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कोविड के बाद मीडिया: हम एक नये 'आपातकाल' में हैं

भारत सरकार मीडिया से चाहती है कि वह 'सच' और 'तथ्यपरक' जानकारी का पता लगाये।मगर उससे पहले सरकार चाहती है कि मीडिया चल रहे इस संकट को लेकर फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाकर डर पैदा करना बंद करे।  मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह नहीं चाहती है कि मीडिया को घटनाक्रमों का आधिकारिक संस्करण’ और घटना के संदर्भ को छापने को लेकर किसी तरह का निर्देश दिया जाय। ऐसा इसलिए क्योंकि उसका इरादा  ‘खुली चर्चा’ के साथ किसी भी तरह के ‘हस्तक्षेप’ करने का नहीं है। सवाल उठता है कि क्या हम कहीं उस स्थिति की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं,जो 1970 के दशक के मध्य में देश में लागू आपातकाल के समय थी। आपातकाल के दौरान दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने प्रेस के मुंह पर लगाम लगा दी थी ? हां,बिल्कुल। दुर्भाग्य से ऐसा ही हो रहा है।
कोविड

COVID-19 महामारी और आर्थिक विध्वंस के साथ-साथ दुनिया भर के साथ-साथ भारत में भी स्वास्थ्य आपातकाल का पालन किया जा रहा है। मगर, हो सकता है कि इसके बाद मीडिया आगे कभी भी ऐसा नहीं रह पाये,जैसा कि वह इस समय है। दुनिया भर में कई सरकारों के दावे हैं कि सूचना प्रवाह पर राज्य का नियंत्रण न केवल इंटरनेट और सोशल मीडिया पर फर्ज़ी ख़बरों का मुक़ाबला करने के लिए आवश्यक है,बल्कि अनेक पहलुओं वाले मौजूदा संकट का सामना करने के लिए भी ज़रूरी है।

इस देश में इस बात की एक साफ़ संभावना दिखती है कि आने वाले दिनों में नियमों की नयी व्याख्या की जाये। इस बात की भी संभावना है कि सत्तारूढ़ शासन को सक्षम बनाने वाले क़ानूनों में संशोधन किया जाय, ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विशेष रूप से डिजिटल मीडिया की सूचना पर अंकुश लगाया जा सके। इसका मक़सद यह दलील पेश करना बिल्कुल नहीं है कि झूठी ख़बरें परोसने वाले के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। बल्कि एक साफ़ और मौजूदा ख़तरा यह है कि भारत सहित सत्तावादी शासनों द्वारा झूठी ख़बरों का प्रस्तावित इलाज, इस बीमारी से भी बदतर साबित हो सकता है।

31 मार्च की शाम को भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबडे और न्यायमूर्ति एल.नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने निम्नलिखित निर्देश जारी किए:

“शहरों में बड़ी संख्या में काम करने वाले मज़दूरों का पलायन फ़र्ज़ी ख़बरों से पैदा हुए उस डर का नतीजा था,जिसमें कहा गया था कि लॉकडाउन तीन महीने से अधिक समय तक जारी रहेगा। इस तरह के डर से पैदा हुआ पलायन उन लोगों के लिए अनकही पीड़ा का कारण बन गया है, जो इस तरह की ख़बरों पर विश्वास और अमल करते हैं। कुछ लोगों की इस प्रक्रिया में मौत भी हो गयी है। इसलिए, हमारे लिए यह संभव नहीं है कि हम इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट या सोशल मीडिया के फ़ैलाये जा रहे इन फ़र्जी ख़बरों के ख़तरे को नज़रअंदाज़ कर दें। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 54 में किसी ऐसे व्यक्ति को सज़ा दिये जाने का प्रावधान है, जो आपदा या उसकी गंभीरता या आकार-प्रकार को लेकर  झूठी चेतावनी पैदा करता है या झूठा डर पैदा करता है या उन्हें फैलाता है। ऐसे व्यक्ति को क़ैद की सज़ा मिल सकती है, जो एक वर्ष तक की हो सकती है या क़ैद के साथ-साथ जुर्माना भी लगाया जा सकता है।”

