किसान आंदोलन की सफल राजनैतिक परिणति भारतीय लोकतंत्र की ऐतिहासिक ज़रूरत

"क्रांति उत्पीड़ित जनता का उत्सव है"
हक़ की जंग जब जनता के सामूहिक जश्न में तब्दील हो जाय, तब वह अपराजेय हो जाती है। 300 से भी अधिक अपने सह- योद्धाओं की शहादत का गम अपने दिलों में जज्ब किये हजारों किसान जब दिल्ली बॉर्डर पर अपने घर-वतन से दूर सड़क पर होली मनाने के लिए उतरे तो जीवन की उद्दाम लालसा, पगड़ी की लड़ाई के गौरवबोध, जीत की उम्मीदों और सर्वोपरि लड़ाई जारी रखने के संकल्प से वे लबरेज थे। बेशक, गम और गुस्से, पीड़ा, प्रतिशोध, छले जाने के अहसास, अपमान और उसके प्रतिरोध के न जाने कितने रंग उसमें घुले-मिले होंगे।
अपनी पत्नी और परिवार के साथ गाजीपुर बॉर्डर पर होली मनाते उनके नेता राकेश टिकैत ने किसानों की भावनाओं को प्रतिध्वनित करते कहा, " इतने साथियों की मौत के बाद हमे होली की कोई खुशी नहीं है। लेकिन तीज-त्योहार है, हमारी परम्परा है, इसलिए हम मनाएंगे।"
लड़ाई जारी रखने का दृढ़ संकल्प व्यक्त करते टिकैत ने चेतावनी दिया "हम दिवाली भी यहीं मनाएंगे।"
जाहिर है अब जब किसानों ने आंदोलन को ही अपना जीवन बना लिया है, वे लंबी लड़ाई के लिए तैयार हैं।
उनकी प्रेरणा शहीदे-आज़म भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह के नेतृत्व में चला ऐतिहासिक पगड़ी सम्भाल जट्टा आंदोलन है जिसने 8 महीने बाद अंततः ब्रिटिश हुकूमत को ऐसे ही 3 काले कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया था।
संयुक्त किसान मोर्चा ने 5 अप्रैल को FCI के घेराव का आह्वान किया है। FCI के इर्दगिर्द ही मंडी, MSP, PDS का पूरा ढांचा खड़ा है, जिसे घाटे में धकेल कर बन्द कर देने की ओर सरकार बढ़ रही है।
इसके पूर्व 26 मार्च को भारत बन्द था। आज़ादी के बाद देश के लोकतांत्रिक इतिहास में बंद तो बहुत हुए हैं, पर पहले 8 दिसम्बर और अब 26 मार्च के भारत-बंद की विशेषता यह है कि न सिर्फ ये बन्द जबरदस्त ढंग से सफल हुए है, बल्कि यह भी कि ये ऐसे बंद है जिनका आयोजन उन किसानों ने किया, जिनका शहरों में कोई प्रभाव नहीं माना जाता, न उनके पास कोई स्थापित अखिल भारतीय संगठन का ढांचा है, जो ऐसे कार्यक्रम की सफलता के लिए अनिवार्य माना जाता है।
किसानों के आह्वान पर भारत-बंद की भारी सफलता यह साबित करती है कि किसानों के आंदोलन ने अब एक राष्ट्रव्यापी स्वरूप ग्रहण कर लिया है और सरकारी नीतियों और दमन के खिलाफ उसे समाज के सभी तबकों की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त है। यह एक नई उभरती हुई राजनीतिक गोलबंदी का भी संकेत है, जो भले ही आज भ्रूण रूप में हो, पर आने वाले दिनों में बड़ा आकार ग्रहण कर सकती है।
इसके साथ राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन के 4 महीने पूरे हो गए, वैसे तो पंजाब से इसके शुरु हुए 6 महीने हो गये। लहरों में बढ़ते इस आंदोलन में ज्वार-भाटे की तरह, बॉर्डर पर संख्या की दृष्टि से उतार-चढ़ाव हो रहा है, पर इससे आंदोलन की मूल गति पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा, जो लगातार विकासमान है और आंदोलन अपनी वैचारिक-राजनैतिक अन्तरवस्तु की दृष्टि से लगातार नई ऊंचाई की ओर जा रहा है।
