मध्य प्रदेश: कम पैसे और असुरक्षित माहौल में नौकरी करने को मजबूर सफाई कर्मचारी
स्वच्छता को लेकर मध्यप्रदेश में रचा गया एक गीत ‘‘गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल’’ सामाजिक संदेशों में सबसे ज्यादा पॉपुलर गीत बन गया है। स्वच्छता सर्वेक्षण में मध्यप्रदेश नंबर 1 है, शहरों में इंदौर नंबर 1 और भोपाल नंबर 6 है। लेकिन इन शहरों को चमकाने वाले सफाई कर्मचारियों की जिंदगी मलिन बनी हुई है। देश के अन्य शहरों की तरह ही भोपाल के सफाई कर्मचारी भी जिंदगी की जद्दोजहद से जूझते हुए शहर को चमकाने में लगे हुए हैं। कम वेतन या कम मानदेय, तिरस्कार, बिना छुट्टी के काम, सरकारी योजनाओं से दूर ये लोग हर सुबह शहर की सफाई में लग जाते हैं।
भोपाल में जब सफाई कर्मचारियों को अपनी बात खुलकर कहने का मौका मिला, तब उन्होंने अपने जीवन और काम से जुड़े अनुभवों को साझा किया। इंडियन इंस्टिट्यूट फॉर ह्यूमन सेट्लमेंट्स द्वारा अलायन्स ऑफ़ इंडियन वेस्ट पिकर्स एवं तमिलनाडु अर्बन सैनिटेशन सपोर्ट प्रोग्राम के साथ स्थानीय स्तर पर भोपाल स्कूल ऑफ सोशल साइंसेस एवं सम्मान संस्था के सहयोग से ‘‘वी स्पीक टू’’ का आयोजन किया गया। इसमें नगर निगम के साथ-साथ निजी ठेकेदार के साथ काम करने वाले सफाई कर्मचारियों सुश्री आशा पॉल, सुश्री बीजी बाई, दिलीप इंगले, हरिलाल वाल्मीकि, सुश्री ज्योति इंगले, संतोष कराड़े एवं सुनील दवड़े ने चर्चा में भाग लिया, जिसे डॉ. जावेद अनीस ने मॉडरेट किया।
आशा पॉल, ज्योति इंगले, बीजी बाई
अपने अनुभवों को साझा करते हुए सफाई कर्मचारियों ने बताया कि बचपन से ही वे अपने परिवार का हाथ बंटाने के लिए इस काम को करने लगे। हरिलाल वाल्मीकि ने बताया कि वे निजी ठेकेदार के साथ कॉलोनी में काम करते हैं और उन्हें 7 से 8 हजार रुपये मिलते हैं। वे सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक काम करते हैं। उन्होंने बताया कि एक बार अपने चार साथियों के साथ सेप्टिक टैंक साफ करने गए थे। उस टैंक में नीचे दलदल था और उसमें उतरने पर एक-एक करके मेरे चारों साथियों की उसमें फंसकर दम घुटने से मौत हो गई। इस घटना के बाद उन्होंने सेप्टिक टैंक की सफाई से दूरी बना ली।
हरिलाल वाल्मीकि, दिलीप इंगले,संतोष कराड़े, सुनील दवड़े
नगर निगम के साथ काम करने वाली सुश्री ज्योति इंगले ने बताया कि वे सुबह 7 बजे से दोपहर 2-3 बजे तक काम करती हैं। उन्हें एक भी दिन छुट्टी नहीं मिलती और बीमार पड़ने या किसी मजबूरी में नहीं आने पर पैसा काट लिया जाता है। उन्हें 7 से 8 हजार रुपये मिलते हैं। कचरे को सुरक्षित रूप से उठाने के लिए मास्क या ग्लोव्स कभी-कभार ही मिलते हैं। संतोष कराडे ने बताया कि सुबह ही घर से निकल जाने के कारण उन्हें खाना बाहर ही खाना पड़ता है। इतने कम पैसे में बच्चों का पालन-पोषण करना कठिन है। शाम के समय कॉलोनियों के घरों में टॉयलेट की सफाई या फिर गार्डन की सफाई करके अलग से कमाना पड़ता है। उन्होंने बताया कि लोग पैसा हाथ में नहीं देते, बल्कि बाहर जमीन रख देते हैं और कहते हैं कि उठा लो। प्यास लगने पर घरों से कोई पानी नहीं देता। इस तरह की अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है।
