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नागपुर के संतरों पर 'कोयला' संकट, बदहाल संतरा उत्पादक किसान

30 साल पहले भी इस बीमारी का ऐसा ही प्रकोप हुआ था। विदर्भ में संतरा उत्पादक किसान एक बार फिर इस बीमारी से बुरी तरह प्रभावित हुए है।
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राजा राम एक संतरा उत्पादक किसान

विदर्भ के संतरे जो अपने विशेष स्वाद के कारण 'नागपुरी संतरे' के नाम से जाने जाते हैं, अब बगीचों में पाला पड़ने से काले पड़ गए हैं। विदर्भ में संतरे की फसल एक गंभीर कीट रोग का सामना कर रही है। इस रोग को कवक या कोयला कहा जाता है। कहा जा रहा है कि लगभग दो लाख हेक्टेयर में से 40 से 55 प्रतिशत संतरा के बगीचे कीट रोग से प्रभावित हुए हैं। ऐसे में आशंका है कि विदर्भ में संतरों का उत्पादन घटकर आधा रह जाएगा। कुछ स्थानों पर तो पूरे के पूरे संतरों के बगीचे ही कीट रोग के चलते बर्बाद हो गए हैं।

क्यों कहते हैं कोयला संकट

यह रोग काली मक्खी के लार्वा द्वारा फैलता है। इस मक्खी का आकार आमतौर पर एक से डेढ़ मिलीमीटर लंबा होता है। पंख काले होते हैं और पेट लाल होता है। विदर्भ की जलवायु उसके लिए अनुकूल है। मक्खियां अपने अंडे पौधों की नयी पत्तियों की निचली सतह पर देती हैं। काली मक्खी पत्तियों से रस चूसती है। ऐसी अवस्था में इस मक्खी के शरीर से चिपचिपा पदार्थ रिसता रहता है। इससे फंगस संतरे के फल की ऊपरी सतह पर और पत्ती के पिछले हिस्से पर पनपने लगता है। उसका रंग काला पड़ जाता है। इसलिए इसे कवक या 'कोयला' कहा जाता है।

किसान बताते हैं कि संतरे के बगीचों में उन्हें फंगस का संक्रमण तुरंत नजर नहीं आता है। यदि पौधों की पत्तियों को खुरचने से कोयला जैसा कालापन दिखाई पड़ता है, तो इसे संक्रमण की प्राथमिक अवस्था माना जाता है। लेकिन, अगर फंगस पूरी पत्ती को ढक लेता है या छूने पर उंगली काली हो जाती है, तो यह संक्रमण की गंभीर अवस्था मानी जाती है। विदर्भ के संतरा उत्पादक किसान इस समय इसी अवस्था से जूझ रहे हैं। इस रोग के कारण पत्तियों में पोषक तत्व पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है और फूल फलते नहीं हैं। इसलिए, किसानों को अक्सर पूरे बगीचे को मजबूरीवश काटना पड़ता है।

तीस साल बाद लौटी आफत

30 साल पहले भी इस बीमारी का ऐसा ही प्रकोप हुआ था। विदर्भ में संतरा उत्पादक इससे बुरी तरह प्रभावित हुए थे। कोरोना के समय भी संतरा उत्पादक किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ा था। इसके बाद अब कीट रोग ने उन्हें ऐसे आर्थिक संकट में डाल दिया है कि इससे उभरने में काफी समय लग सकता है।

बता दें कि विदर्भ में मुख्य रूप से अमरावती, वर्धा, नागपुर के तीन प्रमुख जिलों के साथ-साथ अकोला और विदर्भ के कुछ अन्य जिलों में भी संतरों का उत्पादन किया जाता है। वर्तमान में कुल बगीचों का 40 से 50 प्रतिशत भाग में गोभी की फसल उगाई जाने लगी है और यह भाग बढ़ता ही जा रहा है। इस क्षेत्र के किसानों का कहना है कि इस कीट रोग से संतरे के दो प्रमुख उत्पादक जिले नागपुर और अमरावती सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।