यह भी उल्लेखनीय है कि इतना बड़ा राष्ट्रव्यापी बन्द पूरी तरह शांतिपूर्ण रहा। जाहिर है, 26 जनवरी की सरकारी साजिश के अनुभव के बाद अब किसान और अधिक सतर्कता के साथ अपने आंदोलन की शांतिपूर्ण दिशा की रक्षा कर रहे हैं। पर, सरकार और भाजपा लगातार किसानों के खिलाफ उकसावेबजी की कार्रवाई कर रहे हैं, जिससे किसानों का आक्रोश बढ़ रहा है।
26 मार्च को भारत बंद के दिन संयुक्त किसान मोर्चा के एक शीर्ष नेता युद्धवीर सिंह को, जो सरकार से वार्ताओं में लगातार शामिल रहे हैं और राकेश टिकैत की BKU के महासचिव हैं, अहमदाबाद में अचानक गिरफ्तार कर लिया गया। उनका अपराध केवल इतना था कि वे 4-5 अप्रैल के राकेश टिकैत के गुजरात दौरे के कार्यक्रम के सम्बंध में प्रेस वार्ता को सम्बोधित कर रहे थे। उन्हें प्रेसवार्ता से जिस तरह घसीट कर गुजरात की पुलिस ले जा रही है, उसे अब वायरल हो चुके वीडियो में पूरे देश के किसानों ने देखा है। किसानों के शीर्ष नेता को इस तरह अपमानित करने की कार्रवाई क्या उकसावे की कार्रवाई नहीं है? राकेश टिकैत ने कहा है कि "हमारा उद्देश्य गुजरात मॉडल की असलियत दिखाना था, गुजरात पूरा capture है, वहां के किसानों को भी आज़ाद कराया जाएगा।"
22 जनवरी की आखिरी वार्ता के बाद से 70 दिन होने को आये, सरकार कोई पहल नहीं कर रही, उल्टे और दमनात्मक कार्रवाइयों पर उतारू है।
‘संयुक्त किसान मोर्चा’ ने एक बयान में कहा है कि, " गत 18 मार्च को हरियाणा विधानसभा में विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद एक ऐसा विधेयक पारित किया गया है जिसका उद्देश्य आंदोलन को दबाना है। “हरियाणा लोक व्यवस्था में विघ्न के दौरान संपत्ति क्षति वसूली विधेयक 2021” के तहत आंदोलन के दौरान कहीं पर भी निजी या सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई आंदोलन करने वालों से की जाएगी। आंदोलन की योजना बनाने, उसको प्रोत्साहित करने वाले या किसी भी रूप में सहयोग करने वालों से नुकसान की वसूली की जा सकेगी। कानून के अनुसार किसी भी अदालत को अपील सुनने का अधिकार नहीं होगा। कथित नुकसान की वसूली आंदोलनकारियों की संपत्ति जब्त करके की जाएगी। ऐसा कानून उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा भी बनाया जा चुका है और इसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हुआ है।"
स्वाभाविक रूप से सरकार के अहंकार भरे दमनात्मक कदमों से किसानों में आक्रोश बढ़ रहा है। उनके सब्र का प्याला भरता जा रहा है। 300 से ऊपर किसानों की शहादत हो चुकी है, बेहद कठिन हालात में इतने लंबे समय से धैर्य से बैठे किसानों को Ignore करने और दबाने का signal देकर सरकार दरअसल आग से खेल रही है और अराजकता को आमंत्रित कर रही है।
पिछले दिनों किसानों ने भाजपा व इसके सहयोगी दलों के नेताओ का जो सामाजिक-राजनैतिक बहिष्कार किया हुआ है, उसने कुछ जगहों पर उग्र रूप ग्रहण कर लिया और हिंसक प्रतिक्रिया सामने आई।
संयुक्त किसान मोर्चा ने 27 मार्च को जारी अपने बयान में कहा है, " इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत रही है कि यह पूरी तरह शांतिपूर्ण रहा है, किसानों ने सब्र व संतोष के साथ आन्दोलन के हर पड़ाव में अपनी ताकत दिखाई है।
