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“पुरुषों से निवेदन है कि महिलाओं का मज़ाक बनाना बंद करें, ये चुटकुले नहीं आपका दिमाग़ी फ़ितूर है”

कोरोना संकट के बीच औरतों पर बनते भद्दे मीम्स पुरुषवादी सोच और पितृसत्ता की ही निशानी है। मनोविज्ञान चिकित्सक का मानना है कि अपने मज़ाक में हम अक्सर वो बातें कहते हैं जो असल में हम सोचते हैं...।
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“महिलाओं से निवेदन है कि शांत रहें, जिससे पुरुष घर में रह सकें”

ये भाषा एक मीम की है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हाथ जोड़कर महिलाओं से आग्रह करते हुए दिखाया गया है। देश में कोरोना वायरस का क़हर जारी है और ऐसे ही धड़ल्ले से जारी है मनोरंजन के नाम पर कटाक्ष के लिए महिलाओं पर बन रहे मीम्स और घटिया चुटकुले।

यक़ीनन आप इसे मज़ाक में ले सकते हैं लेकिन वास्तविकता ये है कि आज भी हमारे समाज में पितृसत्तामक सोच हावी है। इस तरह के मीम्स और मज़ाक से महिलाओं को कभी झगडालू तो कभी वस्तु की तरह पेश किया जाता है। उन्हें हमेशा पुरुषों से कमतर आंकने की कोशिश की जाती है। इसी तरह जातिवादी सोच की वजह से हम अक्सर दूसरे वर्ग विशेष को अपनी मज़ाक या कुंठाओं का निशाना बनाते हैं।

प्रधानमंत्री के 24 मार्च को देश के नाम संबोधन के बाद से 25 मार्च से 21 दिन तक पूरे भारत में लॉकडाउन लागू है। ऐसे में सभी को घरों में रहने की सलाह दी गई है, कुछ जरूरी सेवाओं को छोड़कर सभी सरकारी और प्राइवेट संस्थान बंद हैं। लेकिन हैरानी की बात है कि इस संकट की घड़ी में भी महिलाओं का उत्पीड़न कम नहीं हुआ है। घर में बैठे-बैठे व्हाट्सऐप, फेसबुक या यूं कहें कि सोशल मीडिया के फैमिली ग्रुप्स में महिलाओं पर बनने वाले भद्दे जोक्स ने एक नई प्रताड़ना की दुनिया कायम कर ली है, औरतों के प्रति व उनसे बनाये जाने वाले रिश्ते के प्रति की अपनी घिनौनी सोच उजागर कर दी है।

सोशल मीडिया पर शेयर किये जाने वाले मीम्स में एक बड़ी तादाद पत्नियों के खिलाफ है। इन जोक्स में पत्नियों को क्रूर, लालची, शिकायत करने वाली और अशांति फैलाने वाली के तौर पर पेश किया जा रहा है। इन मीम्स के माध्यम से  पत्नी को एक अनचाही बला दिखाकर उसके पति को पीड़ित बताया जा रहा है। पति न चाहते हुए भी 21 दिन उसके साथ घर में रहने को मज़बूर है। इतना ही नहीं, उसे अलौकिक समस्याओं के तौर पर पापों के फल की तरह दिखाया जाता है।

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इन जोक्स में पत्नियों के किरदार में हम महिलाओं को हमेशा ‘वस्तु’ की तरह प्रस्तुत करते हैं और इस वस्तु की ख़ास बात ये है कि ये सभी के लिए ज़रूरी तो है लेकिन उसकी नकारात्मक परिभाषा हम उसके स्वाभाविक गुण के तौर पर बताते है।

निशा जो एक गृहणी हैं इस संबंध में कहती हैं, “हमारे फैमली ग्रुप में आज-कल ऐसे कई मैसेज आते रहते हैं। शायद सब घर पर खाली बैठे हैं इसलिए कुछ न कुछ भेजते रहते हैं। मेरे पति तो मुझे ऐसे चुटकुले सुनाकर खुद हंसते रहते हैं। मैं भी इसे मज़ाक की तरह सुनकर टाल देती हूं, लेकिन जब उनके कोई दोस्त बताते हैं कि वो घर का कुछ काम कर रहे हैं तो वो कहते हैं ये हम मर्दों का काम थोड़े है। ये सुनकर मुझे बहुत बुरा लगता है, क्या घर का काम सिर्फ औरतों के जिम्मे है, क्या मर्द कर ले तो उसकी शान खत्म हो जाएगी। इसलिए फिर ऐसे जोक्स पर गुस्सा भी आता है।”

