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महाराष्ट्र: विकलांगों के लिए बनाया अलग विभाग, लेकिन कुछ फ़र्क़ पड़ा?

क्या ऐसे विभाग की स्थापना भर होने से विकलांग समुदाय की स्थिति में फ़र्क़ आ सकता है? सवाल है कि उनकी ज़िंदगी में क्या सुधार हुआ है? सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है।
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विकलांगों को उपकार नहीं अवसर चाहिए। प्रतीकात्मक तस्वीर, साभार: टाइम्स ऑफ इंडिया

महाराष्ट्र, विकलांगों के लिए एक अलग मंत्रालय स्थापित करने वाला पहला राज्य है। ऐसा होने के बावजूद इस बात का भी हिसाब-किताब होना चाहिए कि क्या इससे वास्तव में विकलांगों को लाभ हो रहा है?

महाराष्ट्र सरकार ने 9 जनवरी 2023 को 'दिव्यांग कल्याण मंत्रालय' विभाग स्थापित किया। दावा किया गया है कि दिव्यांगों के लिए ऐसा मंत्रालय स्थापित करने वाला महाराष्ट्र देश का पहला राज्य है, लेकिन क्या ऐसे विभाग की स्थापना भर होने से विकलांग समुदाय की स्थिति में फर्क आ सकता है? सवाल है कि उनकी जिंदगी में क्या सुधार हुआ है? सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है।

विकलांगों के पुनर्वास का क्या हुआ?

महाराष्ट्र राज्य सरकार का 'दिव्यांग कल्याण विभाग' भले ही स्थापित हो गया है, लेकिन विरोधी दल के नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो समाज कल्याण विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों और निदेशकों का रवैया नहीं बदला है।

बता दें कि केंद्र सरकार ने वर्ष 1981 को 'विकलांग वर्ष' के रूप में मनाया था। तब इस दिशा में कुछ विशेष कदम उठाते हुए सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विकास के माध्यम से विकलांगों के पुनर्वास के प्रयास प्रारम्भ किये गए थे। उसके बाद विकलांगों को समान अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से देश में विकलांगों के लिए विशेष कार्ययोजना तैयार की गई थी।

इसी के अनुरूप कई सरकारी निर्णय लिये गए थे। वर्ष 1981 के बाद से इन सभी प्रयासों के बावजूद सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह वर्ष 2023 तक इसका लेखा-जोखा लेकर जनता के सामने पेश करेगी कि क्या इन 42 वर्षों में वास्तव में विकलांगों का पुनर्वास किया गया है। यदि हां तो किस सीमा तक और कैसे?

लेकिन ऐसा क्यों है कि इस मामले में अब तक उपेक्षित रवैया अपनाया गया है। वहीं, यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए जा रहे हैं कि विकलांगों को उनके लिए प्रावधानों का पूरा लाभ मिले? यही वजह है कि इस बात की जांच नहीं की जाती कि संस्था पंजीकरण प्रमाणपत्र, कर्मचारियों की भर्ती और विकलांगों के जीवन स्तर के उत्थान से संबंधित अन्य नियमों का सख्ती से पालन किया जा रहा है या नहीं। इसी तरह, क्रियान्वयन की भी नियमित समीक्षा की जाए, फर्जी प्रशिक्षणशाला और कार्यशालाओं को लेकर निगरानी तंत्र विकसित किया जाए और इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगाते हुए इन्हें बंद किया जाए। दरअसल, राज्य सरकार द्वारा दिव्यांगों के लिए किया गया प्रावधान सही ढंग से सार्थक हो रहा है या नहीं, इसकी गणना भी जरूरी है।

लेकिन, विकलांगों के लिए कार्य करने वाले संगठन नाम छिपाते हुए आरोप लगाते हैं कि सिस्टम में बैठे कुछ चतुर अधिकारी ऐसा नहीं होने दे रहे हैं। इनके मुताबिक जिला सोसायटी पदाधिकारी पद से लेकर सचिव पद तक की शृंखला इसके लिए जिम्मेदार है। लेकिन, सवाल है कि शासन-प्रशासन स्तर पर ही अनदेखी बरती जाएगी तो 'बिल्ली के गले में घंटी' कौन बांधेगा? इनका यह भी कहना है कि इस तरह की गतिविधियों में बड़ी संख्या तक अधिकारी ऐसे संगठनों या संस्थाओं को कमजोर करने के लिए काम कर रहे हैं जो इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं।

30 लाख से अधिक विकलांगों के लिए क्या किया

राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में 30 लाख से ज्यादा विकलांग हैं। लेकिन, राज्य में इनकी हालत को एक तथ्य से समझा जा सकता है कि इनमें से महज साढ़े नौ लाख विकलांगों के पास ही विशिष्ट पहचान पत्र है। इस पहचान पत्र के आधार पर ही विकलांग व्यक्ति को लाभ मिल सकता है तो जाहिर है कि बीस लाख से अधिक विकलांग व्यक्ति सरकारी लाभ से फिलहाल वंचित हैं।

राज्य सरकार के 'दिव्यांग कल्याण विभाग' के मुताबिक 14 लाख 50 हजार विकलांगों ने विशिष्ट पहचान पत्र के लिए आवेदन दिए थे। यह आवेदन ऑनलाइन करना पड़ता है। जाहिर है कि दूरदराज के ग्रामीण, गरीब और निरक्षर विकलांग बड़ी संख्या में विशिष्ट पहचान पत्र के लिए ऑनलाइन आवेदन देने से छूट गए हैं।