किसानों को नहीं मिल रहा मार्गदर्शन

कहा जाता है कि संतरों पर यह रोग नासूर हो जाता है। यही वजह है कि यदि संतरा उत्पादक क्षेत्र में रोग फैलता है तो बगीचों को भारी नुकसान होता है। संतरे के बगीचों में अगर फलों पर यह 'कोयला' रोग लग जाए तो उन पर काले धब्बे पड़ जाते हैं। ऐसे संतरे को बाजार में खराब माना जाता है और इस रोगग्रस्त संतरे की मांग नहीं होती है। संक्रमण के कारण उत्पादन भी आधा रह जाता है, इसलिए बगीचों को खरीदने वाले व्यापारी भी गांवों का दौरा नहीं करते हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि ऐसी हालत में उत्पादन तो घटता ही है, उत्पादन के साथ ही बड़े पैमाने पर संतरों की फसल चौपट हो जाती है, क्योंकि खरीदने को व्यापारियों की बहुत ज्यादा दिलचस्पी नहीं रह जाती है। मौजूदा स्थिति में विदर्भ में संतरा उत्पादक किसान इस अवस्था से गुजर रहे हैं, जहां बीमारी ने उनकी कमर तोड़ दी है वहीं प्रशासन के स्तर पर भी किसानों की परेशानी को अनदेखा किया जा रहा है। स्थिति और अधिक विकट इसलिए कही जा सकती है कि यदि रोग नियंत्रण में नहीं आता है, तो किसान को पूरा बगीचा काटना पड़ता है। 

नागपुर में साइट्रस फ्रूट्स रिसर्च इंस्टीट्यूट एक राष्ट्रीय स्तर का संतरा शोध संस्थान है। इसके अलावा पंजाबराव देशमुख कृषि विश्वविद्यालय में संतरा रोग के नियंत्रण के लिए भी शोध किया जाता है। किसानों की शिकायत है कि इन संस्थानों में होने वाले शोध संतरा उत्पादकों तक समय पर नहीं पहुंच पाते हैं। नागपुर के सांसद और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अक्सर शोध संस्थानों के मंच पर सार्वजनिक तौर पर इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। किसानों का कहना है कि अभी जब हाहाकार मच रहा है तब इन संस्थाओं को फफूंद जनित रोगों को लेकर अपेक्षित मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है।

संतरे में मुख्यतः दो बार फूल लगते हैं। इसके लिए राज्य और केंद्र सरकार के शोध संस्थानों के साथ-साथ कृषि विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कीट प्रबंधन के सूत्र निर्धारित किए हैं। इनमें कीटनाशकों का छिड़काव प्रमुख है। कृषि शोधकर्ताओं का दावा है कि इससे संतरों पर कीट रोग से होने वाले नुकसान को रोका जा सकेगा। हालांकि, इन उपायों के बाद भी संतरों पर भयावह प्रकोप देखा गया है। लिहाजा, कह सकते हैं कि ये उपाय विफल रहे हैं।

संतरा किसानों पर दोहरा संकट

अनुमान है कि इस साल कीट रोग और दूसरी प्राकृतिक आपदाओं के चलते 500 करोड़ से अधिक की फसल बर्बाद हुई है। वहीं, बांग्लादेश ने भारतीय संतरे पर आयात शुल्क बढ़ा दिया है। इससे बांग्लादेश में भारतीय संतरे का निर्यात काफी कम हो गया है। बाजार में अच्छे आकार के लेकिन छोटे संतरे के खरीदार नहीं हैं, इसलिए छोटे आकार के संतरों को किसानों द्वारा डंप किया जा रहा है।

संतरे और नींबू के बगीचों की खेती और रखरखाव में प्रति हेक्टेयर कम से कम एक लाख रुपए का खर्च आता है। लेकिन, फल गिरने के कारण इस लागत की भरपाई संभव नहीं है। राज्य के संतरा उत्पादक किसान संगठन ने इस पर संज्ञान लेते हुए मांग की है कि सरकार संतरा और नींबू उत्पादकों को राहत देते हुए उनके लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा करे। दूसरी तरफ, कीट रोग के अलावा लगातार बारिश और तापमान में वृद्धि के चलते विदर्भ में संतरा उत्पादक किसानों को हुए नुकसान की भरपाई को लेकर राज्य सरकार ने मदद नहीं दी है। हालांकि, प्रशासन ने पिछले तीन सालों में संतरा उत्पादक किसानों को हुए नुकसान का सर्वे कर राज्य सरकार को रिपोर्ट सौंपी है।

राज्य में संतरा उत्पादक किसान संगठन के नेता मनोज जवांजल कहते हैं कि कीट रोग के प्रकोप और दूसरी प्राकृतिक आपदाओं के चलते संतरे को लगातार तीसरे साल भारी नुकसान हुआ है। हालांकि, कृषि विभाग के सचिव एकनाथ डावले ने नुकसान का जायजा लिया है। लेकिन, राज्य सरकार ने तीन साल से मुआवजा नहीं दिया है। दुर्भाग्य की बात है कि कोई भी मंत्री, विधायक या नेता इस बारे में बात नहीं कर रहा है।

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