सुश्री आशा पॉल ने बताया कि जब वह 10 साल की थी, तभी से कचरा बीनने का काम करती हैं। उन्होंने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि जोखिम भरे काम के बावजूद सम्मान नहीं मिलता। वह शहर के बड़े अस्पताल में निजी तौर पर कचरा कलेक्ट कर उसे बेचकर अपना गुजारा करती हैं। वह कहती हैं कि कचरा प्रबंधन में बड़े लोगों के आने के कारण कचरा बीनकर गुजारा करने वालों की आजीविका पर संकट गहरा गया है। सरकार न तो उनके जीवनयापन के लिए कोई दूसरा रोजगार दे रही है और न ही नगर निगम में नौकरी दे रही है। नगर निगम में नियमित नौकरी की संभावना में दूसरे लोग इस काम में आ गए और पहले से कचरा बीनने वालों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। काम पर रखने के लिए रिश्वत मांगा जाता है।
सुनील दवड़े ने बताया कि नगर निगम में एप्प पर हाजिरी लगती है। 10 मिनट की भी देरी हुई तो हाजिरी नहीं लगती है और काम करने के बाद भी उस दिन का पैसा नहीं मिलता। किसी काम के लिए छुट्टी मांगने पर फटकार मिलती है और धमकी दी जाती है कि किसी दूसरे को रख लेंगे। सुनील की पत्नी भी नगर निगम में काम करती थी और एक बार घर में गिर जाने से सिर में गंभीर चोट लग गई। 20 दिन सुनील काम पर नहीं गए, लेकिन अपनी जगह दूसरे को भेजा, इसके बावजूद 15 दिन की छुट्टी लगा दी। कम पैसे से गुजारा नहीं होता, तो अलग से काम करना पड़ता है।
सार्वजनिक शौचालय में काम करने वाले दिलीप इंगले ने बताया कि उन्हें ठेकेदार पूरा पैसा नहीं देता। वह डेढ़ हजार रुपये रख लेता है और साढ़े 5 हजार ही देता है। वे रात-दिन वहीं रहते हैं। सुबह से देर रात तक शौचालय को खुला रखते हैं। सफाई के लिए नियमित सामान भी नहीं मिलता। निजी ठेकेदार के साथ काम करने वाली बाजी बाई बताती हैं कि उन्हें सुबह से दोपहर तक काम करने के बदले 4 हजार रुपये ही मिलता है।
सफाई कर्मचारियों ने बताया कि कोविड के समय में क्वारिनटीन घरों को उनसे ही सैनेटाइज करवाया जाता था। कोरोना से बचने के लिए उनके पास हमेशा मास्क, ग्लव्स या सेनेटाइजर नहीं होते थे। असुरक्षित माहौल में पूरे शहर को साफ रखने वाले इन कर्मचारियों को उचित सम्मान तक नहीं मिला। वे कहते हैं कि उनके बच्चों के जाति प्रमाण-पत्र नहीं होने से सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। उनके बीमा भी नहीं है। आयुष्मान योजना का लाभ भी अस्पताल वाले नहीं देते।
सफाई कर्मचारियों की मांग है कि उन्हें सरकारी सेवा में नियमित किया जाए, साप्ताहिक छुट्टी दी जाए, सभी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ दिया जाए, सम्मान के साथ व्यवहार किया जाए और जाति प्रमाण-पत्र सहित अन्य दस्तावेजों को सरलता से बनाया जाए। डॉ. जावेद अनीस ने कहा कि शहर को चमकाने वाले लोग मुरझाये हुए हैं। समाज और सरकार दोनों से इनकी अपेक्षाएं हैं, जिसे पूरा किया जाना चाहिए।
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