भाजपा व उसके सहयोगी दलों के नेता इस आंदोलन व किसानों के खिलाफ बयानबाजी से किसानों को उकसाते रहे है। इन नेताओं द्वारा शहीद किसानों तक का अपमान किया गया। इन सब के कारण व कृषि कानूनो के विरोध के संदर्भ में किसानों ने भाजपा व इसके सहयोगी दलों के नेताओ का सामाजिक बहिष्कार किया हुआ है।
पंजाब के अबोहर के भाजपा विधायक का आसपास के किसानों ने विरोध किया। विपरीत परिस्थितियों में किसानों का यह आंदोलन हिंसक हुआ व विधायक के साथ शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार हुआ। यह अफसोस की बात है कि एक चुने हुए प्रतिनिधि के साथ इस तरह का व्यवहार किया गया। हम इस घटना की कड़ी निंदा करते है व इस तरह के व्यवहार को प्रोत्साहित नहीं करते।
हम इस घटना के लिए जिम्मेदार भाजपा व उसके सहयोगी दलों को मानते हैं। भाजपा की केंद्रीय लीडरशिप अपने अहंकार में चूर है व किसानों की समस्याओं का हल करने की बजाय चुनावी राज्यों में व्यस्त है।"
बहरहाल, भाजपा-जेजेपी नेताओं के खिलाफ किसानों का अभियान जारी है। ज़ी न्यूज़ के मालिक, भाजपा के राज्यसभा सांसद सुभाष चंद्रा का 28 मार्च का हिसार में कार्यक्रम किसानों के आक्रोश की भेंट चढ़ गया।
विधानसभा चुनावों में किसान आंदोलन ने जो भाजपा विरोधी राजनैतिक दिशा में बढ़ने की शुरुआत की है, उससे संघ-भाजपा के अंतःपुर में बेचैनी बढ़ती जा रही है।
पिछले दिनों मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक का, जो मूलतः पश्चिम यूपी के भाजपा के बड़े जाट नेता हैं, किसानों के लिए MSP की कानूनी गारंटी की जबरदस्त वकालत करना और सरकार को कठघरे में खड़ा करता जो बहुचर्चित बयान आया है, उसके पीछे देश का विशेषकर जाट बेल्ट का बदलता राजनैतिक परिदृश्य ही है। इसमें चाहे उनका अपना कोई निजी hidden एजेंडा हो या उनकी पार्टी का कोई शातिर खेल हो, इतना तो साफ है ही कि ऊपर से bold face maintain करने की चाहे जितनी कोशिश हो, सत्तारूढ़ खेमे में किसान आंदोलन का भारी दबाव महसूस किया जा रहा है।
किसान नेताओं ने जनता से अपील की है कि वे भाजपा को वोट न दें, ताकि वोट की चोट से मोदी सरकार पर किसान-आंदोलन की मांगें मानने का दबाव बने।
बंगाल के सुदूर गाँवों में किसानों को सुनते हुए अब यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इस आंदोलन का संदेश न सिर्फ ग्रासरूट तक पहुँच चुका है, बल्कि देश के हर इलाके में किसानों के मन में आंदोलन के प्रति एक सहज वर्गीय एकजुटता का भाव भी पैदा हो चुका है, भले ही तात्कालिक तौर पर अभी उनका आंदोलन के APMC Act-मंडी जैसे मुद्दों से सीधा जुड़ाव न हो, पर उन्हें instinctively यह आभास है कि आंदोलन सही है और सरकार गलत, उन्हें यकीन है कि दूरगामी तौर पर कानूनों में कुछ खतरा जरूर है।
किसान-आंदोलन ने चुनावी राज्यों विशेषकर पश्चिम बंगाल में भाजपा-विरोधी sentiment को मजबूत किया है और इसका चुनाव नतीजों पर असर पड़ना तय है।
क्या इन चुनाव परिणामों का किसान आन्दोलन के प्रति सरकार के रुख पर फैसलाकुन असर पड़ सकता है?