दूसरी तरफ, इसी साल अप्रैल में यह मामला आया था कि महाराष्ट्र में सैकड़ों की संख्या तक विकलांग स्कूलों के शिक्षकों और कर्मचारियों को सरकार ने जनवरी से वेतन नहीं दिया है। इनकी शिकायत है कि वेतनमान पहले से ही कम है और उस पर यदि हर माह नियमित वेतन नहीं मिलेगा तो उनकी आर्थिक स्थिति प्रभावित रहेगी। ऐसे शिक्षकों की संख्या हजारों में बताई गई।

असंगठित विकलांग कुछ नहीं कर सके

विकलांग लोगों को सरकारी नौकरी मिल सके और उनका पुनर्वास हो सके, इसके लिए 1995 में एक सरकारी निर्णय लिया गया। सरकार के फैसले में कहा गया था कि समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित कार्यशालाओं में 50 प्रतिशत कर्मचारी विकलांग श्रेणी से होने चाहिए और इस नियम को लागू नहीं करने वाले संस्थानों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। लेकिन, कई संगठन और संस्थाओं के पदाधिकारियों और प्रबंधन ने इस कानून को ताक पर रख दिया। आरोप लगाए जाते रहे कि बड़ी संख्या में सामान्य व्यक्तियों को विकलांगों के लिए संचालित स्कूलों में नियुक्त करके इस कानून का उल्लंघन किया जा रहा है। लेकिन, विकलांगों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है उनका असंगठित होना। अफसोस कि असंगठित विकलांग इसके खिलाफ कुछ नहीं कर सके।

ऐसा तब है जब इसी साल अगस्त में बंबई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को चेताया है कि अगर वह विकलांगता अधिनियम के तहत विकलांगों को रियायती दरों पर भूमि आवंटन में पांच प्रतिशत आरक्षण देने से संबंधित अदालत के सवाल का जवाब देने में विफल रहती है तो उसके अधिकारियों के खिलाफ अवमानना कार्यवाही की जाएगी।

विधायक विक्रम काले ने 28 जुलाई, 2023 को विधानसभा सत्र में इस संबंध में राज्य सरकार से एक तीखा सवाल पूछा था, लेकिन उनका सवाल आरोप-प्रत्यारोप की भेंट चढ़ गया। यदि राज्य सरकार को दिव्यांगों के लिए कुछ करने की सच्ची इच्छा है तो राज्य में दिव्यांगों के लिए संचालित आवासीय विद्यालयों और कार्यशालाओं की जांच किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली समिति से करायी जानी चाहिए। समिति में सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों के सदस्यों को शामिल किया जाना चाहिए। सर्टिफिकेट जारी करने वाली संस्था की जांच होनी चाहिए।

दरअसल, इन संस्थानों में छात्रों की संख्या, वार्षिक प्रवेश, उत्तीर्ण छात्रों की संख्या, स्टाफ भर्ती प्रक्रिया आदि की सरकारी मानदंडों के अनुसार समीक्षा की जानी चाहिए। इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या भर्ती के संबंध में स्थानीय मीडिया में कोई विज्ञापन प्रकाशित किया गया था, क्या भर्ती के लिए सरकारी प्रतिनिधि मौजूद थे आदि।

कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का मत है कि प्रदेश में विकलांग स्कूलों और कार्यशालाओं को नया स्वरूप देकर फर्जी विकलांग स्कूलों और कार्यशालाओं को बंद किया जाए। दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए और फर्जी स्कूलों को बंद करने से जो धनराशि बचेगी, उससे विकलांगों के लिए पुनर्वास योजना की घोषणा की जाए। ऐसे कार्य 'दिव्यांग कल्याण विभाग' द्वारा किए जाने की उम्मीद जताई जा रही है।

पेंशन के लिए मध्यस्थ क्यों?

फिलहाल महाराष्ट्र राज्य सरकार विकलांगों के दरवाजे तक बड़े जोर-शोर से पहुंचने का दावा कर रही है। यह पहल अच्छी है, लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी है कि क्या ग्राम पंचायत स्तर से लेकर नगर निगम स्तर तक सिर्फ एक हजार रुपये पेंशन देकर विकलांगों का पुनर्वास किया जाएगा? इसी तरह, ऐसी कई घटनाएं आई हैं कि इसे पाने के लिए भी विकलांगों को बिचौलियों पर निर्भर रहना पड़ता है। हजारों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। वहीं, अगर तथ्यों की गहराई में जाने की कोशिश की जाए तो पता चल सकेगा कि फर्जी विकलांगता प्रमाण पत्र धारकों को विकलांगों के लिए आरक्षित सीटों पर नौकरियां मिल गई हैं, जबकि वास्तविक लाभार्थी वंचित रह गए हैं या रोजगार के लिए संघर्ष करते दिख रहे हैं।

इस तरह की गड़बड़ियों को कैसे रोका जाए, इस पर शासन स्तर पर विचार होने की अपेक्षा है। लेकिन, विकलांगों के लिए अलग से राज्य में विभाग बनने के बावजूद उनका हक छीनने वालों पर सख्त कार्रवाई को लेकर अनदेखी कायम है। नए विभाग बनने के बाद उम्मीद जगी थी कि विकलांग व्यक्तियों को उपकार की बजाय अवसर मिलेंगे।

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