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बंगाल: क़र्ज़ में डूबे हैं आलू किसान, बिचौलिये हो रहे मालामाल 

टीएमसी सरकार की उदासीनता, मौसम की अनिश्चितता और कम क़ीमतें, आलू किसानों को पूरी तरह से साहूकारों और बिचौलियों के रहम पर जीने को मजबूर कर रही हैं।
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रायबाघिनी की जमुना घोष और उनके पति बलराम घोष आलू की बोरी पर बैठे बिचौलिए के आने का इंतज़ार कर रहे हैं। 

पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले के कोतुलपुर ब्लॉक के रायबाघिनी गांव में, अभिजीत चंद्र, जो एक सीमांत किसान हैं, वे आलू से भरी बोरियों के पास बैठे हैं और चिलचिलाती धूप में बिचौलिए के आने का इंतजार कर रहे हैं। कुछ ही दूरी पर, एक अन्य किसान, माणिक घोष, आलू की फसल को एक जगह इकट्ठा कर रहे हैं। चंद्रा की तरह, वे भी बिचौलिए के आने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, जो आलू की बोरियां भरने के लिए मजदूरों को भेजेंगे। फिर इन आलूओं को नजदीकी कोल्ड स्टोरेज में ले जाया जाएगा।

इस साल, कई किसानों के पास आलू की पैकेजिंग करने और परिवहन लागत और भंडारण शुल्क को कवर करने के लिए वित्तीय साधनों की भारी कमी है। जिसके परिणामस्वरूप, उन्हें अपनी कड़ी मेहनत से अर्जित उपज को बिचौलियों को सौंपने पर मजबूर होना पड़ रहा है, जिन्होंने अपनी खेती के खर्च के लिए उनसे, साथ ही अन्य साहूकारों और माइक्रोफाइनेंस संस्थानों से पैसा उधार लिया था। अफसोस की बात यह है कि सहकारी प्रणाली, जो कभी किसानों का सहारा हुआ करती थी, अब वह बंगाल में निष्क्रिय पड़ी हुई है, जिससे उनकी परेशानियां बढ़ रही हैं।

Bहुगली जिले के चांदीपुर 1 ब्लॉक अंतर्गत शेखाला के किसान आलू की फसल काटकर बोरियों में भर रहे हैं। (तस्वीर: मधु सूदन चटर्जी)

किसानों की बड़ी आबादी का कहना है कि वे सहकारी समितियों से फसल कर्ज़ हासिल करने में असमर्थ हैं, जिससे उन्हें अपनी भूमि पर खेती करने के लिए बिचौलियों, स्थानीय साहूकारों और उर्वरक विक्रेताओं पर निर्भर होना पड़ता है। नतीजतन, आलू किसान, जो कभी बंगाल के कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देते थे, धीरे-धीरे अपनी स्वायत्तता और आज़ादी खोते जा रहे हैं।

इस साल स्थिति गंभीर स्तर पर पहुंच गई है। पिछले वर्ष नवंबर की शुरुआत में बेमौसम बारिश के कारण आलू किसानों को रोपाई के शुरुआती चरण में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। काले बाज़ार से बढ़ी हुई कीमतों पर बीज और उर्वरक खरीदने के लिए मजबूर होकर, वे फसल की घटती पैदावार के बीच बढ़ते कर्ज से जूझ रहे थे।

इस वर्ष किसानों को इतनी विकट स्थिति का सामना क्यों करना पड़ रहा है?

पिछले साल, जुलाई-अगस्त के ख़रीफ़ सीज़न के दौरान, उर्वरक की कीमतें आसमान छू गईं थीं और स्थानीय सहकारी समितियों ने उर्वरक उपलब्ध कराना बंद कर दिया था। किसानों को उन्हें काले बाज़ार से बढ़ी कीमतों पर खरीदने के लिए मजबूर किया गया, जिससे उन्हें ऊंचे ब्याज की दर पर कर्ज़ लेना पड़ा।

B 2बांकुरा के कुंडू कोल्ड स्टोरेज में आलू की बोरियां उतारने का इंतजार करते कोल्ड स्टोरेज कर्मचारी। (तस्वीर: मधु सूदन चटर्जी)

"अधिकांश सहकारी समितियों ने खेती के मौसम के दौरान कर्ज़ देना बंद कर दिया था। जब से राज्य में तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आई है, तब से किसी भी सहकारी समिति में निर्वाचित प्रबंधन समिति नहीं है। सरकारी अधिकारी अब सहकारी समितियों की देखरेख करते हैं, जिनके पास किसानों की वर्तमान हालात को समझने और उनके बारे में प्रत्यक्ष समझ दोनों की कमी है। उनके साथ संबंध रखने वाले, “पश्चिमबंगा समाबाई बचाओ समिति के राज्य नेता और इसके बांकुरा जिले के सचिव, तरुण राज ने इस संवाददाता को विस्तार से बताया।