अदालत ने मीडिया से आग्रह किया कि बिना आधार के डर पैदा करने वाले ख़बरों को न फैलाये।अदालत  ने आगे कहा : “इस महामारी को लेकर खुली चर्चा में हस्तक्षेप करने का हमारा कोई इरादा नहीं हैं। लेकिन मीडिया को यह निर्देश दिया जाये कि घटनाक्रम के बारे में आधिकारिक विवरण पर नज़र रखें और उसे ही प्रकाशित करें।”  

अदालत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के महानिदेशक डॉक्टर टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस के हाल ही में दिये गये बयान को उद्धृत किया: “हम सिर्फ़ एक महामारी से ही नहीं लड़ रहे हैं; बल्कि हम इस महामारी के बारे में फ़ैलाये जा रही झूठी सूचनाओँ से भी लड़ रहे हैं। फ़र्जी ख़बरें इस वायरस से कहीं ज़्यादा तेज़ी से और आसानी से फैलती है, और उतनी ही ख़तरनाक है।”

केंद्रीय गृह सचिव,अजय के.भल्ला द्वारा हस्ताक्षरित 39-पृष्ठ की स्टेटस रिपोर्ट, और भारत सरकार द्वारा उसी दिन शीर्ष अदालत को सौंपी गयी रिपोर्ट के निष्कर्ष में कहा गया है:

“अपनी ही तरह की इस अभूतपूर्व स्थिति में जानबूझकर या अनजाने में इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट या सोशल मीडिया और विशेष रूप से वेब पोर्टल में की जा रही किसी भी फ़र्ज़ी या ग़लत रिपोर्टिंग से समाज के बड़े हिस्से में दहशत पैदा होने की एक गंभीर और अपरिहार्य संभावना है…समाज के किसी भी वर्ग द्वारा किसी भी तरह की पैदा होने वाली घबराहट न केवल इस वर्ग के लिए नुकसानदेह हो सकती है, बल्कि पूरे राष्ट्र को भी इससे नुकसान पहुंच सकता है।”

सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया कि वह मीडिया को केंद्र सरकार की ओर से दी जाने वाली सच्ची (और) तथ्यपरक स्थिति का पता लगाये बिना ख़बरों को "छापने, प्रकाशित करने या प्रसारित" नहीं करने को लेकर निर्देश दे।

23 मार्च की शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 घंटे से भी कम समय के भीतर इस महामारी के ख़तरे की गंभीरता को समझा। उन्होंने "राष्ट्र को एक महान सेवा" प्रदान करने के लिए मीडिया के "अथक प्रयासों" की सराहना की। प्रधानमंत्री ने "सोशल डिस्टेंसिंग, देश की राजधानी दिल्ली में पुलिस के जवान और हैदराबाद में देशव्यापी लॉकडाउन की रिपोर्टिंग कर रहे कम से कम चार पत्रकारों के साथ हुई मारपीट को लेकर जागरूकता फैलाने में समाचार चैनलों द्वारा निभायी जा रही भूमिका की भी तारीफ़ की।

इसी बीच प्रमुख हिंदी टेलीविज़न समाचार चैनल, आजतक के एक रिपोर्टर नवीन कुमार के साथ हुई मारपीट की ख़बर भी आयी। नवीन कुमार ने कहा कि काम के दौरान 24 मार्च की दोपहर को दिल्ली पुलिस की वर्दी में कुछ लोगों ने उनके साथ गाली-गलौज और मारपीट की। अपना पहचान पत्र दिखाने के बावजूद, उन्हें एक वैन के अंदर धकेल दिया गया, जहां तीन पुलिसकर्मियों ने उन्हे गालियां दीं और मुक्के से मारते रहे। उन्होंने कहा कि वैन के आसपास कुछ लोगों के इकट्ठा होने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया।ये इकट्ठा हुए लोग उनके साथ हुई मारपीट के गवाह थे।

उसी रात, हैदराबाद में पुलिसकर्मियों ने तीन पत्रकारों पर शारीरिक हमले किये। इन पत्रकारों में द हिंदू के ब्यूरो चीफ़, रवि रेड्डी थे, जिन्हें एक बैरिकेड पर रोक दिया गया और काम से घर लौटते समय उनपर हमला कर दिया गया। दूसरे पत्रकार, तेलुगु दैनिक, आंध्र ज्योति के राजनीतिक ब्यूरो चीफ़, मेंदु श्रीनिवास  थे,जिनके साथ भी मारपीट की गयी और उन्हें अपमानित किया गया। ऐसा ही उर्दू दैनिक,सियासत की अंग्रेज़ी वेबसाइट के पत्रकार मोहम्मद हुसैन के साथ भी हुआ।  

मीडिया की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने और पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए काम करने वाले न्यूयॉर्क स्थित स्वतंत्र, ग़ैर-लाभकारी, गैर-सरकारी संगठन, कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (CPJ) के प्रतिनिधि ने दिल्ली और हैदराबाद पुलिस विभागों के प्रवक्ताओं को संदेश भेजे। इस संदेश में  चार पत्रकारों द्वारा बतायी गयी बातों पर उनके विचार मांगे। लेकिन, पुलिस की तरफ़ से किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।

भले ही ये घटनायें अपनी तरह के कुछ ख़ास उदाहरण हों। मगर, पुलिस भारत की राजधानी और तेलंगाना की राजधानी में जिस तरह कार्य कर करती है, पुलिस की वह शैली पर लोगों को क्या चकित नहीं होना चाहिए। पुलिस वह तरीक़ा भी चकित करता है,जिसमें कोई पुलिसकर्मी मोबाइल फ़ोन पर रिकॉर्ड किये गये वीडियो में दिखायी देता है। इससे भी बदतर तो वह तरीक़ा है,जिसके तहत वे ग़रीबों और वंचितों के साथ अपराधी की तरह पेश आते हैं ?

सच्चाई के बाद के युग का भारतीय मीडिया

सच्चाई के बाद की दुनिया के जिस विरोधाभास में हम जी रहे हैं, उसे दो जुड़े हुए घटनाक्रमों के उदाहरणों से समझा जा सकता है: जिस दिन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (I & B) द्वारा पत्र भेजा गया,उसी दिन प्रधानमंत्री ने एक वीडियो-कॉन्फ़्रेंस में देश भर के मीडिया समूहों के मालिकों और प्रतिनिधियों के साथ आयोजित वीडियो-कॉन्फ़्रेंस में प्रवचन जैसा कुछ भाषण दिया। सबसे पहले,प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा जारी एक बयान के अनुसार, मोदी ने जो कुछ कहा, उसका एक अंश कुछ इस तरह है :

“संवाददाताओं, कैमरापर्सन और तकनीशियनों के अथक प्रयास राष्ट्र की एक महान सेवा है। मीडिया को सकारात्मक ख़बरों के ज़रिये निराशावाद और डर का मुक़ाबला करना चाहिए। COVID-19 एक जीवन की चुनौती है और इसके साथ नये और आधुनिक समाधानों से निपटने की ज़रूरत है।”

सूचना और प्रसारण विभाग के निदेशक,गोपाल साधवानी ने इस सिलसिले में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को एक पत्र भेजा। भेजे गये इस पत्र में कहा गया कि समाचार एजेंसियों, टेलीविज़न चैनलों, टेलीपोर्ट ऑपरेटरों, डिजिटल सैटेलाइट न्यूज़ गैदरिंग (यूनिट्स) (DSGGs), डायरेक्ट टू होम (DTH) और हेड-इन-द-स्काई (HITS) मल्टी-सिस्टम ऑपरेटर (MSO), केबल ऑपरेटर, FM (फ़्रीक्वेंसी मॉड्यूलेशन) रेडियो और सामुदायिक रेडियो स्टेशन बहुत अहम सेवायें दे रहे हैं। ये  सेवायें "समय पर और प्रामाणिक जानकारी के प्रसारण को सुनिश्चित करने के लिहाज से" बेहद अहमियत रखती हैं।"

इस पत्र में आगे कहा गया है कि इस सिलसिले में इस तरह की सुविधाओं और बीच की संस्थाओं के चलते रहने की अनुमति दी जाये। पत्र में निर्देश दिया गया कि सेवा देने वाली संस्थाओं के मान्यता प्राप्त कर्मचारियों की आवाजाही के साथ-साथ मीडिया-कर्मियों और DSNG इकाइयों को लान-ले जाने वाले वाहनों को बिना किसी रुकावट की अनुमति दी जानी चाहिए। बाधवानी ने आगे कहा:

“इन नेटवर्क की समुचित कार्यपद्धति लोगों में जागरूकता पैदा करने और अहम संदेश देने के लिए बेहद ज़रूरी है। बल्कि राष्ट्र को नवीनतम हालात की जानकारी देने के लिए भी यह ज़रूरी है ... फ़र्ज़ी और झूठी ख़बरों से बचने की ज़रूरत है और अच्छी चीज़ों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है…”

23 मार्च को प्रधान मंत्री ने कहा कि समाचार चैनल ऐसे "महत्वपूर्ण" फ़ीडबैक देते हैं, जिन पर "सरकार लगातार कार्य कर रही है।"  संवाददाताओं को किस तरह काम करना चाहिए,उसके बारे में भी उन्होंने जानकारी दी। उन्होंने कहा कि चैनलों को फ़ील्ड रिपोर्ट को बूम माइक्रोफ़ोन देना चाहिए ताकि वे इंटरवीऊ करते समय कम से कम एक मीटर की दूरी को बनाये रख सकें।

देश भर में चलने वाले तीन सप्ताह के लॉकडाउन की घोषणा होने से मुश्किल से छह घंटे पहले, मोदी और भारत के विभिन्न हिस्सों से ग्यारह अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित और प्रसारित होने वाले  20 से अधिक मीडिया संगठनों के मालिकों और संपादकों के बीच बातचीत हुई। इस बातचीत का सबसे अधिक विस्तृत विवरण सागर(महक महाजन के इनपुट के साथ) द्वारा कारवां में  लिखा गया । यहां उस विवरण का एक लंबा निचोड़ कुछ इस तरह है:

“प्रधानमंत्री की वेबसाइट के मुताबिक़ बातचीत के दौरान प्रधान मंत्री, मोदी एक नोटबुक और पेन लेकर बैठे थे। इस बैठक के दरम्यान प्रतिभागियों द्वारा सुझाव देने पर उन्हें नोट लेते हुए देखा जा सकता था।  इस अभ्यास में सरकार के लगभग एक हिस्से के रूप में उन पत्रकारों का प्रतिनिधित्व था, जो किसी संस्था के सदस्य होने के बिल्कुल उलट था। इनका काम सरकार पर इसकी कमियों पर सवाल उठाना था। लेकिन,इसके बजाय, ज़्यादातर मालिक और संपादक इस बातचीत के लिए आभारी दिखायी दिये। प्रधानमंत्री की इस वेबसाइट ने बताया कि ये पत्रकार COVID-19 को लेकर प्रधानमंत्री के "प्रेरक और सकारात्मक रिपोर्टिंग प्रकाशित करने वाले सुझावों पर काम" करने को लेकर प्रतिबद्ध दिखायी दिये। उस बातचीत के बाद, बैठक में मौजूद कुछ मालिक और संपादकों ने ट्विटर पर प्रधानमंत्री को उन्हें वीडियो कांफ्रेंसिंग का हिस्सा बनाने और उनकी राय लेने के लिए धन्यवाद दिया। जबकि अन्य ने अगले दिन टेलीविज़न स्क्रीन पर मोदी और अपनी तस्वीरों के साथ इस बैठक की रिपोर्टें प्रकाशित कीं। ।

इस सम्मेलन के बाद, मैंने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया, दोनों मीडिया हाउस के उन नौ मालिकों और संपादकों से बात की, जिन्होंने उस बातचीत में भाग लिया था। लगभग सभी ने अपनी राय पर विचार करने वाले मोदी की तरफ़ से मिले एक सहमति के "इशारे" को लेकर बात की। सब के सब प्रधानमंत्री से सम्मोहित नज़र आये।

मैंने उन मालिकों और संपादकों से मोदी के साथ उनकी बातचीत में उनकी तरफ़ से मिली सकारात्मक स्टोरी को प्रकाशित करने की सलाह  को लेकर सवाल किया। मैंने पूछा कि क्या इस सलाह के कारण  नोवल कोरोनोवायरस से लड़ने में सरकार की नीतियों पर आलोचनात्मक स्टोरी को प्रकाशित करते हुए उनके संपादकीय फ़ैसले प्रभावित होंगे या नहीं।  उनमें से केवल दो ने साफ़ तौर पर कहा कि वे इस बातचीत के बावजूद आलोचनात्मक स्टोरी प्रकाशित करेंगे।  तीन ने कहा कि वे ऐसा नहीं करेंगे, लेकिन इसके कारण अलग होंगे, यह कारण वह बातचीत नहीं होगा। उनमें से एक ने इस रिपोर्ट में हमारी बातचीत का हवाला देते हुए मुझसे इस तरह के सवाल का संदर्भ छोड़ देने के लिए कहा। दूसरों ने तो टिप्पणी करने से ही इनकार कर दिया।

लेकिन, उनके बाद के COVID कवरेज की जांच-पड़ताल से जो बात सामने आयी है,उससे पता चलता है कि मोदी के सावधानी बरतने वाले शब्दों ने अपना काम कर दिखाया। वायरस के प्रति सरकार के रवैये को लेकर समाचार पत्र साफ़ तौर पर उसके पक्ष में दिखे। इन संगठनों की तरफ़ से जो सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकट को लेकर कवरेज आयी,उसने तस्वीर को साफ़ कर दिया। उन कवरेज में लॉकडाउन की खराब योजना और दुखद कार्यान्वयन, या विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रारंभिक चेतावनी के बावजूद स्वास्थ्य कर्मियों के लिए महत्वपूर्ण चिकित्सा उपकरणों को स्टॉक करने जैसी महामारी की तैयारी को लेकर सरकार की विफलता का बहुत कम ज़िक्र था।

कारवां की रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मीडिया समूहों के मालिकों और संपादकों की प्रतिक्रियाओं और उनके समूहों द्वारा उसके बाद के कवरेज से एक साफ़ संकेत मिलता है। ऐसा लगता है कि प्रधान मंत्री ने उनमें से अधिकांश को “सच बोलने, आलोचनात्मक रहने, सशक्त बने रहने” जैसे पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत को छोड़ने के लिए प्रेरित कर दिया।

आपातकाल से सबक

सुप्रीम कोर्ट के मंगलवार के फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए वरिष्ठ पत्रकार, बरखा दत्त ने ट्विटर पर कहा कि घटनाओं और घटनाक्रमों के लिए सरकार की प्रतिक्रिया मांगने में कुछ भी ग़लत नहीं था। लेकिन, सवाल यह है कि जब सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है, तो पत्रकारों को क्या करना चाहिए। वह हैरत जताते हुए सवाल करती  हैं: “... हमें चुप क्यों रहना चाहिए ? इससे तो रिपोर्टिंग की हत्या हो जायेगी।”

कभी मोदी समर्थक रहे और अब उनके आलोचक,वरिष्ठ पत्रकार, तवलीन सिंह ने आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी द्वारा कही गयी बात को याद करते हुए कहा: "यह पूछे जाने पर कि उनकी सबसे बड़ी ग़लती क्या थी,उन्होंने कहा था: प्रेस सेंसरशिप।" इंदिरा गांधी ने सिर्फ़ संपादकों और पत्रकारों को ही नहीं, बल्कि अपने राजनीतिक विरोधियों को भी सलाखों के पीछे डाल दिया था। 23 जून, 1975 को आपातकाल लागू किए जाने के तीन दिन बाद, टाइम्स ऑफ इंडिया (जो सरकारी सोच को अंगूठे पर रखे हुए था) के 'वर्गीकृत' खंड में एक छोटा सा 'ओबिच्यूअरी' दिखायी दी थी। इसके बारे में बाद में पत चला कि वह ऑबिच्युअरी, जो किसी श्रीलंकाई अख़बार के एक विज्ञापन से प्रेरित था, उसे अशोक महादेवन ने डाला था। महादेवन उस समय रीडर्स डाइजेस्ट के भारत संपादक थे। यह ऑबिच्यूअरी कुछ इस तरह लिखी गयी थी:

"O'Cocracy (डेमोक्रेसी का संकेत), D.E.M., T.Ruth  (ट्रूथ का संकेत) के प्रिय पति, Hope(उम्मीद), Faith(विश्वास) और Justicia(ज्यूडिशियरी का संकेत) के पिता, 26 जून को गुज़र गये।" लगभग साढ़े चार दशक बाद, मोदी सरकार ने भले ही अलग तरह से किया हो, लेकिन उसका नतीजा उसी तरह का है। वह नतीजा है: सरकार की आलोचना पर अंकुश। प्रधानमंत्री ने नियंत्रित परिस्थितियों में अपनी शर्तों पर मीडिया के साथ बातचीत की है। मई 2014 के बाद, उन्होंने किसी ऐसे पत्रकार को एक भी साक्षात्कार नहीं दिया है,जो उनसे सख़्त सवाल कर सके। इस “चौथे स्तंभ” के साथ की गयी उनकी एक-एक बातचीत बारीकी से और सावधानीपूर्वक आयोजित की जाती रही है।

मेनस्ट्रीम मीडिया पर आर्थिक मंदी की दोहरी मार (जिसने विज्ञापन पर ख़र्च को कम या धीमा कर दिया है) पड़ रही है। इंटरनेट पर सोशल मीडिया के इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है। इस कारण दुनिया के ज़्यादातर मीडिया आर्थिक रूप से निचुड़ गया है। इसके अलावा, भारत में, सरकार की दरियादिली पर बढ़ती निर्भरता ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि मीडिया का ज़्यादातर हिस्सा सत्ता के भुगतान के अधीन है।

रही सही पर कतरने के लिए मोदी सरकार ने औपनिवेशिक युग के 1867 के प्रेस और किताबों के पंजीकरण अधिनियम में संशोधन करने के लिए 2019 में पुस्तक और आवधिक पंजीकरण विधेयक को पेश कर दिया है। मोदी सरकार ने डिजिटल मीडिया संगठनों (मुख्यधारा के कॉर्पोरेट मीडिया के एक बड़े वर्ग के समर्थन से चलने वाले) में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को सीमित कर दिया है। इन दोनों क़दमों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने की क्षमता है। यह लम्बी चर्चा की मांग करता है,जो बाद में की जायेगी।

नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु के एक छात्रा,आंचल भटेजा ने न्यूज़क्लिक के लिए एक लेख लिखा था। इस लेख की  शुरुआत अब्राहम लिंकन के एक कथन से शुरू होता है। इस कथन से ऐसा लगता है लिंकन ने 21 वीं सदी के बाद के युग को बहुत पहले ही भांप लिया था।उस कथन में अब्राहम लिंकन कहते हैं: “लोगों को सच्चाई जानने दें और देश सुरक्षित रहेगा। ”

उस छात्रा ने लिखा:

“आज, जब लाखों लोग तेज़ी से फैल रहे Covid-19 के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं और कई हज़ार लोगों ने दम भी तोड़ दिये हैं। ऐसे में आवाम की  ज़रूरत सही तथ्यों की एक नियमित खुराक पाने की है। इसके लिए, केबल टीवी और नेटफ्लिक्स युग से पहले के ज़माने के रामायण टीवी धारावाहिकों की किसी नियमति खुराक की ज़रूरत नहीं है,बल्कि नागरिकता को लेकर अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित करने की है। लेकिन,इसके बजाय, ग़लत सूचनाओं की एक ज़बरदस्त मात्रा बहुत आसानी से सुलभ है, जिसकी सच्चाई का शायद ही पता लगाया जा सके।

फ़र्ज़ी ख़बर के लिए व्हाट्सएप के निचले दायें कोने पर स्थित बटन, ‘फॉरवर्ड बटन’ पर सिर्फ़ एक क्लिक करने की ज़रूरत है। इस क्लिक के ज़रिये कोई यूज़र लगभग 1,300 लोगों को मैसेज भेज सकता है। जबकि फ़ेसबुक पर, केवल एक क्लिक के सहारे एक ही पोस्ट कई लोगों तक पहुंचायी जा सकती है। इसके लिए सिर्फ़ एक मिलीसेकंड का समय चाहिए होता है। हालांकि, तथ्यों की जांच-पड़ताल को लेकर चर्चित वेबसाइट, ऑल्ट-न्यूज के अनुसार, फ़र्जी सूचनाओं के पर्दाफ़ाश करने की प्रक्रिया बहुत विस्तृत।  इसके लिए इमेज सर्च टूल्स का उपयोग करना, व्यापक ऑनलाइन शोध, स्थानीय अधिकारियों तक पहुंचना, प्राथमिक डेटा का हवाला देना इत्यादि जैसे जटिल कार्यों की ज़रूरत होती है। यह फ़ॉरवर्ड बटन पर क्लिक करने की तुलना में कहीं ज़्यादा समय लेता है।

‘भेजने वाले की अहमियत’ के कारण फ़र्ज़ी ख़बरें जंगल की आग तरह तेज़ रफ़्तार से फैलती है। इसका पहला कारण है, वह व्यक्ति एक विशेष जानकारी साझा कर रहा होता है। इन फ़र्ज़ी ख़बरों का किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा समर्थन किया जा रहा होता है, जिसका इन फ़र्ज़ी ख़बरों को बढ़ाने वालों की नज़रों में एक बेहतर छवि या सम्मान होता हैं। दूसरा कारण उसकी 'चयनात्मक खपत' है। इसमें लोग अधूरी जानकारी को यह मानते हुए आगे बढ़ाते हैं कि यह एक संपूर्ण जानकारी है। इसका तीसरा कारण है उसके 'नेटवर्क प्रभाव' का मज़बूत होना।  इस नेटवर्क प्रभाव के कारण किसी ख़बर की कोई एक पीस एक अहम बिंदु तक पहुंचने के बाद वायरल हो जाता है। और इसका चौथा कारण होता है,इसका ‘सच्चाई के बाद का प्रभाव। इसके बारे में लोगों का मानना होता है कि वे जो कुछ भी देखते या सुनते है,वो सिर्फ़ इसलिए, क्योंकि यह उनकी राजनीतिक विचारधारा और समाजीकरण से मेल खाता है। सोशल मीडिया इनबॉक्स, फ़ेसबुक वॉल, व्हाट्सएप चैट, ट्विटर पेज और कई अन्य लोकप्रिय और कम प्रसिद्ध साइटें और ऐप इस नोवल कोरोनोवायरस, इसकी उत्पत्ति, इलाज और रोकथाम के बारे में जानकारी से भरे हुए हैं। कुछ लोग सच्चाई या तर्क से दूर होते हैं, और इस तरह  की सूचनायें हमारे आर्थिक और सामाजिक सेहत के लिए अकल्पनीय नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखते हैं।

आंचल भटेजा यह सुझाव देते हुए अपना लेख समाप्त करती हैं कि यह "सूचना प्रौद्योगिकी मध्यवर्ती संस्था के दिशानिर्देश (संशोधन) नियम, 2018 को फिर से लागू करने और हानिकारक सामग्री को चिह्नित करने और उन्हें निष्क्रिय करने और फ़र्ज़ी ख़बरों के फैलने से रोकने को लेकर सरकार के लिए शायद यह एकदम सही समय है।"

इन्फ़ोडेमिक से मुक़ाबला

यह ग़ौर करने लायक एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। भारत के साथ-साथ कई अन्य देशों में भी इन फ़र्जी ख़बरों, ग़लत सूचनाओं और इनके प्रचार-प्रसार को लेकर सत्ताधारी दक्षिणपंथी शासकों के समर्थक सबसे आगे रहे हैं। भारत में व्हाट्सएप  कथित तौर पर 400 मिलियन उपयोगकर्ता हैं। लेकिन दक्षिणपंथी शासकों के समर्थख इस व्हाट्सएप को अपना ज़रिया बनाने के लिहाज से सबसे आगे है। किये जाने वाले दावों के उलट, डिजिटल एकाधिकार की शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिए जनमत को प्रभावित करने वाला कोई भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया है।

बीजेपी और उसके समर्थक, दूसरों से कहीं ज़्यादा, व्हाट्सएप और फ़ेसबुक जैसे प्लेटफार्मों का उपयोग करने में सक्षम हैं। (सिरिल सैम के साथ सह-लेखक रहे इस लेखक की अप्रैल 2019 में स्व-प्रकाशित पुस्तक,"भारत में फ़ेसबुक का असली चेहरा: सोशल मीडिया किस तरह से दुष्प्रचार का हथियार और फ़र्ज़ी ख़बरों और झूठ के प्रचार-प्रसार वाहक बन गया है" को पढ़ा जा सकता है।)

इस महामारी की रिपोर्टिंग करते हुए दुनिया भर में प्रतिष्ठानों की आलोचना करने वाले पत्रकारों को उत्पीड़ित किया गया है; भयभीत किया गया है, जेल में बंद (250 से अधिक हैं)  किया गया है और मार डाला गया है। सरकारें ग़लत सूचना और फ़र्ज़ी ख़बरों का मुक़ाबला करने की आड़ में व्यापक प्रतिबंध लागू कर रही है। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (CPJ) के कार्यकारी निदेशक,जोएल साइमन ने कोलंबिया जर्नलिज्म रिव्यू में 25 मार्च को लिखा था:

“इस झूठे दृष्टिकोण की बढ़ती स्वीकार्यता ही है कि नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों की क़ीमत पर नाटकीय उपाय (मीडिया के काम पर अंकुश लगाना) ज़रूरी हो सकते हैं… इस वैश्विक महामारी को पीछे छोड़ने की कोशिश चल रही है। वैश्विक मंदी के कगार पर खड़ी अर्थव्यवस्था को सम्भालने के प्रयास भी किये जा रहे हैं। लेकिन,इन दोनों के बीच एक सदी से अधिक समय तक हुई एक तरह की अनदेखी के कारण इन दीर्घकालिक नतीजों पर ध्यान केंद्रित कर पाना कठिन है। लेकिन, हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब हम महामारी के दूसरे पक्ष में जाते हैं, तो हमें एक ऐसे गढ़े गये विचार के साथ छोड़ दिया जा सकता है, जिसकी पटकथा चीन द्वारा लिखी जा रही है। इस पटकथा का लब्बोलुआब यह है कि इस संकट से निपटने के लिए सूचना पर सरकारी नियंत्रण ज़रूरी है। बेशक,यह वैश्विक सूचना प्रणाली के लिए एक विनाशकारी झटका होगा।  भयानक महामारी की यादों के रूप में भी इसे सहन किया जा सकता था,जिसका इस समय हम धीरे-धीरे फीका पड़ते हुए सामना कर रहे हैं।”

अब हम इस लेख की शुरुआत में उठाये गये सवाल पर वापस आते हैं कि क्या भारत 1970 के दशक के मध्य वाली उस स्थिति की ओर तो नहीं बढ़ रहा है, जब आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने प्रेस की ज़बान बंद कर दी थी। दुर्भाग्य से इसका जवाब,साफ़ तौर पर "हाँ" है। लेकिन, यह एक अलग तरह का आपातकाल है। मोदी ग़लतियों को स्वीकार नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें अकेले पश्चाताप के लिए छोड़ दें। ठीक वैसे ही,जैसे कि इंदिरा गांधी ने चार दशक पहले पश्चाताप किया था। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण,नोटबंदी है।

आपातकाल के दौरान, द इंडियन एक्सप्रेस, द स्टेट्समैन और हिम्मत जैसे कुछ प्रकाशनों ने ही सरकार का दिन-रात विरोध किया था। एक्सप्रेस ने तो इस विरोध में अपने संपादकीय पृष्ठों को ख़ाली-ख़ाली छोड़ दिया था। जिस समय मैं बुधवार, 1 अप्रैल को इस लेख को समाप्त कर रहा था, मुझे पता चला कि एक्सप्रेस ने अपने कई कर्मचारियों के वेतन में कटौती की घोषणा कर दी है।

मार्च 1977 में इंदिरा गांधी की चुनावी हार के बाद, मोरारजी देसाई की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे,लालकृष्ण आडवाणी से पूछा गया था कि इतने सारे संपादकों ने आपातकालीन शासन के सामने इतनी आसानी से हथियार क्यों डाल दिये थे। आज भारतीय जनता पार्टी के नव्वे साल पूरे कर चुके इस "नाराज़ बुज़ुर्ग" ने तब जवाब दिया था: "जब उन्हें झुकने के लिए कहा गया था, तब वे रेंगने लगे थे।" जून 1975 से जनवरी 1977 तक, भारत में लगभग पूरा प्रेस तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की तारीफ़ में बिछा जा रहा था। आज प्रधानमंत्री मोदी को चिंता करने का कम से कम कोई कारण तो नहीं है। देश के मीडिया सामंतों को रेंगने के लिए भी कहा जा रहा है। सत्ता की सच्चाई को पकड़ने या सत्ता और शक्ति का विरोध या विरोधी की भूमिका निभाने के बारे में तो भूल ही जाइये। भारत के कथित ‘चौथे स्तंभ’ के ज़्यादातर प्रतिनिधि विज्ञापन एजेंसियों या जनसंपर्क कंपनियों में काम करने वालों से थोड़े ही अलग रह गये हैं।

यह वास्तव में भारत में बचे-खुचे स्वतंत्र मीडिया के लिए कठिन समय है। इस बात की एक स्पष्ट संभावना है कि आने वाले समय में हालात और खराब होंगे। इंडियन एक्सप्रेस में जो कुछ हुआ है, वह महज एक शुरुआत हो सकती है।

लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार है। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Media After Covid: Why We Are Under a New ‘Emergency’

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