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'धोखेबाज़' बीजेपी के हाथों से अब महाराष्ट्र निकल रहा है

अगर सिर्फ़ दो साल पहले से तुलना करें तो दलबदल को प्रायोजित करने और अवसरवादी गठबन्धनों के बावजूद एक के बाद एक राज्य सरकारों पर बीजेपी की पकड़ ढीली होती गई है।
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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और शिवसेना के बीच महाराष्ट्र में 35 वर्षों से चली आ रही दोस्ती में गतिरोध की वजह सिर्फ़ बेलगाम होती महत्वाकांक्षा और सत्ता की हनक ही नहीं है। यह संकट एक के बाद एक हर दूसरे राज्य में भाजपा के लगातार और न रुकने वाले समर्थन आधार में होने वाली गिरावट से उपजा है। जैसा की नीचे दिए गए तीन नक़्शों से प्रतीत होता है कि 2017 में अपने चरम बिंदु पर पहुंचने के बाद, राज्य सरकारों की सत्ता पर भाजपा की पकड़ उल्लेखनीय रूप से कमज़ोर हुई है।

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महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व गठबंधन होने और हालिया विधानसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत हासिल करने के बावजूद, हालात 2014 की तुलना में बदतर हैं। बीजेपी की पतली हालत को देखते हुए शिवसेना अपने पूरे शबाब में है। अगर यह पहेली 9 नवम्बर तक हल नहीं होती है तो राष्ट्रपति शासन लगता तय है, क्योंकि विधानसभा का कार्यकाल 9 नवम्बर समाप्त होने जा रहा है। यह एक महीने पहले के बीजेपी के दावों का नाटकीय अंत है जब वह यह दावा कर रही थी कि उसे शानदार जीत हासिल होने जा रही है।

हरियाणा में बीजेपी पहले ही अपना बहुमत गँवा चुकी है और राज्य में सत्ता में बने रहने के लिए उसे एक नौसिखिये जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के साथ खुद को जोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है, जो दिखाता है कि बीजेपी के सितारे गर्दिश में हैं। कई अन्य राज्यों में यह सत्ता की ताक़त ही है जिसके बल पर वह दलबदल कराकर या अपने सहयोगी दलों को पीछे छोड़, दूसरे अन्य विजयी दलों के साथ जोड़-तोड़ कर किसी भी प्रकार सत्ता में बने रहने में सफलता प्राप्त कर रही है।

2014 में जब नरेंद्र मोदी ने केंद्र में बीजेपी को जीत दिलाई थी तो उस समय पार्टी के पास सिर्फ़ पांच प्रमुख राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और हरियाणा में ख़ुद का पूर्ण बहुमत हासिल था। वह महाराष्ट्र के भीतर भी सत्ता में थी लेकिन शिवसेना के सहयोग के बल पर, और पंजाब में अकाली दल के नेतृत्व में उसकी भूमिका एक जूनियर पार्टनर से अधिक नहीं थी।

लेकिन इसके बाद केंद्र सरकार की ताक़त और उसके द्वारा अथाह दौलत के सहारे एक प्रकार की 'भगवा लहर' को बढ़ावा दिया गया। नतीजे में इसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और झारखंड में पूर्ण बहुमत से चुनाव जीतने में सफलता प्राप्त हुई।

इसके अलावा, इसने विपक्ष में सेंधमारी कर नीतीश कुमार की जनता दल (युनाइटेड) को अपने पाले में लाने को अंजाम दिया और इस प्रकार बिहार में सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर ली। इसी तरह जम्मू-कश्मीर में भी पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ सौदेबाज़ी कर वहां एक जूनियर पार्टनर के रूप में सत्ता में भागीदार बन गई। अरुणाचल प्रदेश में तो सरकार बनाने के लिए थोक में दलबदल करवाया गया। गोवा में, सत्ता में बने रहने के लिए इसे विपक्षी दल के साथ गठबंधन करना पड़ा।

इसलिए 2017 तक, कुछ राज्यों में एकमुश्त लोकप्रिय समर्थन और कहीं ज़ोर-ज़बरदस्ती और धन-बल से बीजेपी ने देश के व्यापक क्षेत्र पर नए शासक के रूप में उभर कर सामने आई (उपर नक़्शे में देखें)

