमिकों के बीच अनावश्यक तनाव पैदा हो रहा है। यह अधिनियम की सार्वभौमिक प्रकृति के भी विपरीत है।" 

इन संगठनों की मांगों के सामान्य बिंदु हैं-समय पर मजदूरी का भुगतान, लंबित मजदूरी का शीघ्र भुगतान, काम की अवधि 150 दिन किया जाना और मनरेगा में अतिरिक्त बजटीय आवंटन। इस मद में धन का प्रवाह बढ़ाने की उनकी मांग का पिछले हफ्ते ज्यां द्रेज, प्रभात पटनायक, महेंद्र देव, प्रणब सेन, सी राममनोहर रेड्डी और अमित भादुड़ी सहित कई प्रख्यात अर्थशास्त्रियों ने समर्थन किया था। 

इन अर्थशास्त्रियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक खुले पत्र में कहा कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार काम की मांग को पूरा करने के लिए और अधिक धन की आवश्यकता है। व्यापक मांग पर इसके प्रभाव के माध्यम से, इस प्रकार का कदम समग्र अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने में मददगार होगा और सूक्ष्म और लघु उद्यमों को बढ़ावा मिलेगा, जो पहले से खराब स्थिति में हैं। इसके अलावा, इस मद में धन की कमी होने पर काम की मांग का दमन होगा और मजदूरी के भुगतान में देरी होगी। उन्होंने कहा कि यह उस अधिनियम का उल्लंघन होगा जो काम की मांग करने वाले हर उस घर को 100 दिनों के काम का वादा करता है।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल खबर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

MGNREGA Execution Poor in West Bengal, Centre's Attitude Also Questioned by Social Activists

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