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मराठा आरक्षण असंवैधानिक मगर फिर भी कुछ ज़रूरी सवाल?

50 फ़ीसदी की सीमा तय करना सही नहीं बैठता अगर भारत के 80 फीसदी से अधिक लोग सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ेपन की कैटेगरी में आते हैं। 
मराठा आरक्षण असंवैधानिक मगर फिर भी कुछ ज़रूरी सवाल?

आरक्षण अगर भारत में सामाजिक न्याय का हथियार है तो चुनावी गोलबंदी का भी एक औजार है। सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण पर अपना फैसला सुनाते हुए एक बात यह भी कहीं की अजीब सा दौर चल रहा है लोग खुद को फॉरवर्ड करने की बजाय बैकवर्ड साबित करने पर तुले हुए हैं। जानकारों की मानें तो वह कहते हैं आरक्षण से जुड़ा अधिकतर मामला चुनावी मौसम में ही लोगों के बीच फेंका जाता है। जैसे कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 2019 लोकसभा चुनाव से पहले आरक्षण देने का ऐलान किया गया। 

यही हाल मराठा आरक्षण के मुद्दे पर भी है। यह भी मुद्दा सामाजिक न्याय से ज्यादा महाराष्ट्र की राजनीतिक पार्टियों के राजनीतिक गोलबंदी से जुड़ा हुआ है।

साल 2016 में मराठा आरक्षण का मामला प्रखर तौर से महाराष्ट्र में उठने लगा। उस समय की भाजपा सरकार ने इस मुद्दे में छुपी चुनावी गोलबंदी की आंच को भांप लिया। इस पर एक कमेटी बैठा दी। सरकार के मुताबिक कमेटी ने यह फैसला लिया कि मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। लेकिन यह नहीं बताया कि आरक्षण का प्रतिशत कितना होगा। जबकि हकीकत का दूसरा पहलू यह भी है कि उस पूरी रिपोर्ट को ढंग से पढ़ा भी नहीं गया। साल 2018 में देवेंद्र फडणवीस और शिवसेना की मिलीजुली सरकार ने महाराष्ट्र स्टेट सोशली एंड एजुकेशनली बैकवर्ड कानून के तहत विधानसभा से मराठा समुदाय के लिए आरक्षण पारित करवा लिया। चूंकि मामला राजनीतिक था। वोट की गिनती से जुड़ा हुआ था। इसलिए विपक्ष में बैठे कांग्रेस और एनसीपी की तरफ से कोई विरोध नहीं हुआ। विपक्ष की तरफ से ही से एकमत होकर स्वीकार कर लिया गया।

लेकिन जनता भी तो आखिरकार जनता होती है। अदालत में पीआईएल दाखिल कर दिया गया। मुंबई हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से दिए गए मराठा समुदाय के 16% आरक्षण को घटा कर शैक्षणिक संस्थानों में 12% और सरकारी नौकरी के मामले में 13% कर दिया। मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई को फैसला दिया कि महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मिला आरक्षण असंवैधानिक है। यानी मराठा समुदाय के मिले आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया।

मराठा समुदाय के लोगों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यह वर्ग सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ा हुआ वर्ग नहीं है। इस समुदाय की लोगों की अच्छी खासी भागीदारी आईएएस आईपीएस और आईएफएस जैसे बड़े सरकारी पदों पर है। मराठा समुदाय मजबूत और मुख्यधारा का समुदाय है।

मंडल आयोग ने मराठा समुदाय को मंडल आयोग के 11 पैमानों के आधार पर सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ा वर्ग नहीं माना था। इसके बाद राज्य सरकार की तरफ से भी दो आयोग बैठे इन दोनों आयोगों ने भी मंडल आयोग की तरह ही मराठा समुदाय को पिछड़ा वर्ग नहीं माना। बाद में देवेंद्र फडणवीस सरकार के दौर में बैठे आयोग ने मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षिक तौर पर पिछड़ा वर्ग मान लिया। इस आयोग ने मंडल आयोग के 11 पैमानों के अलावा कुछ और भी पैमाने बनाएं जैसे कि मराठा समुदाय में कितने लोग अंधविश्वास को मानते हैं कितने लोग अपने स्वास्थ्य के इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाने की बजाए तांत्रिक लोगों के पास जाते हैं। 

मंडल आयोग से अलग इन सारे पैमानों के आधार पर फडणवीस सरकार में बने आयोग ने मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ा वर्ग घोषित किया। इन सभी आयोगों के निष्कर्षों का अध्ययन करने के बाद सुप्रीम कोर्ट इस फैसले पर पहुंची कि मराठा समुदाय सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ा वर्ग नहीं है। उसे आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।

 कानूनी जानकारों की माने तो उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत सही है। चुनावी गोलबंदी को देखते हुए राज्य सरकारें गलत तरीके से आरक्षण का इस्तेमाल करने लगी हैं। पटेल, गुर्जर, जाट और कई तरह की प्रबल जातियां जो सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़ेपन का शिकार नहीं है, उनके साथ तुष्टीकरण की नीति अपनाई जाने लगी है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस तरह की गैर जरूरी मांगों पर रोक लगेगा। 

मराठा समुदाय को आरक्षण देने की वजह से महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 50% को पार करके 64% तक पहुंच गई थी। इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच ने यह फैसला लिया था कि आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं हो सकती है। जब असामान्य परिस्थितियां होंगी तभी इस सीमा को पार किया जाएगा।  इसलिए सुप्रीम कोर्ट के सामने यह भी सवाल उठ खड़ा हुआ था कि वह आरक्षण की 50% की सीमा पर क्या फैसला सुनाती है? 

तो इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि इंदिरा साहनी केस द्वारा निर्धारित 50% सीमा पर फिर से विचार करने जरूरत नहीं है। 5 जजों की इस बेंच ने कहा कि इंदिरा साहनी मामले में 9-जजों की बेंच के फैसले में निर्धारित आरक्षण पर 50% सीमा पर फिर से विचार की जरूरत नहीं है।

 जहां तक  मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की बात है तो मराठा समुदाय की स्थिति भी सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ेपन वाली नहीं है और ना ही यहां पर किसी भी तरह की असामान्य और असाधारण परिस्थिति बन रही है इसलिए इनके लिए 50% की सीमा नहीं पार की जा सकती है। 

इस पर कानून के जानकारों की अलग-अलग राय है। कानून के जानकारों का कहना है कि यह बात ठीक है कि मराठा समुदाय मुख्यधारा का समुदाय है, उसे आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इंदिरा साहनी केस में तय किए गए 50% की सीमा पर फिर से विचार करना चाहिए था।

कानूनी जानकार गौतम भाटिया अपने ब्लॉग पर लिखते हैं कि संविधान में अवसर की समानता को स्वीकार किया गया है। आरक्षण के तौर पर मुहैया कराई जाने वाली अवसर की समानता अपवाद नहीं है बल्कि सब्सटेंटिव जस्टिस का तरीका है। इसलिए 50 फ़ीसदी की सीमा तय करना सही नहीं बैठता अगर भारत के 80 फीसदी से अधिक लोग सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ेपन की कैटेगरी में आते हैं। 

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने इस पर भी फैसला सुनाया कि जातिगत आधार पर आरक्षण देने का अधिकार केंद्र का होगा या राज्य का? इससे जुड़ा प्रसंग यह है कि संविधान के अनुच्छेद 102 के तहत नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लास को संवैधानिक संस्था का दर्जा दे दिया गया था। लेकिन ऐसे ही आयोग राज्य के भी होते हैं।

इसलिए पेंच यह था कि आखिरकार आरक्षण देने का अधिकार किसके पास होगा? 5 जजों की बेंच ने इस पर एकमत होकर फैसला तो नहीं सुनाया लेकिन 3:2 में बंटा हुआ फैसला यह है कि राज्य का पिछड़ा आयोग उन समूहों की पहचान कर सकता है जिन्हें आरक्षण की जरूरत है लेकिन इस पर अंतिम फैसला नेशनल कमिशन फॉर बैकवर्ड क्लास का ही होगा। इस फैसले पर भी कानूनी जानकारों के बीच मतभेद है। कुछ का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने ठीक फैसला लिया है तो कुछ का कहना है कि आने वाले समय में से बहुत सारी दिक्कत होगी, यह अधिकार राज्यों के पास ही रहना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट को फिर से नए सिरे से इस मुद्दे पर सुनवाई करनी चाहिए।

वैसे भी भारत में सामाजिक न्याय स्थापित करने के मामले में आरक्षण का तरीका केवल सरकारी नौकरियों पर ही लागू होता है जहां केवल भारत की डेढ़ फीसद से कम आबादी काम पर लगी हुई है। इसलिए बड़े परिप्रेक्ष्य में सोचा जाए तो यह बात बिल्कुल ठीक है कि मराठा जैसी प्रबल मजबूत और मुख्यधारा के समूह की जगह आरक्षण के तहत नहीं बनती है। लेकिन बहुत बड़ा समुदाय अभी भी बहुत पिछड़ा है। इस समुदाय को 50 फ़ीसदी वाली सीमा के अंदर कैद कर नहीं रखा जा सकता।

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