दरअसल, विधानसभा चुनावों, विशेषकर पश्चिम बंगाल के चुनाव तथा यूपी के पंचायत चुनावों से होते हुए किसान-आंदोलन की आंच हस्तिनापुर के राजसिंहासन तक पहुंचने वाली है।
28 मार्च को अपने मन की बात के सबसे ताज़ा एपिसोड में मोदी जी ने एक बार फिर कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण की जरूरत पर बल दिया और पम्परागत खेती के साथ नए विकल्पों की तलाश को महत्वपूर्ण बताया जिससे किसानों की आय और कृषि क्षेत्र में रोजगार बढ़े। पर यह गौरतलब है कि इस बार वे सीधे तौर पर 3 कृषि कानूनों का जिक्र करने या उनकी वकालत करने से बचे। क्या यह आंदोलन की बढ़ती राजनैतिक आंच के मद्देनजर किसी बदलती रणनीति का संकेत है?
पूर्व में 28 नवम्बर के एपिसोड में, जबकि किसान बैरिकेडों पर आंसू गैस और वाटर कैनन झेलते बॉर्डर पर आकर जम चुके थे, मोदी जी ने मन की बात में ही इन कानूनों की जमकर तारीफ की थी।
दरअसल, किसान आंदोलन के साथ इतिहास का जैसे एक चक्र पूरा हो गया है। 2013 के मुजफ्फरपुर दंगों के फलस्वरूप पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुस्लिम-जाट एकता जो किसान राजनीति की धुरी थी, वह जिस तरह खंडित हुई थी, जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ था, उसने अगले वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में भाजपा के उभार तथा अंततः केंद्र में मोदी के राज्यारोहण में crucial भूमिका निभाई थी। उसका momentum 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी साफ दिखा। लेकिन अब किसान-आंदोलन के फलस्वरूप बनी वर्गीय एकता ने किसानों को साम्प्रदायिकता की राजनीति को समझने और उसके खतरनाक खेल को नकार कर आगे निकलने में मदद की है। इसका इससे बड़ा सुबूत क्या हो सकता है कि जो संजीव बालियान 2013 के दंगों के दौरान अपनी भूमिका के चलते मोदी केबिनेट में मंत्रिपद से नवाजे गए थे, उनका अब उन्हीं गांवों में उनके स्वजातीय, उन्हीं की बालियान खाप के जाट किसान सामाजिक बहिष्कार और राजनैतिक विरोध कर रहे हैं। किसान आंदोलन ने प. उत्तर प्रदेश की राजनीति को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। लगता है 2013 की तरह पश्चिम उत्तर प्रदेश फिर निर्णायक भूमिका निभाने जा रहा है, पर अबकी बार एकदम विपरीत दिशा में- 2022 में यह उत्तर प्रदेश मे भाजपा की विदाई का कारण बन सकता है और फिर 2024 में केंद्र से मोदी सरकार के।
प्रो. प्रभात पटनायक के शब्दों में "हमारे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष की गौरवशाली परंपरा में, एक सच्चे जनांदोलन की तरह, किसान-आंदोलन ने जनता के सोचने के नजरिये (attitude ) में बदलाव किया है और धर्म-समुदाय, जाति, जेंडर, क्षेत्र-राज्य के विभाजनों के पार जनता की व्यापक एकता कायम की है।"
देश के इतिहास में किसान-आंदोलन अपनी इस ऐतिहासिक भूमिका के लिए हमेशा याद किया जाएगा कि एक बेहद नाजुक दौर में The Great Divider की नफरत, विभाजन और ध्रुवीकरण की राजनीति के बरख़िलाफ़ इसने The Great Unifier की निभाया और इस देश के लोकतंत्र को फासीवाद के शिकंजे में जाने से बचा लिया।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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