Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

शहीद दिवस: डीयू में गूंजा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के ‘सपनों के भारत’ का नारा

23 मार्च 1931 के दिन अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव हंसते हुए फांसी पर चढ़ गए थे। हर साल इस दिन को शहीद दिवस के तौर पर मनाया जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में आज अलग-अलग छात्र संगठनों ने कई कार्यक्रमों का आयोजन कर भगत सिंह को याद किया।
Martyr's Day

“इंकलाब के नारे में

ऐ भगत सिंह तू ज़िंदा है


अंधेरों का ये तख़्त हमें

ताक़त से अब ठुकराना है


हर सांस जहां लेगी उड़ान

उस लाल सुबह को लाना है”

दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी के गेट पर जैसे ही हाथ में ढपली और पैरों की थाप के साथ छात्रों ने एक सुर में इस गीत को गाना शुरू किया तो एक पल के लिए ही सही लेकिन आस-पास एक ख़ामोशी सी दिखी, सड़क पर चलता ट्रैफिक भी मानों कुछ देर के लिए थम कर इन छात्रों के गीतों में शहीद-ए-आज़म के पैग़ाम के ज़िक्र को सुन लेना चाहता था।

आज यानी 23 मार्च को शहीद दिवस के मौके पर आर्ट्स फैकल्टी के मेन गेट के दोनों तरफ़ अलग-अलग छात्र संगठनों के जुड़े कार्यक्रम चल रहे थे लेकिन इन कार्यक्रमों में जो एक बात समान थी वो ये कि कार्यक्रम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत को याद करने के लिए आयोजित किए जा रहे थे।

शहीद-ए-आज़म की याद में DU में गूंजे नारे

23 मार्च 1931 के दिन देश की आज़ादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गए इन क्रांतिकारी नौजवानों की शहादत रहती दुनिया तक याद की जाएगी। दिल्ली विश्वविद्यालय में आज कई कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। क्रांतिकारी युवा संगठन (KYS) की तरफ से आर्ट्स फैकल्टी के मेन गेट पर भगत सिंह से जुड़ी पोस्टर प्रदर्शनी और एक आम सभा का आयोजन किया गया। यहां लगे पोस्टर कुछ जाने-पहचाने थे तो कुछ मौजूदा हालात से जुड़ी कहानी कह रहे थे।

एक पोस्टर पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की तस्वीर लगी थी और उसपर लिखा था : “इंकबाल ज़िंदाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था जो आम तौर पर ग़लत अर्थ में समझा जाता है, पिस्तौल और बम इंक़लाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है और यही चीज थी जिसे हम प्रकट करना चाहते थे” ~ बम कांड पर हाई कोर्ट में भगत सिंह का बयान

वहीं एक दूसरे पोस्टर पर लिखा था :

“नौजवानों को क्रांति का संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है। फैक्ट्री, कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा“ ~ ‘विद्यार्थियों के नाम पत्र’

दरअसल जिस पत्र के एक छोटे से हिस्से को यहां इस पोस्टर के तौर पर लगाया गया था वे 19 अक्टूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया था जो पूरा इस तरह है :

‘विद्यार्थियों के नाम पत्र’

(भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त की ओर से जेल से भेजा गया यह पत्र 19 अक्टूबर, 1929 को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया था अधिवेशन के सभापति थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस)

“इस समय नौजवानों से हम यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आज़ादी के लिए ज़बर्दस्त लड़ाई की घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ पड़ी है।

क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएंगे? नौजवानों को क्रांति का संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है। फैक्ट्री, कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा। आज देश के प्रति अपनी श्रद्धा और शहीद यतींद्रनाथ दास के बलिदान से प्रेरणा लेकर यह सिद्ध कर दें कि स्वतंत्रता के इस संघर्ष में दृढ़ता से टक्कर ले सकते हैं।”

~ 22 अक्टूबर, 1929 के ट्रिब्यून (लाहौर) में प्रकाशित

“भगत सिंह को पढ़ना बहुत ज़रूरी है”