बांकुरा के सोनामुखी ब्लॉक के कामरगोरे गांव के किसान नज़रुल आलम मिद्या और सुभाष घोष ने इस संवाददाता को बताया कि, "इस कठिन परिस्थिति में, हम दुकानदारों और बिचौलियों से बढ़ी हुई कीमतों पर उर्वरक और कीटनाशक खरीदने के लिए मजबूर हुए हैं।"

उन्होंने कहा कि ख़रीफ़ सीजन की खेती का कर्ज़ चुकाने के बाद उनकी धनराशि काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई थी। उन्होंने ऐसे उदाहरणों का भी जिक्र किया जहां सरकारी केंद्रों द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से लाभ पाने में असमर्थ होने के कारण अपने धान को बिचौलियों को कम कीमत पर बेचना पड़ा। इस व्यवस्था से बिचौलियों को फायदा हुआ है, उन्होंने किसानों से कम दर (यानी 1,600 रुपये प्रति क्विंटल) पर धान खरीदा और उसे सरकारी केंद्रों पर 2,260 रुपये प्रति क्विंटल पर बेच दिया था।

धान की फसल के बाद किसानों ने आलू की खेती की ओर रुख किया। भारत में आलू की खेती में बंगाल दूसरे स्थान पर है, इसका प्रमुख उत्पादन पूर्व बर्धमान, पश्चिम बर्धमान, पश्चिम मेदिनीपुर, हुगली और बांकुरा जिलों में होता है।

हुगली के चंडीतला 1 ब्लॉक में शियाखला के हराधन कोले और पूर्व बर्धमान में मेमारी के माधब घोष ने कहा कि, "खेती की शुरुआत में मौसम अनुकूल लग रहा था, और किसानों को पिछले साल (2023) बड़ी उपज के बाद अच्छी कीमतों की उम्मीद थी। हालांकि, 7-8 नवंबर को बेमौसम बारिश ने सब कुछ तबाह कर दिया। कई एकड़ आलू के खेतों में पानी भर गया और सभी पौधे नष्ट हो गए। कुछ ही दिनों में फसल सड़ गई।''

बांकुरा के जॉयपुर ब्लॉक के मैनापुर के दिलीप डे, पश्चिम मेदिनीपुर के गारबेटा के मनोरंजन घोष, हुगली के मधुपुर के शेख खुदाबख्स और पूर्वी बर्धमान के जमालपुर के निमाई बनर्जी जैसे किसानों ने कहा कि उन्होंने खेती फिर से शुरू करने के लिए अतिरिक्त खर्च पर रुके हुए पानी को सूखा दिया था। बांकुड़ा के बिष्णुपुर ब्लॉक के बांकादाहा के साधन नायक ने कहा कि, "मुझे अपनी पुश्तैनी जमीन परती क्यों छोड़नी चाहिए? जोखिमों के बावजूद, हमें खेती फिर से शुरू करनी होगी।"

पहली बार किसानों ने बीज के पैकेट (50 किलो) 1,800-2,000 रुपये में खरीदे हैं। प्राकृतिक आपदा के बाद, गुणवत्ता से समझौता करते हुए बीज की समान मात्रा की कीमत 5,000 रुपये प्रति पैकेट कर दी गई, जिससे किसान और कर्ज में डूब गए। कोतुलपुर के किसान संतोष रुद्र और जयंत मलिक ने बताया कि, "हमने इस कारण खुद को भावनात्मक उथल-पुथल में पाया, आगे या पीछे जाने में असमर्थ थे। हमारे पास खेती फिर से शुरू करने के अलावा कोई चारा नहीं था।"

B 3बांकुड़ा के कुंडू कोल्ड स्टोरेज में चैंबर में रखे आलू। 

पांच जिलों के कई किसानों ने इस संवाददाता को बताया कि इस दौरान उर्वरक की कीमतों में भी वृद्धि हुई है। 10:26:26 नामक उर्वरक, जिसकी कीमत 1,800 रुपये प्रति बोरी (50 किलोग्राम) है, काला बाजारी के चलते 5,000 रुपये में बेची गई। रातोरात, डाय-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) की कीमत भी बढ़ गई। कीटनाशक एक्रोवेट डस्ट 200 ग्राम की कीमत 900 रुपये से बढ़कर 1,600 रुपये हो गई थी। किसानों ने कहा कि उन्हें अपनी क्षमता से कहीं अधिक, इन आवश्यक सामग्रियों को खरीदने के लिए संघर्ष करना पड़ा। इस दौरान राज्य सरकार की ओर से बंगाल के आलू किसानों को हो रहे गंभीर परिणामों पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। 

“प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित, राज्य सरकार इस गंभीर स्थिति में किसानों का समर्थन करने में विफल रही है। उनसे कृषि विभाग या संबंधित पंचायतों ने कोई संपर्क नहीं किया और सरकारी स्तर पर किसी सहायता की घोषणा नहीं की गई है। पश्चिम बंगा प्रादेशिक कृषक सभा के राज्य सचिव अमल हलदर ने कहा कि, ऐसा अमानवीय व्यवहार अकल्पनीय है। 

