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सामूहिक वन अधिकार देने पर MP सरकार ने की वादाख़िलाफ़ी, तो आदिवासियों ने ख़ुद तय की गांव की सीमा

मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने आदिवासी इलाक़ों में सामूहिक वन अधिकार देने का वायदा किया था, लेकिन इसका क्रियान्वयन नहीं किया। तब जागरूक आदिवासियों ने स्वयं ही गांव गणराज्य ग्राम सभा का सपना और अपने अधिकार बताकर अपने-अपने गांवों में बोर्ड लगाना शुरू कर दिए हैं।
Tribals
आदिवासी समाज द्वारा लगाए गए बोर्ड

मध्य प्रदेश सरकार ने 15 नवम्बर तक 19,158 गांवों को सामुदायिक वन अधिकार देने का वादा किया था। परंतु सरकार ने  अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं किया, अलबत्ता जागरूक आदिवासियों ने स्वयं ही गांव गणराज्य ग्राम सभा का सपना, अपने अधिकार बताकर अपने-अपने गांवों में बोर्ड लगाना शुरू कर दिए हैं। अपने क्षेत्र के जंगल को बचाने की बात कहते हुए मध्यप्रदेश के बड़वानी और बुरहानपुर के दर्जनों गांव में आदिवासियों ने बोर्ड लगा दिए हैं। जिस पर लिखा गया कि वन अधिकार मान्यता कानून 2006 नियम 2008 संशोधित नियम 2012 की धारा-2 क, 3 एक, झ व 5 क, ख, ग और घ की प्रदत्त अधिकारों से हमारे गांव की सीमा तय की गई है। इस सीमा के भीतर कोई भी व्यक्ति तथा सरकारी अधिकारी ग्राम सभा तथा हमारे गांव की जंगल बचाओ कमेटी की इजाजत के बिना वन संसाधन पर हस्तक्षेप करता है तो यह अपराध माना जाएगा।

बुरहानपुर जिले के नेपानगर विकासखंड का बाकड़ी और मंडवा गांव इन दिनों इसी बात को लेकर चर्चा में है। यहां ग्राम सभा में निर्णय लेकर इस तरह का बोर्ड लगा दिया गया है। बोर्ड में यह भी लिखा है कि वन संरक्षण और प्रबंधन करने का अधिकार हमारी ग्राम सभा को है। इसे गांव गणराज्य ग्राम सभा का निर्णय बताया गया है। उधर वन विभाग इसे अपने कामों में हस्तक्षेप मानकर रोज रात को आदिवासियों द्वारा लगाये गये बोर्ड को उठा ले जाते हैं और फिर अगले दिन गांव वाले एक नया बोर्ड बनाकर लगा देते हैं। 

बुरहानपुर के डीएफओ प्रदीप मिश्रा बोर्ड हटाने की बात स्वीकारते हुए कहते हैं कि ग्रामीणों के कहने पर बोर्ड हटाया गया। जबकि आदिवासियों का कहना है कि वन विभाग के अधिकारियों को कानून के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। वे पूरे जंगल पर अपना हक मानते हैं।

इसी गांव में लम्बे समय से काम कर रहे राजेश कनौजा कहते हैं कि जब अंग्रेजी हुकूमत और स्वाधीन भारत की सरकारों ने वन में निवास करने वाले वन आश्रित अनुसूचित जनजातियां और अन्य वन निवासियों के अधिकारों  की रक्षा के लिए संसद में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम 2006 एवं नियम 2008 पारित कर दिया तो इसकी जानकारी वन विभाग के अधिकारियों को होनी चाहिए। इस कानून के तहत सभी राज्यों में ग्राम स्तर पर वन अधिकार समितियों का गठन कर 13 दिसम्बर 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज अनुसूचित जनजातीय समुदाय के लोगों को जंगल में रहने और उसकी सुरक्षा करने का अधिकार प्राप्त है। फिर लड़ाई किस बात की है। हर मामले में वन अधिकारियों को कानून समझाना पड़ता है। नोक-झोंक होती है, मामला थाने तक पहुंचता है, फिर पुलिस को भी कानून की मंशा बतानी पड़ती है। जबकि यह काम सरकार का है, परंतु हम लोग रोज इससे दो-चार होते है। उन्होंने कहा वर्ष 2012 में स्पष्ट कर दिया गया है कि पारंपरिक सीमा क्या है। जब गांव बसाया गया, तभी गांव के मुखिया ने गांव की सीमा तय कर दी। कि इस गांव की सीमा कहां तक है। यह वन विभाग को मालूम होना चाहिए। बोर्ड भी गांव की सीमा के अंदर ही लगाया जा रहा है।

बूटा आदिवासी ने बताया कि सरकार के अनुसार तो हमें 15 नवंबर तक गांवों में वन अधिकार मान्यता कानून के तहत सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार पत्र मिल जाने थे। परंतु किसी जिलाधिकारी और संबंधित अधिकारियों ने मध्य प्रदेश आदिम जाति क्षेत्रीय विकास योजनाएं विभाग के पत्र का अनुपालन ही नहीं किया, क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं कि उन्हें इस मामले में करना क्या है? जहां तक वन विभाग की बात है तो उन्हें लकड़ी से जो आमदनी होती है उसे छीने जाने का डर सता रहा है। उन्होंने बताया, यहां वन अधिकार समिति ने सामुदायिक दावे तैयार किए, जो ग्राम सभा के अनुमोदन के बाद उपखंड एसडीएलसी कार्यालय को भेजा, जहां से अक्सर हमारे कागज गायब हो जाते हैं। जबकि एसडीएलसी के अध्यक्ष एसडीएम स्वयं हैं और सचिव आदिवासी विभाग के प्रतिनिधि, इसमें वन विभाग के प्रतिनिधि और जनप्रतिनिधि सदस्य होते हैं, देखा जाए, तो इनमें से किसी को भी कानून और नियमों की जानकारी नहीं होती है। लिहाजा या तो कागज गायब हो जाते है या फिर लंबित रह जाते है। जबकि हम लोग सारा काम नियम-कानूनों का पालन करते हुए करते हैं। फिर भी हमें डंडे की जोर पर जंगल से भगा दिया जाता है। 

बड़वानी जिले के पानसेमल विकासखंड के अंतर्गत एक गांव आमझाीरी का किस्सा सुनाते हुए रजानी माल कहते हैं कि इस गांव में सिंचाई विभाग ने ग्राम सभा की अनुमति के बिना साढ़े तीन हेक्टेअर पर एक तालाब बनवाया, इससे वन विभाग की जमीन डूब में आ गई और वन विभाग ने राजस्व विभाग से बदले में उतनी ही जमीन की मांग कर डाली। राजस्व विभाग के पास चूंकि जमीन थी नहीं, तो उन्होंने गांव वालों की पट्टे की जमीन वन विभाग को सुपुर्द कर दिया। अब वन विभाग इस जमीन पर तार फेंसिंग करने पहुंच गया। इसमें तनाव तो होना ही था। वन विभाग आदिवासी की जमीन पर कब्जा करने उनके द्वारा बोये गये फसल उजाड़ने लगे। ऐसे में थाने तक मामला गया। जंगल पर आश्रित आदिवासी बहुत ही सीधे होते हैं। वे कहां तक पुलिस-थाना करते फिरें। बड़वानी जिले के सेंधवा विकासखंड के दर्जनों गांवों में इस तरह के मामले भरे पड़े हैं। इसीलिए ग्राम सभा द्वारा जंगल बचाओ कमेटी बनाकर बोर्ड लगा दिया गया हैं।

दमोह जिले के घनश्याम बताते हैं कि यहां तीन पीढ़ियों से वन भूमि पर काबिज अन्य वन निवासियों से व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे आमंत्रित किए गए, जिसमें 8408 वन भूमि दावे जिला स्तरीय वन अधिकार समिति दमोह द्वारा अमान्य कर दिया गया। यह मामले पुनः 2019 को पुनः परीक्षण के लिए ग्राम पंचायतों में ग्राम पंचायत सचिवों के पास आये, तो आवेदनों का पुनः परीक्षण मनमाने तरीके से किया गया। आवेदकों ने एमपी वन मित्र पोर्टल पर 12,600 दावे दर्ज कराये, जिसमें से 95 फीसदी अमान्य कर दिए गए।

अनेक जन संगठनों ने इस प्रक्रिया में सरकारी तंत्र द्वारा अपनाई जा रही उदासीनता तथा लापरवाही की ओर केन्द्र व राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। तो सरकार ने बीच-बीच में कुछ कमेटियों का गठन कर प्रदेश में वन अधिकार कानून के परिपालन की स्थिति का अध्ययन कराया। इसमें वनाधिकार कानून और नियमों की जानकारी का अभाव दोनों स्तर पर सामने आया।इसलिए 6 सितम्बर 2012 को राजपत्र में अधिसूचना का प्रकाशन कर अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) संशोधन नियम 2012 घोषित किया गया  था। इन नियमों में ग्राम सभाओं की भूमिका को सशक्त बनाया गया है दावों को अमान्य करने की प्रक्रिया को संशोधित कर उसे समावेशी बनाया गया। 

वनोपज के परिवहन के लिए ग्राम सभा द्वारा परमिट देने की व्यवस्था की गई, दावे प्रस्तुत करने की समय सीमा खत्म कर इसे सतत जारी रहने वाली प्रक्रिया के रूप में मान्य किया गया, राज्य सरकारों के जनजातीय विभागों को निर्देशित किया गया है कि संशोधित नियमों के तहत वन अधिकारों के व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे पुनः आमंत्रित कर उनका निराकरण किया जाए। आजीविका की वास्तविक आवश्यकताओं से अधिनियम की धारा 3 की उपधारा(1) में विनिर्दिष्ट अधिकारों किसी प्रयोग के माध्यम से स्वयं और कुटुम्ब की जीविका की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ ही आदिवासियों के हित के लिए अनेक नियम बनाए गए। लेकिन कर्मचारियों की हठधर्मिता के चलते राष्ट्रीय स्तर पर वनाधिकार दावे भारी संख्या में रद्द हो रहे हैं। इसे लेकर आदिवासियों में असंतोष है।

गौरतलब है कि मध्य प्रदेश के 29 जिलों मे 925 वन ग्राम हैं जिनमें से 825 वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में परिवर्तित करने के जिले वार प्रस्ताव भारत सरकार को प्रेषित किए गए हैं। 925 वन ग्रामों में से 15 वीरान एवं 17 विस्थापित हैं 27 राष्ट्रीय उद्यानों में एवं 39 अभ्यारण में स्थित है। 436 ग्रामों में मुख्यतः नक़्शे उपलब्ध न होने के कारण वन ओर राजस्व भूमि की सीमा विवाद में अटका है।

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