लेकिन इसके बाद मात्र दो वर्षों के भीतर बीजेपी को पहले पहल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से राज-पाट गंवाना पड़ा और फिर उसके बाद उसे अपने सहयोगी अकाली दल के साथ पंजाब से बेदख़ल होना पड़ा। उत्तरपूर्व क्षेत्रों में इसे नए सिरे से सफलता प्राप्त हुई और त्रिपुरा में एक आदिवासी पार्टी के साथ गठबंधन कर, जिसका इतिहास अलगाववादी आंदोलन से जुड़ा रहा है, भारी सफलता हासिल की, और मेघालय और नागालैंड जैसे कुछ अन्य राज्यों में चुनावों के बाद नए गठजोड़ बनाकर, या विपक्ष में भितरघात के ज़रिये सफलता हासिल की।

लेकिन यदि आप नक़्शे में 2019 पर नज़र डालें तो बीजेपी की गिरावट बेहद मायनेखेज़ है। स्पष्ट है कि पूरी तरह से पैरों तले ज़मीन खिसक रही है।

भाजपा का समर्थन आधार क्यों खिसक रहा है?

बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज की, और इसके वोट शेयर और सीटों की संख्या में भी ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी देखी गई। फिर भी, हर दूसरे राज्यों में यह हारती जा रही है। ऐसा कैसे हो रहा है?

राज्य सरकारों के पास केंद्र सरकार की तुलना में चीज़ों को घुमाफिरा कर करने की गुंजाईश बेहद कम रहती है। काफ़ी हद तक उन्हें केंद्र सरकार से प्राप्त होने वाले फ़ंड पर निर्भर रहना पड़ता है, और बीजेपी शासन में यह और भी स्पष्ट तौर पर नज़र आता है। वे अधिकांश मुद्दे जो लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन पर अपना सीधा प्रभाव डालते हैं, उन पर अब तक राज्य सरकारों द्वारा निर्णय लिया जाते रहे हैं, चाहे वह भूमि या क़ानून व्यवस्था का मामला हो, या स्कूली शिक्षा या प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा या श्रम सम्बन्धी मामले हों। यहां तक कि अब केंद्र सरकार की नीतियां आम जन के रोज़मर्रा के जीवन पर प्रभाव डालने की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के रूप में सामने आ रही हैं, जिसकी अपेक्षा जनता राज्य सरकारों से करती है।

इसके अलावा, मोदी शासन में भाजपा ने एक बेहद केन्द्रीयकृत प्रणाली को भी स्थापित कर रखा है जिसमें सभी महत्वपूर्ण फ़ैसले और पहल मोदी सरकार द्वारा ही शुरू और प्रचारित किये जाते हैं। इस कार्यवाही से यह सुनिश्चित किया जाता है इन सभी तथाकथित कल्याणकारी योजनाओं का पूरा श्रेय मोदी को ही मिले। भाजपा की राज्य इकाइयाँ और राज्य सरकारें दिल्ली में बैठे शासकों के लिए महज डाकिये या कूरियर बॉय की तरह काम कर रही हैं। कम से कम, लोगों की नज़र में तो यही आ रहा है।

इसलिए इन विनाशकारी नीतियों का असर उन राज्य सरकारों पर पड़ना बिलकुल स्वाभाविक है जिनका सम्बन्ध खेती और रोज़गार से जुड़े जैसे मुद्दों पर समाधान के रूप में लोग अपने निकटतम सत्ता केन्द्रों से देखते हैं।

इन सबने मिलकर बीजेपी द्वारा संचालित राज्य सरकारों के प्रति मोहभंग को बढ़ा दिया है। जबकि दूसरी और मोदी और उनकी दूरस्थ दिल्ली सरकार देश की स्थिति को मज़बूत करने और समृद्ध बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है, ऐसा भ्रम लोगों में अभी भी क़ायम है।

हालाँकि राज्य सरकारों में बीजेपी के लिए घटता समर्थन एक प्रकार से पार्टी के शीर्षस्थ नेतृत्व के लिये एक ख़तरे की घंटी के संकेत के रूप में होना चाहिए। जो असंतोष और ग़ुस्सा आज इनकी नीतियों को लेकर इनके राज्य के नेतृत्व के ख़िलाफ़ निर्देशित हो रहा है कल यह केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ भी एकजुट हो सकता है।

अभी तक भाजपा नेतृत्व इस आसन्न संकट से अनजान अपने आप में मगन हैं। इसी लिए महाराष्ट्र में अहम और अहंकार का प्रदर्शन जारी है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Maharashtra is Latest State to Slip Away from Bungling BJP

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