हलदर ने कहा कि पूर्वी बर्धमान के मेमारी, जमालपुर, कालना और रसूलपुर इलाकों में आलू किसानों को प्राकृतिक आपदाओं और सरकार की उदासीनता के कारण काफी नुकसान हुआ है।

इन जिलों के कई किसानों ने बताया कि दूसरी बुआई के बाद आलू की पैदावार में काफी कमी आई है। प्रति बीघे 40-45 क्विंटल की अपेक्षा की तुलना में इस वर्ष केवल 20-25 क्विंटल का ही उत्पादन हुआ है। उन्होंने दावा किया कि प्रति बीघे खेती की लागत 35,000 रुपये है, जो पिछले साल की तुलना में 13,000 रुपये अधिक है। नतीजतन, बढ़ी हुई लागत और घटती पैदावार ने किसानों को संकट में डाल दिया है।

बिष्णुपुर के बनकदाहा के एक किसान अभिजीत नायक ने राज्य सरकार की घोषित "बांग्ला शोस्य बीमा" (फसल बीमा) की अनुपस्थिति पर अफसोस जताया है।

जॉयपुर ब्लॉक के तहत मयनापुर के एक किसान माणिक रे ने बताया कि हालांकि किसानों ने बीमा के लिए हजारों रुपये का भुगतान किया था, लेकिन कोई भी बीमा कंपनी उन तक नहीं पहुंची है। उन्होंने कहा कि कर्ज़ वितरण के समय कुछ सहकारी समितियों द्वारा बीमा में कटौती के बावजूद, किसानों को इस आपदा में कोई बीमा भुगतान नहीं मिला है।

रायभागिनी, कोतुलपुर के किसान मोहन चंद्र डे और गणेश संतरा ने भी बताया कि उन्हे भी बीमा भुगतान नहीं मिला है।

बांकुरा के एक कृषि अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर इस संवाददाता को बताया कि आलू की फसल के नुकसान का आकलन उपग्रह इमेजरी के माध्यम से किया गया और सरकार को रिपोर्ट किया गया था। उन्होंने कहा कि बांग्ला शोष्य बीमा के माध्यम से मुआवजा केवल तभी दिया जाता है जब एक महत्वपूर्ण क्षेत्र क्षतिग्रस्त हो जाता है, व्यक्तिगत किसान के नुकसान के लिए इसमें कोई प्रावधान नहीं है।

आलू की कटाई के बाद, अधिकांश किसानों ने अपना कर्ज चुकाने के लिए अपनी उपज तुरंत बेच दी, क्योंकि साहूकार उन पर दबाव बना रहे थे। इसके अलावा, कई किसानों के पास कोल्ड स्टोरेज के लिए आलू की पैकेजिंग करने के लिए वित्तीय साधनों का अभाव था। हालांकि शुरुआती दौर में आलू की कीमतें 1,300-1400 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गईं थीं, लेकिन बाद में ये गिरकर 1,100 रुपये पर आ गईं थी। पिछले वर्ष की तुलना में ऊंची कीमतों के बावजूद, कम उत्पादन और बढ़ी हुई लागत के कारण कई किसानों ने फसल को खराब होने से बचाने के लिए बिचौलियों को घाटे में आलू बेच दिया है।

B 4बांकुरा जिले के बांकादाहा बिष्णुपुर में किसान जदुनाथ हलदर बिचौलिए के लिए अपनी फसल इकट्ठा कर रहे हैं।

आलू बांड के कागजात किसानों के नाम पर होने के बावजूद, बिचौलिए आम तौर पर किसानों को उनके आलू के लिए नाममात्र राशि का ही भुगतान करते हैं और उन्हें कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं में संग्रहीत करते हैं। जैसा कि पश्चिम बंगा प्रादेशिक कृषक सभा, बांकुरा के सचिव जोदुनाथ रे ने बताया कि, किसानों को अपनी फसल को कोल्ड स्टोरेज से वापस लाने के लिए सभी खर्चों और ब्याज को कवर करना होता है। 

गौरतलब है कि तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने अभी तक राज्य से आलू का निर्यात शुरू नहीं किया है। कई किसानों को डर है कि मई में कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं खुलने के बाद आलू की कीमतें घट जाएंगी। क्या किसान बिचौलियों का कर्ज चुका पाएंगे और अपने आलू बांड पर नियंत्रण हासिल कर पाएंगे? वर्तमान स्थिति को देखते हुए, यह अनिश्चित बना हुआ है कि क्या किसानों के पास ऐसा करने का साधन होगा, संभावित रूप से बिचौलिए वास्तविक आलू फसल मालिक बन जाएंगे। 

लेखक, पश्चिम बंगाल में 'गणशक्ति' अखबार के लिए जंगल महल इलाके को कवर करते हैं।

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