वैसे कितनी अजीब बात है ऐसे जोक्स का उस फैमली ग्रुप्स में लाइक और शेयर किया जाना, जहाँ हम पत्नी की कल्पना अर्द्धनारीश्वर के तौर पर करते हैं। उसी पत्नी के लिए आधुनिकता के इस दौर में भी पति के नाम पर ढेरों व्रत की विधि बताते है। इतना ही नहीं, परिवार, नाते और रिश्तेदार के धागों में सिर्फ एक महिला के पत्नी किरदार से पिरोये जाते हैं। लेकिन अपनी बातों में हम उसकी परिभाषा सिर्फ अपने भद्दे जोक्स तक सीमित रखते है।

हंसी-मज़ाक करने के लिए मीम्स, चुटकुले बनाना शायद बहुत कॉमन हो लेकिन जब चुटकुले साधारण हंसी मज़ाक जैसे विषयों से निकलकर कुछ गंभीर और दुखद विषयों पर खिसक जाते हैं तो ये न सिर्फ भयावह हो जाते हैं बल्कि दुखदायी भी हो सकते हैं। पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु समझ कर उसे पुरुष की जरूरतों के अनुरुप ढालने की कोशिश की जाती है। इसी तर्ज पर इसकी सामाजिक रचना गढ़ी गयी है और इसे तमाम विचारों, कहावतों, सांस्कृतिक गतिविधियों और चुटकुलों के माध्यम से गाहे-बगाहे जिंदा रखा जाता है।

महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली शबनम बताती हैं, हमें इसलिए इस मज़ाक को हल्के में नहीं लेना चाहिए क्योंकि ये रूढ़ीवादी सोच को और बढ़ावा देते हैं। औरतें कोई मनोरंजन की वस्तु नहीं हैं। एक सभ्य समाज को चाहिए की वो इसका विरोध करे। अगर कोई महिला या पुरुष ऐसा मज़ाक करता है तो हमें तुरंत उस पर कड़ी प्रतिक्रिया देनी चाहिए, उसे वहीं रोकना चाहिए। चुप रहने से बात नहीं बनेगी।”

शबनम आगे कहती हैं कि क्योंकि मज़ाक में या चुटकुलों के ज़रिये कही गयी बातें हमारे मन में धीरे-धीरे अपनी पैठ जमाने और विचार बनाने का काम करती हैं, ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि जब महिला हिंसा, बलात्कार, लैंगिक भेदभाव, धार्मिक द्वेष या किसी भी हिंसा से संबंधित विचार को हम किसी चुटकुले में सुनते हैं तो उसपर तुरंत आपत्ति दर्ज करवाएं।

मनोविज्ञान चिकित्सक मनीला का मानना है कि अपने मज़ाक में हम अक्सर वो बातें कहते हैं जो असल में हम सोचते हैं, लेकिन अनुकूल वातावरण न मिलने की वजह से वो विचार हमारे मन में दबे रह जाते हैं। और वही फिर अनुकूल वातावरण मिलते ही हमारे मज़ाक के रूप में सामने आते हैं।

वो कहती हैं, “शायद हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी महिलाओं को उसी नज़रिए से देखता है, इसलिए ऐसे जोक्स सामने आते हैं। हम टीवी सीरियल्स और फिल्मों में भी कई किरदार ऐसे देखते हैं, जिसका बहुत असर हमारी सोच पर पड़ता है और फिर ये बातें इस रूप में सामने आती हैं।”

गौरतलब है कि इस बात को हम नकार नहीं सकते हैं कि बड़ी तादाद में महिलाओं के प्रति नकारात्मक और संकीर्ण छवि गढ़ने वाले ये जोक्स और इन्हें पढ़ने, लाइक और शेयर करने वाले लोगों की दोहरी सोच को दिखाते हैं। आज जब हम लैंगिक समानता की कल्पना करते हैं और अपने रोजमर्रा के जीवन में इसे लागू करने की कोशिश करने में जुटे हुए हैं, ऐसे में ये बेहद ज़रूरी है कि हम इस तरह से भद्दे विचारों वाले जोक्स या मैसेज और मीम्स का विरोध करें।

आइए अपने परिवार और बाहर के सभी पुरुषों से कहें-

“पुरुषों से निवेदन है कि महिलाओं का मज़ाक बनाना बंद करें, ये सिर्फ़ चुटकुले नहीं आपका दिमागी फ़ितूर है... निवेदन है कि मज़ाक की जगह काम में हाथ बंटाना शुरू करें क्योंकि महिलाएं ‘घर से काम’ पर हैं, ‘घर के काम’ पर हैं।”

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