DU की आर्ट्स फैकल्टी के मेन गेट पर हर तरफ़ भगत सिंह और उनसे जुड़े किस्सों की चर्चा थी, कैंपस में आते-जाते छात्रों को पर्चे बांटे जा रहे थे जिसके माध्मय से ये छात्र संगठन ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि आज भी किस तरह से भगत ने जिस सपने को देखा था वो पूरा नहीं हो पाया है। कोई छात्र पर्चों को बांटते हुए एक सांस में छात्रों से कहता दिखा कि "आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का शहीद दिवस है, इस पर्चे को ज़रूर पढ़ें इसमें बहुत ज़रूरी बातें लिखी हैं।''

इसके अलावा कुछ छात्र एक-दूसरे से बहस मुबाहिसा करते दिखे, कोई आरक्षण पर, तो कोई नई शिक्षा नीति पर, तो कोई शिक्षा बजट को लेकर एक-दूसरे से बात करते दिखा और इन सबके बीच कैसे भगत सिंह आज भी प्रसांगिक हैं इसपर चर्चा करते दिखे।

मुद्दों से पटे पोस्टर दिखे

पोस्टर प्रदर्शनी के साथ ही यहां भगत सिंह से जुड़ा साहित्य रखा हुआ दिखा और साथ ही कई इंकलाबी नारों वाले पोस्टर भी दिखे। इसके अलावा पोस्टर के माध्यम से कुछ मुद्दों को भी उठाया गया था जैसे:


“भगत सिंह को याद करो, मज़दूरों के शोषण, महिला उत्पीड़न, जातिवाद, धर्म की राजनीति के ख़िलाफ़ संघर्ष में साथ आओ”


“भगत सिंह का नारा, कौमी एकता ज़िंदाबाद”

“भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को याद करेंगे जातिवाद का नाश करेंगे”


“भगत सिंह को याद करो, सबको पानी, बिजली, घर और समान शिक्षा के लिए संघर्ष में शामिल हों”


“भगत सिंह के अरमानों को मंज़िल तक पहुंचाएंगे''

इसे भी पढ़ें: मुंबई: TISS में भगत सिंह मेमोरियल लेक्चर को लेकर छात्रों ने प्रशासन पर शहीदों के अपमान का लगाया आरोप!

भगत सिंह के अरमानों का ज़िक्र करते हुए क्रांतिकारी युवा संगठन (KYS) से जुड़ी एक छात्रा ने कहा, “आज हम जिस समाज में रहते हैं वहां शिक्षा में दोहरापन है, जाति और धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है, महिलाओं के साथ शोषण होता है, अगर हम बात करते हैं आज़ादी की और अगर हम बात करते हैं भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के सपनों की तो इनका तालमेल बैठ नहीं पाता क्योंकि ये दोनों अलग बातें दिखती हैं। आज़ादी तो असल मायने में तब होगी जब देश के हर व्यक्ति के पास समान रूप से शिक्षा हो, समान रूप से स्वास्थ्य व्यवस्था होगी, हमारे देश में बेरोज़गारी ख़त्म हो, शोषण ख़त्म हो तभी भगत सिंह के सपने साकार होंगे।”

“मिलकर आवाज़ उठानी होगी”

वहीं इसी संगठन से जुड़े एक और छात्र ने कहा कि, “23 मार्च 1931 के दिन जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ाया गया था उस वक़्त उनकी आंखों में एक सपना था, वो था एक बेहतर भारत, एक बेहतर समाज का सपना, एक ऐसे भारत का सपना जहां ग़रीबी न हो, बेरोज़गारी न हो, जहां शोषण न हो, ऐसे सपनों के लिए जो शहादतें हुईं क्या आज 90-92 साल बाद वो भारत बन पाया है? क्या समाज में ऐसी आज़ादी दिखती है? आज भगत सिंह के सपनों के भारत की बहुत ज़रूरत है क्योंकि आज़ादी के 75 साल बाद आज देश में मज़दूरों का शोषण दिखता है, आज भी सत्ता में किसी ना किसी तरह से पूंजीपतियों की मौजूदगी दिखती है।”

वे आगे कहते हैं, “आज हम कहते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ जैसी तमाम सुविधाओं में देश तरक्की कर रहा है जबकि हक़ीक़त ये है कि आज भी देश की बहुसंख्यक जनता की स्थिति ठीक नहीं दिखती, शिक्षा, स्वास्थ, रोज़गार जनता की पहुंच से दूर दिखता है। ऐसे में अगर हम एक बेहतर भारत बनाना चाहते हैं तो हमें एक बेहतर समाज बनाना होगा और ये तभी होगा जब हम मिलकर उत्पीड़न की शिकार आवाज़ों को सामने ला पाएंगे और उसके ख़िलाफ़ मिलकर आवाज़ उठाएंगे।”

