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यादें हमारा पीछा नहीं छोड़तीं... छोड़ना भी नहीं चाहिए

जन-विरोधी सत्ताएं हमेशा भूल जाओ-भूल जाओ का राग अलापती रहती हैं।
यादें हमारा पीछा नहीं छोड़तीं... छोड़ना भी नहीं चाहिए

यादें हमारा पीछा नहीं छोड़तीं। छोड़ना भी नहीं चाहिए। यादों के साथ—स्मृतियों के साथ—इंसाफ़ की चाहत जुड़ी रहती है, नये भविष्य का सपना जुड़ा रहता है, और जाने-अनजाने भुला दिये गये अतीत को नये संदर्भ में देखने-परखने की ज़रूरत जुड़ी रहती है। जन-विरोधी सत्ताएं हमेशा भूल जाओ-भूल जाओ का राग अलापती रहती हैं। जब नागार्जुन ने कविता लिखी, ‘भूल जाओ पुराने सपने’ (1979), तो उसमें जो व्यंग्य और वेदना है, उसकी अंतर्ध्वनि यही है कि उस सपने को फिर ज़िंदा किया जाये। यह कविता शासक वर्ग पर हमला करती है।

हिंदुत्ववादी एजेंडे के तहत, सरकार की सरपरस्ती में बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी, और किसी को सज़ा नहीं हुई—सभी अभियुक्त बरी कर दिये गये। इस आपराधिक कृत्य को कैसे भुलाया जा सकता है? 1992-93 में मुंबई में मुसलमानों पर जो बर्बर हिंसा हुई, उसे कैसे भुलाया जा सकता है? गुजरात मुस्लिम जनसंहार-2002 को हम कैसे भुला दें, जो सरकारी देखरेख में हुआ?

2013 में मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में मुसलमानों के ख़िलाफ़ चलाये गये अत्यंत हिंसक अभियान को याद रखने की ज़रूरत है, ताकि इसके अपराधियों को माकूल सज़ा मिल सके। शाहीनबाग़ आंदोलन को याद रखा जाना चाहिए, जो भारतीय  लोकतंत्र का सुनहरा अध्याय है। यह पूरी तरह औरतों के नेतृत्व में चलाया गया पहला बड़ा आंदोलन था। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर की जनता 5 अगस्त 2019 से लगातार भारतीय फ़ौज के बूटों और राइफ़लों के आतंककारी साये में रह रही है (हालांकि कश्मीरी जनता की यातना का दौर काफ़ी पहले से चला आ रहा है।) हमें लक्षद्वीप की जनता को सलाम करना चाहिए, जो हिंदुत्ववादी हमले से अपने जीवन, समाज, संस्कृति को बचाने के लिए लड़ रही है।

हम हाथरस (उ.प्र.) की उस दलित बेटी को कैसे भूल जायें, जिसके साथ पिछले साल बलात्कार हुआ, उसकी हत्या कर दी गयी, और उसकी लाश को भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की पुलिस की देखरेख में आधी रात को जला दिया गया? लड़की के मां-बाप को उनके घर में पुलिस ने बंद कर दिया था। इस घटना की खोज-ख़बर लेने हाथरस जा रहे पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन और उनके साथियों को पुलिस ने बीच रास्ते में ही गिरफ़्तार कर लिया और उन पर राजद्रोह क़ानून और अन्य संगीन आपराधिक धाराएं लगाकर उन्हें जेल भेज दिया।

हम भीमा कोरेगांव-यलगार परिषद ‘षडयंत्र’ मामले से जुड़े उन 15 साथियों को याद रखें, जो पिछले तीन सालों से जेल में बंद हैं, उन पर अभी तक मुक़दमा नहीं शुरू हुआ, और एक को छोड़कर बाक़ी किसी को ज़मानत नहीं मिली। इस मामले में सोलहवें बंदी फ़ादर स्टेन स्वामी की सांस्थानिक हत्या हो चुकी है—कुछ दिन पहले जेल में उन्होंने दम तोड़ दिया। इस मौत को हम न भूलें। उम्र कैद की सज़ा काट रहे प्रोफेसर जीएन साईबाबा और उनके साथियों को हम न भूलें, जो नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं।

दिल्ली मुस्लिम-विरोधी हिंसा-2020 को हमें अपनी याद्दाश्त का हिस्सा बनाये रखना चाहिए। इस प्रायोजित हिंसा के सिलसिले में कई निर्दोष नौजवान स्त्री-पुरुष कार्यकर्ताओं (ऐक्टिविस्ट) पर गंभीर आपराधिक धाराएं लगाकर उन्हें गिरफ़्तार किया गया है। इनमें ज़्यादा तादाद मुसलमानों की है। इन नौजवानों पर झूठे, फ़र्जी मुक़दमे लादे गये हैं, जबकि इस हिंसा के असली गुनहगार छुट्टा घूम रहे हैं।

दिल्ली की सरहदों पर नवंबर 2020 से चल रहा किसान आंदोलन हमारी आंखों और स्मृति से ओझल नहीं होना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन दमनकारी कृषि क़ानूनों को पूरी तरह रद्द करने की मांग को लेकर शुरू हुआ यह लोकतांत्रिक आंदोलन देश में किसानों का अब तक का सबसे बड़ा मोर्चा और जमावड़ा बन चुका है। इसने हिंदुत्व फ़ासीवाद-विरोधी लड़ाई को तेज़ करने में सक्रिय सहायक की भूमिका निभायी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की निरंकुशता को इस किसान आंदोलन ने संगठित चुनौती दी है।

हम याद न रखें, अपनी स्मृति हम गंवा दें—इसके ख़िलाफ़ बराबर वैचारिक लड़ाई चलाने की ज़रूरत है। कई बार स्मृति हमारे होने को प्रमाणित करती है। जन-विरोधी सत्ताएं इस चीज़ से ख़ौफ़ खाती हैं।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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