जहां एक तरफ भगत सिंह के सपनों को मंज़िल तक पहुंचाने का संकल्प लिया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ़ छोटे-छोटे सामान्य परिवार से आए बच्चों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की तस्वीरों पर माला चढ़ा कर उनका सम्मान किया और इसके बाद इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाए गए। 

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की तस्वीर पर माला चढ़ते बच्चे

“छात्र हर आंदोलन में दिखेंगे”

वहीं 'दिशा' छात्र संगठन से जुड़ी प्रियंवदा कहती हैं, “जिस वक़्त भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाने के लिए ले जाया जा रहा था वे लेनिन को पढ़ रहे थे, लेनिन को पढ़ते हुए उन्होंने अपने नोट्स भी बनाए, वे और भी बहुत से लोगों को पढ़ रहे थे, उस पूरी जेल नोटबुक में हम देखते हैं कि वे सिर्फ़ अंग्रेज़ों से आज़ादी की बात नहीं कर रहे थे। आज यही बात न सिर्फ़ मीडिया मिटाने की कोशिश कर रहा है बल्कि कॉलेज के सिलेबस से भी हटाई जा रही है कि भगत सिंह अंग्रेज़ों से आज़ादी के अलावा ये बात भी कर रहे थे कि समता मूलक समाज बनाया जाए, एक ऐसा समाज जहां मेहनत मशक्कत करने वाले लोग हों, उनके हाथों में राज-काज हो सही मायने में आज़ादी उनको मिले लेकिन आज भी इस देश के 80 फीसदी लोग गुलामी की ज़िंदगी जी रहे हैं इस देश की 70 फीसदी संपदा देश के महज़ 5 से 7 फीसदी लोगों के हाथ में है और बाकी के लोग खट-खटकर जीने के लिए मजबूर हैं।

जिन कॉलेज, यूनिवर्सिटी में हम पढ़ रहे हैं वहां तक बहुत कम छात्र पहुंच पाते हैं सिर्फ़ इसलिए क्योंकि फीस ज़्यादा है और सीट लगातार घटाई जा रही है। रिज़र्वेशन के नाम पर छात्रों को आपस में बांटा जा रहा है, हमारे क्रांतिकारियों ने ऐसे समाज का सपना नहीं देखा था जहां छात्र सिर्फ़ न पढ़ पाने के लिए आत्महत्या कर रहे हैं और जहां बेरोज़गारी की वजह से लोग अपनी जान देने को मजबूर हों ऐसे समाज का सपना तो भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने नहीं देखा था। छात्र होने के नाते हमारा कर्तव्य बनता है कि हम ऐसी व्यवस्था को बदल कर रख दें, हम जानते हैं कि इतिहास में जितने भी आंदोलन हुए हैं उसमें छात्रों ने बढ़-चढ़कर अपनी हिस्सेदारी दिखाई दी है।”

बेशक बात शिक्षा की हो या फिर स्वास्थ्य की या फिर रोज़गार की, एक सवाल अक्सर बना रहता है कि क्या वाकई ये वही सपनों का भारत है जिसके लिए भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव ही नहीं बल्कि बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी जान की परवाह नहीं की। आज खुली हवा में सांस लेने वाले लोगों को क्या वाकई इस आज़ादी की क़ीमत पता है?

“कारवां बढ़ता रहेगा”

क्या पता शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के सपनों के भारत का सपना कब साकार होगा? लेकिन आज के इस ख़ास मौके पर अलग-अलग कार्यक्रमों में शामिल इन छात्रों को देखकर बेशक कम से कम ये उम्मीद तो दिखती है कि ये छात्र उस सपने को आज भी ज़िंदा रखने की ज़िद पकड़े बैठे हैं और साथ ही गुनगुना रहे हैं:

“कारवां चलता रहेगा, चलता रहेगा, बढ़ता रहेगा

मुक्ति की राह पर

ज़िंदगी लड़ती रहेगी, गाती रहेगी

जब कभी भी लौटकर इन राहों से गुज़रेंगे हम

जीत के सब गीत कई-कई बार हम फिर गाएंगे

लेकर ये अरमां दिल में चलता रहेगा”

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest